आरक्षण का मसला एक बार फिर सतह पर है और इसका कारण सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है कि सरकारें नौकरियों और प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं। उत्तराखंड के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कई राजनीतिक दल यह माहौल बनाने में जुट गए हैं मानों शीर्ष अदालत ने आरक्षण के खिलाफ कोई फैसला दे दिया है। हैरानी यह है कि ऐसा माहौल बनाने वालों में कांग्रेस भी है, जबकि 2012 में उसी के शासन वाली उत्तराखंड सरकार ने लोक निर्माण विभाग के सहायक अभियंताओं की पदोन्नति में एससी-एसटी आरक्षण लागू न करने का फैसला किया था।

उसके इस फैसले को उच्च न्यायालय ने सही नहीं पाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सही करार देते हुए यह भी रेखांकित किया कि पदोन्नति में आरक्षण मूल अधिकार नहीं है। उसके इस फैसले का यह मतलब नहीं है कि एससी-एसटी आरक्षण पर किसी तरह की रोक लगा दी गई है या फिर उसे अमान्य करार दिया गया है। पता नहीं क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इस हिस्से पर गौर करने से बचा जा रहा है कि यदि किन्हीं सेवाओं में आरक्षित वर्गो के प्रतिनिधित्व में असंतुलन नहीं है तो फिर सरकारों को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। आखिर इसमें ऐसा क्या आपत्तिजनक है कि संसद के भीतर और बाहर यह कहा जाने लगा है कि मोदी सरकार आरक्षण खत्म करने की तैयारी में है? यदि यह राजनीतिक शरारत नहीं तो और क्या है?

कम से कम इसका तो कोई औचित्य नहीं कि आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सरकार का फैसला बताकर दुष्प्रचार किया जाए। दुर्भाग्य से कांग्रेस ठीक यही कर रही है? उसने और कुछ अन्य दलों ने ऐसा ही काम तब किया था जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम को संशोधित कर दिया था। यह ठीक नहीं कि राजनीतिक दल संवेदनशील मसलों पर लोगों को गुमराह करने का काम करें।

क्या यह अजीब नहीं कि आज जो कांग्रेस एससी-एसटी समुदाय के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण के लिए व्यग्र दिख रही है उसने ही उत्तराखंड में सत्ता में रहते यह उचित समझा था कि उन्हें यह सुविधा देने की आवश्यकता नहीं है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर केंद्र सरकार ने यह सही कहा कि उसका इस फैसले से लेना-देना नहीं, लेकिन उसे इस पर ध्यान देना होगा कि केंद्र और साथ ही राज्यों की जिन सेवाओं में आरक्षित वर्गो का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है उनमें उनकी समुचित भागीदारी हो। इस भागीदारी के आंकड़े भी सामने लाए जाने चाहिए ताकि किसी तरह के दुष्प्रचार के लिए गुंजाइश न रहे।