आम चुनावों के अवसर पर भारत में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर आई अमेरिकी विदेश विभाग की रिपोर्ट को खारिज करना आवश्यक था। यह अच्छा हुआ कि भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इस रिपोर्ट को न केवल पक्षपातपूर्ण करार दिया, बल्कि यह भी कहा कि वह भारत के बारे में खराब समझ का परिचायक है।

इस खराब समझ का परिचय अमेरिका के साथ अन्य पश्चिमी देश भी रह-रहकर देते रहते हैं। इन देशों की सरकारों के साथ सरकारी सहायता प्राप्त अथवा कथित रूप से स्वतंत्र संस्थाएं तो प्रायः भारत के बारे में ऐसा आकलन करती हैं, जो दुर्भावना से भी भरा होता है। कई बार तो उनकी यह दुर्भावना छिपती भी नहीं और ऐसी संस्थाएं उपहास का पात्र बनती हैं।

निःसंदेह मानवाधिकारों एवं अन्य अनेक मामलों में भारत में सब कुछ ठीक नहीं, लेकिन क्या अमेरिका या यूरोप में सब चंगा है? निःसंदेह ऐसा भी नहीं है कि भारत में जब कहीं मानवाधिकारों का उल्लंघन या फिर किसी अन्य मोर्चे पर कोई समस्या उत्पन्न होती है तो उसकी अनदेखी कर दी जाती है और संबंधित संस्थाएं एवं अदालतें हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती हैं।

यह संदेह करने के अच्छे-भले कारण हैं कि अमेरिकी विदेश विभाग ने अपनी रिपोर्ट में मणिपुर का उल्लेख इसलिए किया, क्योंकि वह केवल यह जताना चाहता था कि वहां ईसाइयों के साथ ठीक व्यवहार नहीं हुआ। इस रिपोर्ट में जिस तरह राहुल गांधी की सदस्यता खारिज होने का जिक्र किया गया, वह भी सवाल खड़े करता है।

एक तो राहुल अकेले ऐसे जनप्रतिनिधि नहीं, जिनकी सदस्यता खारिज हुई हो। ऐसे न जाने कितने जनप्रतिनिधि हैं। यह भी किसी से छिपा नहीं कि जिस तरह अदालत के आदेश से राहुल गांधी की सदस्यता गई, उसी तरह अन्य नेताओं की भी गई और उच्चतर न्यायालयों के आदेश से बहाल भी हो गई।

क्या अमेरिका यह चाहता है कि भारत सरकार अदालतों को आदेश दे कि उन्हें कैसे फैसले देने चाहिए? समस्या यह नहीं कि अमेरिका या अन्य पश्चिमी देश समय-समय पर भारत की समस्याओं पर चिंता जताते हैं। समस्या इससे है कि वे कुछ चुनिंदा मामलों का उल्लेख करते हैं। इससे भी खराब बात यह है कि पश्चिमी देशों की संस्थाएं कभी यह बताती हैं कि भारत की तुलना में पाकिस्तान में लोग अधिक खुश हैं और कभी यह कि भारत में लोकतंत्र अंतिम सांसें ले रहा है।

ऐसे हास्यास्पद शोध-सर्वेक्षण भारत के प्रति पश्चिम के दुराग्रह को ही अधिक दर्शाते हैं। एक बुरी बात यह भी है कि पश्चिमी मीडिया का एक हिस्सा भी भारत के प्रति दुराग्रह से भरा हुआ है। उसके रवैये से यदि कुछ स्पष्ट होता है तो यही कि उसे भारत का बढ़ता कद रास नहीं आ रहा। अच्छा हो कि पश्चिम यह समझे कि उसे दुनिया को अपने हिसाब से चलाने का अधिकार नहीं मिला हुआ है।