राजीव सचान। सात चरणों में होने वाले आम चुनाव के लिए जैसे-जैसे प्रत्याशियों की घोषणा हो रही है, वैसे-वैसे कई स्थानों से उनके खिलाफ असंतोष और बगावत के भी समाचार आ रहे हैं। इस तरह के समाचारों का सामना लगभग सभी दलों को करना पड़ रहा है-चाहे वे राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय। पिछले कुछ वर्षों से बड़े दल प्रत्याशियों के चयन के मामले में यह दावा करने लगे हैं कि वे ऐसा करने के पहले सर्वे कराते हैं और उसी आधार पर उनका चयन करते हैं।

कुछ दल तो यह भी कहते हैं कि वे अपने स्तर पर भी सर्वे कराते हैं और बाहरी एजेंसियों की भी सहायता लेते हैं। इस दावे की सत्यता परखना भी कठिन है और यह कहना भी कि ऐसे सर्वे नीर-क्षीर ढंग से होते हैं। यह कहना तो और भी कठिन है कि इस क्रम में राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं की राय को महत्व देते हैं। इससे भी कठिन यह कहना होगा कि जनता की राय ली जाती है और उसे महत्व दिया जाता है।

राजनीतिक दल दावा कुछ भी करें, वे आम तौर पर तमाम प्रत्याशियों को कार्यकर्ताओं या फिर क्षेत्र के लोगों की पसंद बताकर उन पर उन्हें थोप देते हैं। इनमें कुछ वे भी होते हैं, जो दो-चार दिन पहले ही अपना दल छोड़कर किसी अन्य दल में गए होते हैं या फिर अपने दल से टिकट न मिलने पर दूसरे दल में जाकर टिकट हासिल कर लेते हैं। ऐसे भी प्रत्याशी चुनाव मैदान में दिखते हैं, जिनकी न तो क्षेत्र की जनता और न ही उस दल के कार्यकर्ता कल्पना कर रहे होते हैं।

आम तौर पर ऐसे प्रत्याशी कलाकार, नौकरशाह, खिलाड़ी आदि होते हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि बंगाल के बहरमपुर लोकसभा क्षेत्र के तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने यह कहा होगा कि इस सीट पर सबसे उपयुक्त प्रत्याशी गुजरात के पूर्व क्रिकेटर यूसुफ पठान रहेंगे? क्या आसनसोल के भाजपा कार्यकर्ताओं की ऐसी कोई चाहत रही होगी कि बिहार के भोजपुरी गायक पवन सिंह सबसे मजबूत प्रत्याशी साबित होंगे? यह अलग बात है कि उन्हें मजबूरी में चुनाव लड़ने से मना करना पड़ा।

क्या झारखंड में सिंहभूम के भाजपा कार्यकर्ताओं का यह आग्रह रहा होगा कि सबसे अच्छी प्रत्याशी कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा रहेंगी? क्या राजस्थान में चूरू के कांग्रेस कार्यकर्ताओं की यह मांग रही होगी कि टिकट न मिलने से नाराज हो गए भाजपा सांसद राहुल कस्वां को पार्टी का प्रत्याशी बनाया जाए तो उत्तम? कई जगह कुछ प्रत्याशी पैराशूटर जैसे होते हैं। वे अनपेक्षित रूप से प्रत्याशी बनकर जनता के समक्ष हाजिर हो जाते हैं। बीते दिनों इसकी चर्चा रही कि कानपुर में भाजपा कार्यकर्ता ही अपने प्रत्याशी को पहचान नहीं पाए।

यह समझ आता है कि अपने देश में राजनीतिक दलों के लिए आननफानन ऐसी व्यवस्था बनाना कठिन है, जिसमें वे प्रत्याशी चयन में जनता की भी राय लें, क्योंकि पिछले सात दशकों में ऐसी कोई कोशिश ही नहीं की गई, लेकिन कम से कम वे अपने कार्यकर्ताओं की राय को तो महत्व दे ही सकते हैं। अभी इसका दावा भले ही किया जाता हो, लेकिन उसे सच मानने के कोई बहुत ठोस आधार नहीं दिखते। जब कोई दल अपना विस्तार बिल्कुल नए क्षेत्रों में कर रहा हो, तब उसके लिए यह आवश्यक सा हो जाता है कि वह दूसरे दलों के नेताओं को अपने पाले में लाकर उन्हें प्रत्याशी बनाए, लेकिन वे तो अपने मजबूत गढ़ों में भी ऐसा करते हैं। एक लंबे समय से कई नेता लोकप्रिय होने या जनसेवा का इरादा रखने के कारण नहीं, बल्कि दल विशेष में पहुंच या पैसे के बल पर भी प्रत्याशी बन जाते हैं। यह कोई दबी-छिपी बात नहीं कि कुछ दल टिकट बेचते हैं। टिकट बेचने का आरोप झेलने वाले दल कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर गूगल कर लें तो बेहतर।

जब किन्हीं कारणों से किसी राजनीतिक दल की लहर चल रही होती है या फिर उसके नेता की लोकप्रियता चरम पर होती है तो कैसे भी प्रत्याशी खड़े कर दिए जाएं, वे आम तौर पर आसानी से जीत हासिल कर लेते हैं। 1977, 1980, 1984 और 2014 एवं 2019 के आम चुनावों में ऐसा हो चुका है। कई बार विधानसभा चुनावों में भी ऐसा हो चुका है। 1983 में अविभाजित आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने तो करिश्मा ही कर दिया था। उन्होंने चुनाव के नौ महीने पहले अपनी पार्टी तेलुगु देसम का गठन किया और चुनाव लड़कर सत्ता में आ गए।

यह भी देखने को मिलता रहा है कि यदि सत्ताधारी दल के प्रति गहरी नाराजगी हो तो विरोधी और विशेष रूप से विकल्प बनने में सक्षम दिख रहे राजनीतिक दल के योग्य के साथ कई अयोग्य प्रत्याशी भी चुनाव जीत जाते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हो सकता कि ऐसे दल अपने ऐसे नेताओं के कामकाज और छवि की चिंता किए बिना उन्हें बार-बार प्रत्याशी बनाते रहें। वैसे इस स्थिति के लिए केवल राजनीतिक दलों को दोष नहीं दिया जा सकता। इसके लिए वे लोग भी दोषी हैं, जो अयोग्य साबित हुए या फिर अपने कामकाज से निराश करने वालों को भी जाति, मजहब के नाम पर विधानसभा या लोकसभा पहुंचा देते हैं।

मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री या फिर इन पदों के दावेदार कितने भी सक्षम और लोकप्रिय हों, यदि उनके प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की समस्याओं का समाधान करने में तत्परता नहीं दिखाते तो अंततः रोना जनता को ही पड़ता है। ऐसे जनप्रतिनिधियों के कारण कभी न कभी संबंधित राजनीतिक दल भी नुकसान उठाते हैं, लेकिन वे प्रत्याशी थोपने की अपनी आदत छोड़ नहीं रहे हैं। वे यह आदत तब तक नहीं छोड़ेंगे, जब तक जनता चेतेगी नहीं और उन्हें चेताएगी नहीं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)