अवधेश कुमार। प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि वह एससी-एसटी एवं ओबीसी आरक्षण को मुस्लिम समुदाय को देना चाहती है। उनका यह भी कहना है कि संपत्तियों के सर्वे के पीछे भी ऐसा ही इरादा है। इस पर कहा जा रहा है कि वह ध्रुवीकरण चाहते हैं। प्रश्न है कि क्या प्रधानमंत्री ने जो आरोप लगाया, उसे सांप्रदायिक रंग देना माना जाए या उसके पीछे कुछ तथ्य भी हैं?

कांग्रेस नेता प्रधानमंत्री पर हमले तो कर रहे हैं, किंतु यह कहने को तैयार नहीं कि वे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने के पक्ष में नहीं हैं। कांग्रेस यह भी स्पष्ट नहीं करती कि वह मत-मजहब के आधार पर आरक्षण के विरुद्ध है। चूंकि कांग्रेस अपने घोषणा पत्र में आरक्षण की सीमा बढ़ाने का वचन देते हुए यह सुनिश्चित करने को कहती है कि अल्पसंख्यकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सार्वजनिक कार्य अनुबंध, कौशल विकास, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में बिना किसी भेदभाव अवसरों का उचित हिस्सा मिले, इसलिए उसकी मंशा पर प्रश्न उठता है। इसकी एक पृष्ठभूमि है।

कांग्रेस सरकारों ने पहले भी मजहब के आधार पर मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने की पहल की है। चूंकि पंथ-मजहब के आधार पर आरक्षण मान्य नहीं, इसलिए ओबीसी आरक्षण में से ही कर्नाटक में मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण दिया गया। केंद्र में संप्रग शासन के दौरान आंध्र की कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने का कानून बनाया। वह न्यायालय में टिक नहीं सका। आज भी अनुसूचित जनजाति से मतांतरित होकर मुसलमान या ईसाई बनने वालों को आरक्षण का लाभ मिलता है। वे अल्पसंख्यक होने का भी लाभ पाते हैं और अनुसूचित जनजाति का भी।

कांग्रेस यह तो कह रही है कि इसमें मुस्लिम शब्द कहीं नहीं है, पर अल्पसंख्यक का अर्थ क्या है? ध्यान रहे मनमोहन सरकार ने सत्ता में आने के बाद सच्चर समिति गठित की थी, जिसने अपनी रिपोर्ट में आश्चर्यजनक रूप से मुसलमानों को अनुसूचित जातियों से भी खराब स्थिति में बता दिया और उनके सशक्तीकरण के नाम पर जो अनेक अनुशंसाएं कीं, उनमें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण भी शामिल था। मनमोहन सरकार के समय ही रंगनाथ मिश्र समिति ने एससी-एसटी और ओबीसी से मतांतरण करने के बावजूद मुसलमानों को आरक्षण देने की पैरवी की। उसने 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण में से 6 प्रतिशत मुसलमानों को देने की सिफारिश की।

30 नवंबर, 2006 को सच्चर समिति की सिफारिशें आईं और इसके नौ दिन बाद मनमोहन सिह ने राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कहा, ‘मेरा मानना है कि हमारी सामूहिक प्राथमिकता कृषि, सिंचाई, जल संसाधन, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण बुनियादी ढांचे में निवेश के साथ ही एससी/एसटी/ओबीसी, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बच्चों का उत्थान है। हमें ऐसी नई योजनाएं बनानी होंगी, जिनसे अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों को विकास में समान भागीदारी मिल सके।

देश के संसाधनों पर उनका पहला दावा होना चाहिए।’ कांग्रेस इस बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की बात तो करती है, लेकिन इसकी अनदेखी करती है कि इसमें स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमान शब्द है। सच यह है कि 2004 में सत्ता में आने के साथ ही कांग्रेस की यह धारणा बनी कि मुस्लिम मत खिसकने के कारण ही वह उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में हाशिए पर गई और उसकी जगह सपा, बसपा, राजद आदि ने ले ली।

इसी कारण उस दौरान अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा देने से लेकर अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन हुआ। 2014 के आम चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होने से ठीक एक दिन पहले मनमोहन सरकार ने दिल्ली की 123 संपत्तियां दिल्ली वक्फ बोर्ड को सौंप दीं। बोर्ड ने 27 फरवरी, 2014 को इन संपत्तियों पर दावा किया था। इसके सातवें दिन ही मंत्रालय ने उसके पक्ष में फैसला कर दिया। मोदी सरकार में न्यायालय द्वारा इन संपत्तियों को मुक्त कराया गया। दिल्ली उच्च न्यायालय का कहना था कि बिना किसी आधार सरकारी संपत्तियों को वक्फ के हवाले किया गया था। संप्रग शासन के समय अनेक राज्यों में इसी तरह के निर्णय हुए, जिनका कोई वैधानिक आधार नहीं था।

हाल में बंगाल से भी ओबीसी आरक्षण पर एक चौंकाने वाला आंकड़ा आया। वहां 179 जातियां ओबीसी में शामिल हैं, जिनमें 118 मुस्लिम और 61 हिंदू हैं। केंद्र सरकार ने जब राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया तो उसने राज्यों को भी पिछड़े वर्ग की सूची में जातियों को शामिल करने का अधिकार दे दिया। ममता सरकार ने 71 जातियां शामिल कीं, जिनमें 65 मुस्लिम थीं। जब पिछड़ा वर्ग आयोग ने इसका कारण पूछा तो कहा गया कि पिछड़े हिंदुओं ने इस्लाम ग्रहण कर लिया है। जब यह पूछा गया कि कहां-कहां ऐसा हुआ तो उत्तर आया कि इसकी जानकारी नहीं है।

कांग्रेस को जिस तरह तेलंगाना एवं कर्नाटक में मुसलमानों का वोट मिला, उससे उसे लगता है कि मुस्लिमपरस्त नीतियों से ही उसका खोया मुस्लिम वोट बैंक वापस आ सकता है, लेकिन यह कैसे मानें कि सारे मुस्लिम आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़े हैं? जबकि देश में मुस्लिम नवाबों और जमींदारों की बड़ी संख्या रही है। उनकी ताकत इतनी थी कि उन्होंने देश का विभाजन करा दिया। निःसंदेह पिछड़े मुसलमानों का समग्र विकास होना चाहिए, पर सभी मुसलमानों को पिछड़ा कैसे माना जा सकता है? जाति व्यवस्था में हाशिए पर गए समूहों के कारण आरक्षण का प्रविधान लाया गया था। संविधान में धर्म यानी मत-मजहब के आधार पर आरक्षण की कोई व्यवस्था न थी और न हो सकती है। ऐसी किसी व्यवस्था के नतीजे खतरनाक होंगे।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)