[मनोज झा]। Chirag Paswan: क्षेत्रीय दलों में आम तौर पर सत्ता हस्तांतरण तब कोई बड़ी समस्या नहीं बनती, जब उत्तराधिकारी क्षत्रप की ही संतान या उसकी सहमति से परिवार का कोई व्यक्ति हो। इस दृष्टि से देखें तो केंद्रीय मंत्री और दलितों के बड़े नेता रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) में पिछले दिनों हुए सत्ता हस्तांतरण में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं हुआ। पार्टी की केंद्रीय कमान रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान को, जबकि प्रदेश संगठन की बागडोर भतीजे प्रिंस राज को सौंप दी गई।

दलित राजनीति सबसे बड़ी चुनौती

परिवार के अंदर ही सही, अब पार्टी संगठन पूरी तरह युवाओं के हाथ में है। चिराग युवा हैं और विगत में उन्होंने अपनी निर्णय क्षमता साबित भी की है। कई मौकों पर यह बात सामने आई है कि बिहार के साथ-साथ केंद्रीय राजनीति के दांव-पेच और समीकरणों को भी वह अच्छी तरह जानने-समझने लगे हैं। हालांकि उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती दलित राजनीति के अगले ध्वजवाहक बनने और अपने लक्षित मतदाता समूह में पिता जैसी स्वीकार्यता पाने की होगी। एक बात और, कई क्षेत्रीय दलों की कमान अब युवा पीढ़ी के हाथों में है। प्रश्न यह है कि क्या चिराग कोई नई लकीर खींच पाएंगे या फिर अपने पिता की प्रतिच्छाया ही बनकर रह जाएंगे।

मोदी लहर का पूर्वानुमान लगाने में चूकेे रामविलास पासवान

फिल्मी दुनिया में बेहद कम समय के लिए चमक कर लुप्त हो जाने के बाद चिराग सार्वजनिक रूप से पहली बार वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान सामने आए थे। तब भाजपा की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होने को लेकर उनके पिता रामविलास पासवान पसोपेश में थे। रामविलास को राजनीति का मौसम विज्ञानी भले कहा जाता हो, लेकिन शायद उस समय वह मोदी लहर का पूर्वानुमान लगाने में चूक रहे थे। दूसरी ओर, चिराग ने शायद मोदी की आंधी को भलीभांति भांप लिया था और वह किसी संशय में नहीं थे। ऐसे में अपने पिता की दुविधा दूर करते हुए उन्होंने एनडीए के पाले में जाने का दोटूक फैसला किया और अपने पिता को इसके लिए मनाया भी। चिराग का यह कदम ना सिर्फ सटीक साबित हुआ, बल्कि सियासी महकमे में उनकी चर्चा भी होने लगी।

चिराग इस मामले में अन्य क्षत्रप या नेता पुत्रों से थोड़ा अलग इसलिए भी हैं कि उनका नजरिया और अंदाज भविष्योन्मुखी और विकासवादी प्रतीत होता है। रामविलास भी उन्हें दुनिया के सबसे लायक बेटों में से एक बताते नहीं थकते। इधर हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चिराग की तारीफ की थी। इन सबके बावजूद यक्ष प्रश्न यह है कि क्या चिराग अपने पिता की दलित राजनीति की विरासत को कोई नया आयाम दे पाएंगे। या फिर वह इस विरासत से इतर मुख्यधारा की राजनीति में अपनी काबिलियत दिखाएंगे।

रामविलास दलितों के बड़े नेता

इसमें कोई संदेह नहीं कि रामविलास दलितों के एक बड़े नेता हैं और अपने मतदाता समूह में उनकी मजबूत स्वीकार्यता भी है। उनकी लोकप्रियता बिहार के बाहर अन्य प्रदेशों में भी है। इसलिए जहां तक विरासत की राजनीति का प्रश्न है तो चिराग के लिए पहली चुनौती तो अपने पिता जैसी स्वीकार्यता हासिल करने की रहेगी। उनके पास दलित सेना जैसा ताकतवर संगठन भी है। चिराग को पार्टी के सांगठनिक और प्रभाव विस्तार के काम में दलित सेना की मदद बेहद करीने से लेनी होगी। पार्टी के पुराने या युवा नेताओं के अलावा उससे जुड़े संगठनों के बीच आपसी तालमेल बनाकर रखना भी अपने आपमें एक चुनौती बनी रहेगी। प्रदेश अध्यक्ष और उनके चचेरे भाई प्रिंस राज जैसे युवा साथी इस काम में उनके मददगार साबित हो सकते हैं। दलित राजनीति से इतर एक अन्य रास्ता मुख्यधारा की ओर जाता है। यदि चिराग के अंदाज और उनकी गतिविधियों पर गौर करें तो वह मुख्यधारा की राजनीति के ज्यादा निकट प्रतीत होते हैं।

शायद यही कारण है कि उनके प्रशंसक हर जाति-वर्ग में मिल जाते हैं। उन्होंने नोटबंदी या जीएसटी जैसे दूरगामी, लेकिन कड़वे फैसलों को लेकर केंद्र सरकार का समर्थन भी किया था। कुल मिलाकर उनकी सियासी चाल-ढाल एक विकासवादी सोच वाले युवा नेता के रूप में दिखाई पड़ती है। हालांकि ये सारी बातें लोजपा की कमान संभालने के पहले की हैं। अब देखना यह है कि पार्टी की बागडोर थामने के बाद वह कौन से सियासी रास्ते पर चलते हैं। सवाल यह है कि क्या वह अपने पिता की राजनीतिक छाया से इतर कोई अन्य रास्ता अपनाते हैं या फिर दलित राजनीति को एक युवा नेतृत्व देने के रास्ते पर ही आगे बढ़ेंगे। चिराग के पास फिलहाल विकल्प खुले हैं।

हाल के समय में भारतीय राजनीति में नई पीढ़ी के कई नेता पुत्रों ने अभी तक कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं जगाई है। चाहे राहुल गांधी हों या तेजस्वी यादव, फिलहाल इनके सियासी सितारे डूब-उतरा रहे हैं। साथ ही अपने प्रभाव में निरंतरता बरकरार रखने में कहीं न कहीं चूक भी रहे हैं। हालांकि इन नामों की तुलना में चिराग के पास कोई बहुत बड़ी राजनीतिक विरासत तो नहीं है। फिर भी उन्हें खुद को साबित करना अभी बाकी है।

[स्थानीय संपादक, बिहार]