यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पद पर आसीन होने जा रहे जस्टिस रंजन गोगोई ने न केवल यह कहा कि लंबित मुकदमे एक बोझ बन गए हैं, बल्कि यह भी भरोसा दिलाया कि उनके पास इस बोझ को दूर करने की एक योजना है, लेकिन केवल उनके इस कथन से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इसलिए नहीं हुआ जा सकता, क्योंकि हाल के वर्षो में सुप्रीम कोर्ट के एक के बाद एक मुख्य न्यायाधीश लंबित मुकदमों पर चिंता जताते रहे और इनके बोझ को खत्म करने की आवश्यकता जताते रहे, लेकिन ऐसे किसी उपायों पर अमल नहीं कर सके जिससे उच्चतर न्यायपालिका के साथ-साथ निचली अदालतों में लगे मुकदमों के अंबार को कम किया जा सके।

एक अनुमान के अनुसार देश की सभी छोटी-बड़ी अदालतों में तीन करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। इसका सीधा मतलब है कि करोड़ों लोग न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। लंबित मुकदमों में से तमाम मामले ऐसे हैं जो दशकों से निपटारे का इंतजार कर रहे हैं। यह प्रतीक्षा न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न है। लंबित मुकदमों का बोझ लोकतंत्र पर भी सवालिया निशान खड़े करता है। यह सही है कि लंबित मुकदमों के अंबार के पीछे एक बड़ा कारण संसाधनों के साथ-साथ पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश न होना भी है, लेकिन यह धारणा एक हद तक ही सही है कि पर्याप्त संख्या में न्यायाधीश हों तो लंबित मुकदमों के बोझ को कम किया जा सकता है। यदि न्यायिक तंत्र की कार्यप्रणाली में आमूल-चूल बदलाव नहीं होता तो न्यायाधीशों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति भी कारगर साबित नहीं हो सकती।

बेहतर हो कि रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख के रूप में न केवल उच्चतर न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में बदलाव लाने के लिए ठोस कदम उठाएं, बल्कि उच्च न्यायालयों के माध्यम से निचली अदालतों के तौर-तरीके भी बदलवाएं। उन्हें ऐसे उपाय करने ही होंगे जिससे एक ओर जहां तारीख पर तारीख का सिलसिला खत्म हो वहीं दूसरी ओर छोटे-छोटे मामलों में अदालतों का दरवाजा खटखटाने की प्रवृत्ति पर भी विराम लगे। यह एक तथ्य है कि मुकदमों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जो मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति का परिणाम है। इसी तरह बहुत से मामले ऐसे हैं जिनका निपटारा दो-चार सुनवाई में ही आसानी से हो सकता है, लेकिन न्याय तंत्र की जटिल कार्यप्रणाली के चलते छोटे-छोटे मुकदमे भी वर्षो तक खिंचते हैं। यह ठीक नहीं कि जब हर क्षेत्र में सुधार हो रहे हैं तब न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता केवल चर्चा तक ही सीमित है।

यह एक विडंबना ही है कि जो सुप्रीम कोर्ट जनहित याचिकाओं के माध्यम से हर समस्या को सुनने और उसका समाधान करने के लिए तत्पर दिखता है वह स्वयं में और साथ ही उच्च न्यायालयों एवं निचली अदालतों की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए आवश्यक कदम नहीं उठा पा रहा है। यह सही है कि न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता की पूर्ति तब होगी जब कार्यपालिका भी इसके लिए तत्परता दिखाएगी। इसका कोई औचित्य नहीं कि कभी न्यायपालिका के स्तर पर और कभी कार्यपालिका अथवा विधायिका के स्तर पर लंबित मुकदमों के बोझ को लेकर चिंता तो जताई जाए, लेकिन मिलकर आगे बढ़ने से बचा जाए।