विकास सारस्वत। भाजपा ने चुनावी घोषणा पत्र में भारत को वैश्विक उत्पादन का केंद्र बनाने का संकल्प लिया है। आर्थिक विकास प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता रहा है। जहां कांग्रेस भारत को 2043 तक विश्व की तीसरी बड़ी आर्थिकी बनाने की बात करती थी, वहीं मोदी ने अगले कार्यकाल में ही इस लक्ष्य की प्राप्ति का संकल्प लिया है। 2026-27 तक पांच ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की अर्थव्यवस्था और 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने के संकल्प में उत्पादन क्षेत्र का बड़ा महत्व रहने वाला है।

यह संकल्प इस मायने में महत्वपूर्ण है कि वियतनाम, मेक्सिको, थाइलैंड और मलेशिया के साथ भारत अब तक ‘चाइना प्लस वन’ की दौड़ में देखा जाता था। ‘चाइना प्लस वन’ का अर्थ है विश्व की दिग्गज कंपनियां चीन से इतर अन्य देशों में भी उत्पादन इकाइयां स्थापित करें। इस नीति के उलट भाजपा का घोषणा पत्र चीन को हटाकर भारत को उत्पादन का वैश्विक केंद्र बनाने की बात कर रहा है।

भारतीय उद्योगों को निर्यात केंद्रित बनाने और चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे को पाटने के लिए नीति आयोग 2023 से काम कर रहा है। इसके अंतर्गत निर्यात वृद्धि क्षमता वाले उत्पादों को चिह्नित कर चीन में टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं, नियामक तंत्र और बाजार पहुंच संबंधी चिंताओं की गहन पड़ताल हो रही है। आयोग का यह अध्ययन विशिष्ट उत्पादों पर चीनी निर्भरता की जगह दूसरे एशियाई देशों से सप्लाई चेन ढूंढ़ने और बदलती वैश्विक सप्लाई चेन में भारतीय संभावनाएं तलाशने पर भी जोर देगा।

चीन के साथ भारी व्यापार घाटा और उत्पादन क्षेत्र में भारत की अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति कई अन्य समस्याओं की तरह मोदी सरकार को विरासत में मिली। भारत में लचर समाजवादी नीतियों के विपरीत डेंग के नेतृत्व में उदारीकरण ने चीन को निर्णायक बढ़त प्रदान की। फिर भी, 2003 तक चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा बहुत अधिक नहीं था, पर 2004 के बाद संप्रग सरकार ने घाटे की अनदेखी कर ‘द्विपक्षीय व्यापार’ को बढ़ाने पर बल दिया। इसका चीन ने पूरा फायदा उठाया।

व्यापार घाटे की चिंता से बेफिक्र पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के भारत आगमन पर एकपक्षीय बढ़ते व्यापार को अपनी ‘उपलब्धि’ बताया, जबकि मौजूदा सरकार के प्रयासों से देश में इलेक्ट्रानिक्स विशेषकर मोबाइल फोन उत्पादन, विंड टरबाइन और दवा जैसी वस्तुओं के उत्पादन में अभूतपूर्व तेजी आई है।

भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में उत्पादन ही रोजगार सृजन का प्रमुख माध्यम बन सकता है। इस मोर्चे पर अपेक्षित लाभ उठाने के लिए लैंड बैंक, पूंजी की लागत, आधारभूत ढांचा और सुदृढ़ कानून व्यवस्था आदि सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। उद्योग जगत और समाज को भी अपने व्यवहार में बड़ा परिवर्तन लाना पड़ेगा। प्रतिस्पर्धा और विरोध के बावजूद भारत को यदि चीन से कुछ सीखना भी पड़े तो उससे संकोच न किया जाए। चीन ने खुद अपने आर्थिक उत्थान की शुरुआत अमेरिकी तकनीक और दुश्मन माने जाने वाले ताइवान, जापान समेत अन्य देशों के निवेश से की थी।

