यह अच्छा हुआ कि पतंजलि आयुर्वेद के भ्रामक विज्ञापनों के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जहां बाबा रामदेव एवं उनके सहयोगी बालकृष्ण के वकील से कुछ और सवाल पूछे, वहीं इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आइएमए से भी कई ऐसे प्रश्न किए, जिनका संतोषजनक उत्तर वह शायद ही दे पाए। पता नहीं आइएमए इस सवाल का क्या जवाब देगी कि आखिर एलोपैथ चिकित्सक गैर जरूरी एवं महंगी दवाइयां लिखने के साथ कुछ खास दवाओं की पैरवी क्यों करते हैं, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि एलोपैथ चिकित्सा क्षेत्र में भी सब कुछ ठीक नहीं।

इसी कारण सुप्रीम कोर्ट को आइएमए से यह कहना पड़ा कि वह अपना घर ठीक करे। आइएमए के पदाधिकारी इस तथ्य से अनजान नहीं हो सकते कि तमाम एलोपैथ चिकित्सक कई बार दवाओं की उपयोगिता के आधार पर नहीं, बल्कि निजी लाभ के लिए उनकी बिक्री बढ़ाने का अतिरिक्त जतन करते हैं।

इस क्रम में वे दवा कंपनियों से महंगे उपहार लेने के साथ ही उनके खर्चे पर विदेश यात्राएं करते हैं। कुछ तो नकदी भी लेते हैं। इसी कारण कुछ दिनों पहले केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय ने फार्मा कंपनियों के लिए एक संहिता जारी कर इस सब पर रोक लगाने के सख्त निर्देश दिए थे। आखिर यह काम आइएमए पहले ही अपने स्तर पर क्यों नहीं कर सकी?

यह भी अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने उन कंपनियों पर भी निगाह टेढ़ी की, जो भ्रामक विज्ञापनों के जरिये ऐसे उत्पादों का प्रचार करती हैं, जो शिशुओं और स्कूली बच्चों के साथ बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डालते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से भ्रामक विज्ञापनों के खिलाफ कार्रवाई का विवरण मांग कर बिल्कुल सही किया, क्योंकि अनेक कंपनियां भ्रामक विज्ञापन देने के मामले में बेलगाम दिखती हैं।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले कुछ समय से ऐसे विज्ञापनों की बाढ़ सी आई हुई है, जो मिलते-जुलते नाम वाले उत्पाद के सहारे ऐसे उत्पादों का प्रचार करते हैं, जो सेहत के लिए बेहद हानिकारक हैं। यह और कुछ नहीं कि सरकार और उसकी नियामक संस्थाओं की आंखों में धूल झोंकने वाली गतिविधि है। इस मामले में विडंबना यह है कि सरोगेट विज्ञापन के सहारे हानिकारक उत्पादों का प्रचार कई अभिनेता और खिलाड़ी भी करने में लगे हुए हैं। इस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने की आवश्यकता है।

पतंजलि मामले के सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने के बाद जिस तरह कुछ लोगों ने आयुर्वेद के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है, उसका भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। पतंजलि के भ्रामक विज्ञापन के आधार पर इसका कोई औचित्य नहीं कि आयुर्वेद को ही खारिज किया जाने लगे। जैसी महत्ता एलोपैथ की है, वैसी ही आयुर्वेद और कुछ अन्य चिकित्सा पद्धतियों की। चूंकि सभी चिकित्सा पद्धतियों की अपनी सीमाएं भी हैं, इसलिए उन्हें एक-दूसरे से सीख लेनी चाहिए।