सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कटुता कैसे हालात पैदा करती है, इसका ताजा उदाहरण है बिहार विधानसभा में लगातार दूसरे दिन भी हंगामा। इस हंगामे के दौरान धक्कामुक्की से लेकर मारपीट तक देखने को मिली। वैसे तो इस हंगामे के आसार विधानसभा सत्र शुरू होने के पहले ही दिखने लगे थे, लेकिन गत दिवस विपक्ष ने विधानसभा का जिस उग्र तरीके से घेराव किया, उससे यह साफ हो गया था कि सदन के भीतर भी हालात सामान्य नहीं रहने वाले। इस घेराव के दौरान विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं ने पत्थरबाजी करने में भी संकोच नहीं किया। इस पत्थरबाजी में पुलिस कर्मियों के साथ पत्रकार और अन्य लोग भी घायल हुए। आखिर विरोध का यह कौन सा तरीका है? सवाल यह भी है कि क्या विपक्ष यह चाह रहा था कि उसके कार्यकर्ताओं की पत्थरबाजी के जवाब में पुलिस- प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहता? वास्तव में यही सवाल विधानसभा में हुए हंगामे को लेकर भी उठता है। सड़क के बाद सदन में हंगामे की स्थिति इसलिए बनी, क्योंकि बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक की प्रतियां फाड़ने के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष को उनके कक्ष में बंद कर दिया गया। जब उनके लिए बाहर निकलना मुश्किल हो गया तो पुलिस बुला ली गई। नि:संदेह सामान्य स्थितियों में ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन क्या वह सब होना चाहिए था, जो विपक्षी विधायकों ने सदन के भीतर किया? कम से कम इसे रचनात्मक-सकारात्मक आचरण तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता।

विपक्ष की मानें तो नीतीश सरकार बिहार सैन्य पुलिस को अनावश्यक अधिकार देना चाहती है, जबकि सत्तापक्ष का तर्क है कि वह इस बल को वैसा ही रूप देना चाहता है, जैसा केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल का है। विपक्ष सरकार के तर्को से पूरी तरह असहमत हो सकता है, लेकिन वह सत्तापक्ष के शासन चलाने के अधिकार का हरण नहीं कर सकता और यदि उसे यह लगता है कि राज्य सरकार की ओर से बिहार सैन्य पुलिस को अनुचित अधिकारों से लैस किया जा रहा है तो उसके पास अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार है। इसका कोई मतलब नहीं कि बाहुबल के जरिये विधेयकों को पेश और पारित करने से रोका जाए। लोकतंत्र संख्याबल से चलता है, सदन के भीतर-बाहर बाहुबल का प्रदर्शन करने से नहीं। बिहार में विधानसभा चुनावों के बाद से ही विपक्ष ने सरकार के प्रति जैसा रवैया और जैसी भाषा अपना रखी है, उससे तो यही लगता है कि वह जनता का फैसला स्वीकार करने को तैयार नहीं। पक्ष-विपक्ष के बीच जैसे कटु रिश्ते बिहार में देखने को मिल रहे हैं, वैसे ही अन्य कई राज्यों में भी। ऐसे रिश्ते लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं।