क्षमा शर्मा। दहेज अधिनियम और अन्य महिला कानूनों के दुरुपयोग की खबरें लगातार आती रहती हैं। उच्चतम न्यायालय ने ही इसे एक बार ‘कानूनी आतंकवाद’ कहा था, लेकिन इसके बावजूद इस मोर्चे पर कोई सुधार नहीं हो रहा है। एक महिला ने अपने पति से परिवार अदालत में तलाक ले लिया, लेकिन इसके छह महीने बाद उसने दहेज निरोधी अधिनियम के तहत पूर्व पति और उसके घर वालों के खिलाफ मानसिक प्रताड़ना का केस दर्ज करा दिया। पुलिस ने एफआइआर दर्ज कर पति को चार्जशीट किया।

इस पर उसने उच्च न्यायालय की शरण ली और अपने खिलाफ आपराधिक कार्यवाई समाप्त करने की मांग की। उच्च न्यायालय ने उसकी अपील निरस्त कर दी। इसके बाद उसने उच्चतम न्यायालय का रुख किया। उसके वकील ने उच्चतम न्यायालय में यह भी कहा कि महिला ने पहले भी जब घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत अपील की तो अदालत ने इसे नहीं माना था और महिला ने भी इस मामले को नहीं बढ़ाया था। वकील ने यह तर्क भी दिया कि जब परिवार अदालत द्वारा शादी समाप्त की जा चुकी है तो इस तरह की शिकायत साफ तौर पर कानून का दुरुपयोग है।

उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनु. 142 के तहत मिले विशेषाधिकारों का उपयोग करते हुए मामले को खारिज कर दिया। उसने यह भी कहा कि तलाक के बाद लोगों को उत्पीड़न से बचाना जरूरी है। इस मामले में पीड़ित व्यक्ति को दस साल तक न्यायालय के चक्कर काटने पड़े। इन वर्षों में उसने और उसके परिवार ने कितनी मुसीबत झेली होगी, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सोचिए कि जिनके पास साधन-संसाधन न हों, वे क्या करें?

अदालतें दहेज प्रताड़ना और दुष्कर्म के झूठे मामलों में स्त्रियों को फटकार तो लगाती रहती हैं, लेकिन कानूनों का दुरुपयोग इसलिए नहीं थम रहा, क्योंकि उन्हें झूठा मामला बनाने पर कोई सजा नहीं मिलती। बदले की भावना, पति के परिवार वालों के साथ न रहना, जमीन-जायदाद के मसले, कई बार पुरुष मित्र के साथ जाने की चाहत आदि को लेकर 498-ए का खूब दुरुपयोग हो रहा है। ऐसे मामलों में आदमी की पहचान भी बार-बार उजागर की जाती है। कई बार उसके फोटो भी छपते हैं। नौकरी चली जाती है।

जेल भी जाना पड़ता है। कुछ के तो सारे पैसे और पूरी बचत तक खर्च हो जाती है। यह अफसोस की बात है कि कानूनों ने पुरुषों और उनके परिवार को ऐसे दानवों के रूप में बदल दिया है, जो किसी स्त्री के आरोप लगाते ही अपराधी मान लिए जाते हैं। आरोपित को अपराधी बनाने का चलन हमारे यहां बेहद आम है। मीडिया का एक हिस्सा इसमें बढ़-चढ़कर भाग लेता है। आखिर यह कैसे मान लिया गया है कि कानून का काम सिर्फ एक पक्ष को न्याय देना है। स्त्री या पुरुष, जो भी अपराधी हो उसे सजा मिले, लेकिन किसी के आरोपित बनते ही उसे अपराधी सिद्ध कर देना कहां का न्याय है?

कायदे से जिस पर आरोप लगा है, वह जब तक अपराधी साबित न हो जाए, तब तक उसकी पहचान उजागर न की जाए। ऐसा करने से बहुत से निरपराधों को बचाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि हमारे नीति-नियंता इन बातों को नहीं जानते, लेकिन नारी हित के नाम पर क्रूर कानून बदलने की कोई कोशिश नहीं की जाती। क्या इसलिए कि उन्हें महिलाओं के वोट चाहिए और जरा सा भी परिवर्तन करेंगे तो महिला हितों के नाम पर दुकानदारी करने वाले शोर मचाएंगे? विकसित देशों में शायद ही कहीं ऐसे कानून हों, जहां एक पक्ष को सत्यवादी मान लिया जाए और दूसरे को बिना प्रमाण अपराधी। आखिर पुरुषों के मानवाधिकारों के बारे में कब सोचा जाएगा या पुरुष होने का मतलब मनुष्य होना नहीं है?

हाल में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी दहेज निरोधी अधिनियम के दुरुपयोग पर चिंता जाहिर की। उसने एक मामले में फैसला दिया कि बहुत बार महिलाएं पति के रिश्तेदारों तक को इस एक्ट में आरोपित बना देती हैं, जबकि उनके खिलाफ कोई सुबूत नहीं होता। वे अलग भी रहते हैं। जो घटनाएं हुई ही नहीं होतीं, उनका उल्लेख किया जाता है, जिससे 498-ए का केस बनाया जा सके। उक्त मामले में पति के आठ रिश्तेदारों को आरोपित बनाया गया था। न्यायालय ने पति और उसकी मां के खिलाफ मामले को जारी रखा, मगर रिश्तेदारों के खिलाफ मामले को खारिज कर दिया।

बीते कुछ समय में तो ऐसे मामले भी प्रकाश में आए हैं कि पति के परिवार से भारी-भरकम रकम लेकर मामले को खत्म किया गया। अब जिनके पास पैसे हैं, वे तो ऐसे समझौते कर सकते हैं, लेकिन जिनके पास नहीं, वे क्या करें? कहां जाएं? आखिर उच्चतम न्यायालय तक कितने लोग पहुंच सकते हैं? निःसंदेह महिलाएं और उनके परिवार दहेज से परेशान रहते हैं। जिन महिलाओं को दहेज के चलते तंग किया जाए, कानून उनकी पूरी मदद करे, लेकिन इसके साथ ही निरपराधियों को फंसाने की कोशिश पर रोक लगाई जाए।

हरियाणा के एक परिचित ने बताया कि वहां ऐसे गिरोह बन गए हैं, जो महिला कानूनों की आड़ में ब्लैकमेल करके वसूली करते हैं। सरकारों और महिलाओं के लिए काम करने वाले लोगों को इस ओर जरूर सोचना चाहिए। कानूनों का दुरुपयोग उनकी विश्वसनीयता कम करता है। वक्त की मांग यह है कि महिला कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाया जाए। कानून किसी एक पक्ष को डराने के लिए नहीं, सभी पक्षों को न्याय देने के लिए होते हैं। राजनीतिक दलों को भी सोचना चाहिए कि उनके वोटर पुरुष भी हैं। कहीं यह तो नहीं मान लिया गया कि आखिर वे जाएंगे कहां, इसे या उसे वोट तो देंगे ही? आखिर नेता पुरुषों को न्याय दिलाने के लिए क्यों कुछ करना नहीं चाहते? राजनीतिक विमर्श में उनसे जुड़े मुद्दों को भी शामिल किया जाना चाहिए।

(लेखिका साहित्यकार हैं)