यह अच्छा हुआ कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण यानी एनजीटी ने फसलों के अवशेष जलाए जाने से रोकने में नाकाम पंजाब सरकार को आड़े हाथ लिया। यह सख्ती जरूरी थी, क्योंकि यह मानने के अच्छे-भले कारण हैैं कि पंजाब सरकार की ढिलाई के चलते राज्य के किसान फसलों के अवशेष खेत में ही जला रहे हैैं। कुछ ऐसी ही स्थिति हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी दिख रही है। हालांकि केंद्र सरकार और साथ ही एनजीटी की ओर से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरकारों को यह सुनिश्चित करने को कहा गया था कि इस बार किसान पराली यानी फसलों के अवशेष न जलाने पाएं, लेकिन ऐसा लगता है कि इन राज्यों ने कहीं कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ, क्योंकि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि राज्य सरकारें और विशेषकर पंजाब एवं हरियाणा उसके निर्देशों की अनदेखी न करने पाएं। समझना कठिन है कि जब केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय पराली जलाने से रोकने के मामले में राज्य सरकारों के नाकारापन से परिचित था तब फिर उसने उन पर दबाव क्यों नहीं बनाया? क्या वह यह मान बैठा है कि पर्यावरण राज्यों के अधिकार क्षेत्र वाला मामला है? यदि नहीं तो फिर उसने निर्देश जारी करके ही कर्तव्य की इतिश्री क्यों की? लोगों की सेहत के लिए खतरा बनने वाले कारणों का निवारण करने में राज्य सरकारों की सुस्ती पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय का ढीला-ढाला रवैया यही जाहिर करता है कि प्रदूषण की रोकथाम के मामले में उसकी कथित सजगता दिखावटी ही अधिक है। क्या यह विचित्र नहीं कि जब पराली जलने लगी और वायु प्रदूषण की समस्या गंभीर रूप लेने लगी तब उसे राज्यों के साथ बैठक करने की जरूरत महसूस हो रही है?
आखिर कितनी बैठकों और आदेशों-निर्देशों के बाद राज्यों को यह साधारण सी बात समझ आएगी कि फसलों के अवशेष, पत्तियों और कूड़ा-करकट को जलने देना एक तरह से मुसीबत को जानबूझकर निमंत्रण देने वाला काम है? सर्दियां निकट आते ही उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण की समस्या बढ़ जाने के सिलसिले से अच्छी तरह परिचित होने के बाद भी पंजाब और हरियाणा में पराली जलाया जाना यही बताता है कि यहां की सरकारें अपनी नाकामी का ढिंढोरा पीटने पर आमादा हैैं। यह लज्जाजनक है कि पंजाब और हरियाणा ने पराली जलाए जाने के मामले में एनजीटी के आदेश की भी अनदेखी की। इसी कारण पंजाब से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक वायु प्रदूषण का स्तर तेजी से बढ़ता दिख रहा है। यदि प्रदूषण के स्तर को बढ़ने से रोका नहीं जा सका तो यह लोगों की सेहत से जानबूझकर किया जाने वाला खिलवाड़ होगा। हालांकि करीब दो दशक पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि सर्दियों के आगमन के साथ ही फसलों के अवशेष जलाना पर्यावरण को जानबूझकर नष्ट करना है, लेकिन अभी भी हालात के जस के तस हैैं। पहले तो राज्यों ने इसे समस्या मानने से ही इन्कार किया। जब सुप्रीम कोर्ट के साथ एनजीटी की सख्ती बढ़ी तो वे बहाने बनाने में जुट गए। यह आश्चर्यजनक है कि वे अभी भी ऐसा कर रहे हैैं।

[ मुख्य संपादकीय ]