अपनी चीन यात्राओं के दौरान मुझे चीनी समाज और उत्पादन क्षेत्र को निकट से देखने का अवसर मिला है। नीतियों से लेकर आधारभूत ढांचे और समाजिक मोर्चे तक चीन ने स्वयं को उत्पादन उन्मुख अर्थतंत्र की तरह विकसित किया है। दक्षिण में झुहाई से लेकर उत्तर में तियानजिन तक 3000 किमी का तटीय क्षेत्र छोटे-बड़े उद्योग क्षेत्रों से पटा हुआ है। न सिर्फ अलग-अलग शहर विशिष्ट उत्पादों के उत्पादन केंद्र बने हुए हैं, बल्कि कई शहरों की पूरी अर्थव्यवस्था उनके विशाल थोक बाजारों पर आधारित है। सात किमी लंबे, चमचमाते विश्वस्तरीय बाजार से अकेला यीवू शहर सालाना पंद्रह अरब डालर का निर्यात कर रहा है।

अप्रवासी मजदूरों पर निर्भर भारतीय उत्पादन केंद्रों में कार्मिकों के लिए रिहाइश एक बड़ी समस्या रही है, जबकि चीन ने इसका निदान सार्वजनिक आवासीय व्यवस्था के जरिये किया है। हालांकि डार्मिटरी लेबर रिजीम नामक इस व्यवस्था की आलोचना भी होती है, परंतु अब कुछ यूरोपीय देश भी इसका अनुसरण कर रहे हैं। चीन का स्कूली पाठ्यक्रम भी उत्पादन तंत्र की आवश्यकताओं को समायोजित करता है। मिडिल स्कूल के बाद हर बच्चा जोंगकाओ नामक परीक्षा में बैठता है, जहां हाईस्कूल स्तर पर ही अकादमिक और व्यावसायिक विद्यार्थियों की छंटनी हो जाती है।

परिणामस्वरूप 47% यानी लगभग आधे विद्यार्थी व्यावसायिक शिक्षा में दाखिला लेते हैं। बहुत हद तक स्वायत्त इन व्यावसायिक शिक्षा केंद्रों को अपना पाठ्यक्रम तय करने की छूट होती है। फलस्वरूप एक तिहाई पाठ्यक्रम में सामान्य विषय, एक तिहाई में चुने हुए व्यवसाय से संबंधित कौशल विकास और शेष एक तिहाई पाठ्यक्रम स्थानीय उद्योग की मांगों पर आधारित होते हैं। चार वर्षीय पाठ्यक्रम का अंतिम वर्ष स्थानीय उद्योग में प्रशिक्षु के रूप में बीतता है। व्यावसायिक शिक्षा शुल्क भी सरकारी एवं औद्योगिक अनुदानों से पूरा हो जाता है।

परंपरा विशेषकर कन्फ्यूशियन मूल्य चीनी उद्योग को ठहराव देते हैं। इन मूल्यों में श्रम एवं श्रमिक की गरिमा के साथ-साथ निरंतर सीखते रहने पर बल रहता है। चीनी नववर्ष का अत्यधिक महत्व उद्योग और व्यापार में लेनदेन को उसी वर्ष तक सीमित रखने पर बल देता है, जिसके चलते अर्थव्यवस्था चलायमान रहती है। महिलाओं की बराबरी की भागीदारी भी चीनी सफलता का बड़ा कारण है।

भारतीय अर्थनीति में एक बड़ी खामी निषेधात्मक आयात शुल्क लगने से भी हुई है। ऐसे शुल्क उन उद्योगों को हतोत्साहित करते हैं, जो आयातित मध्यवर्ती माल पर निर्भर हैं। अर्थशास्त्री विरल आचार्य का मानना है कि भारत उन्हीं क्षेत्रों में संरक्षणवादी है, जहां उसके पास ‘चीन प्लस वन’ के रूप में उभरने का अवसर है। नीति आयोग के सदस्य अरविंद विरमानी मानते हैं कि कपड़े की आयात दरों को सरलीकृत और कम करके भारत अपने परिधान निर्यात को सहज ही दोगुना कर सकता है।

उल्लेखनीय है कि चीन की आर्थिक सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पहले पांच स्पेशल इकोनमिक जोन को आयात शुल्क के दायरे से पूरी तरह बाहर रखा गया था। आशा की जानी चाहिए कि लोकलुभावन चुनावी वादों के इस दौर में नीतिगत परिवर्तनों को महत्व दिया जाएगा, ताकि देश एक नई दिशा ले। भारत में उद्योगीकरण ही देश को उन्नति की ओर अग्रसर कर आमजन का जीवन स्तर सुधार सकता है।

(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)