बारिश के पहले देश के विभिन्न हिस्सों में पानी की किल्लत के जैसे समाचार आ रहे हैैं वे यही बता रहे हैैं कि आने वाले समय में पेयजल के साथ सिंचाई के पानी का संकट और गहराने वाला है। इसकी पुष्टि नीति आयोग के सीईओ के इस आकलन से भी होती है कि पानी का संकट सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों मेंं धान एवं गन्ने की खेती के जरिये पानी की बर्बादी हो रही है।

यह पहली बार नहीं जब गहराते जल संकट के साथ उसके कारणों का उल्लेख किया गया हो। यह काम एक अर्से से हो रहा है। खुद नीति आयोग ने पिछले साल कहा था कि देश इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। यह अच्छा है कि इस बात को फिर से कहा गया कि धान और गन्ने की खेती के जरिये पानी की बर्बादी की जा रही है, लेकिन केवल समस्या के कारणों का उल्लेख करना ही पर्याप्त नहीं। इन कारणों का निवारण भी करना होगा।

यह आसान काम नहीं, क्योंकि आम तौर पर किसान मनचाही फसलें उगाना अपना अधिकार समझते हैैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि किसानों को यह बताया-समझाया जाए कि किस क्षेत्र में कौन सी फसलें उगाना उचित है? ऐसा केवल बताया ही नहीं जाना चाहिए, बल्कि यह सुनिश्चित भी किया जाना चाहिए कि जल संकट वाले इलाकों में वे फसलें न उगाई जाएं जो कहीं अधिक पानी की मांग करती हैैं। यह कितना कठिन काम है, इसे इससे समझा जा सकता है कि कुछ समय पहले जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गन्ना किसानों के समक्ष यह सवाल उछाला था कि आखिर वे इतना अधिक गन्ना क्यों उगाते हैैं तो उस पर आपत्ति जताई गई थी।

इसका कोई मतलब नहीं कि देश के जिन इलाकों में पानी की कमी बढ़ती जा रही है वहां भूमिगत जल का दोहन करके वे फसलें उगाई जाएं जिनमें कहीं अधिक पानी की खपत होती है। आज महाराष्ट्र गंभीर जल संकट से जूझ रहा है, लेकिन गन्ना उगाने वाला रकबा कम होने का नाम नहीं ले रहा है। इसी तरह उस पंजाब में धान की खेती बड़ी मात्रा में की जा रही है जहां भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति देश के अन्य अनेक क्षेत्रों में है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि किसानों को कोई यह सीख देने वाला नहीं कि वे क्या करें और क्या न करें? इसके लिए जरूरी हो तो आवश्यक नियम-कानून बनाने में देर नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी है।

नि:संदेह किसानों को सिंचाई के वे तरीके भी उपलब्ध कराने होंगे जिनमें कम पानी की जरूरत पड़ती है। इसी के साथ पानी की बचत करने और उसे दूषित होने से बचाने के तौर-तरीके भी विकसित करने होंगे। हालांकि इस मामले में इजरायल से कुछ सीख ली जा रही है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। यह भी एक तथ्य ही है कि वर्षा जल संरक्षण के उपाय अभी कागजों पर ही अधिक हैैं।

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