नई दिल्ली, आर विक्रम सिंह। करतारपुर साहिब गलियारे के लिए पाकिस्तान से बातचीत आगे बढ़ती दिख रही है, लेकिन यह सवाल अपनी जगह कायम है कि आखिर करतारपुर भारत का हिस्सा क्यों नहीं है? रावी और बसंतार नदियों के मध्य हमारी सीमा से मात्र पांच किमी दूरी पर स्थित सिखों के प्रथम गुरु नानकदेव जी की कर्मस्थली करतारपुर भारत का ही हिस्सा होता, यदि प्रधानमंत्री नेहरू ने 12 अगस्त से 15 अगस्त के बीच लॉर्ड मांउटबेटन से बल देकर इसके लिए कहा होता। ऐसा नहीं हो सका और आज हम वहां जाने के लिए गलियारा तलाश रहे हैं। आजादी से एक साल पहले 16 अगस्त 1946 को जब जिन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन’ आह्वान से बंगाल में कत्लेआम हुआ तो हमारी अहिंसा के पास उसका कोई उपाय नहीं था। अहिंसक आंदोलन विधि शासित व्यवस्था के अन्याय के विरुद्ध कारगर हो सकता है, लेकिन हिंसा के खिलाफ नहीं। क्या हमारा अहिंसक आंदोलन ईदी अमीन, स्टालिन, माओ या हिटलर जैसे तानाशाहों के खिलाफ खड़ा भी हो पाता? यह जिन्ना की जिहाद के खिलाफ भी खड़ा नहीं हो सका।

डेरा बाबा नानक एवं करतारपुर साहिब के बीच गलियारे का मुद्दा अटल जी ने भी अपनी लाहौर बस यात्रा के दौरान उठाया था। 1959 तक इस भूमि की अदला-बदली की बातें चल रही थीं, लेकिन बात बन नहीं पाई। यह जानना जरूरी है कि हमारी सीमाओं का निर्धारण कैसे हुआ। 8 जुलाई 1947 को सिरिल रेडक्लिफ भारत आए। उन पर मात्र पांच हफ्तों में भारत-पाकिस्तान की सीमाएं खींचने की जिम्मेदारी थी। पेशे से वकील रेडक्लिफ के सहयोग के लिए दो हिंदू और दो मुस्लिम सदस्य लगाए गए। उनका समय आपस में लड़ते हुए ही बीता। यह कवायद संदिग्ध तरीके से संपन्न हुई। अंतिम नक्शों को माउंटबेटन के हवाले कर शेष अभिलेख नष्ट कराने के बाद वह वापस लौट गए। हिंदू प्रतिनिधि जस्टिस मेहरचंद महाजन और तेजा सिंह नक्शों के जानकार नहीं थे। प्रतीत होता है कि तब हमारे शीर्ष नेताओं ने सीमाओं के निर्धारण में खास रुचि नहीं ली।

पंजाब सीमा आयोग 30 जून, 1947 को गठित हुआ। उसे 15 अगस्त, 1947 तक रिपोर्ट देनी थी। उसके सदस्य थे, जस्टिस दीन मोहम्मद एवं मुहम्मद मुनीर। पहली बैठक 14 जुलाई को हुई। 18 जुलाई तक प्रत्येक पक्ष को अपना प्रस्ताव देना था। खुली सुनवाई 21 से 31 जुलाई तक लाहौर में पाकिस्तानी सदस्य दीन मोहम्मद की अध्यक्षता में हुई। तब रेडक्लिफ ढाका में बंगाल की सरहदें तय कर रहे थे। चमनलाल सीतलवाड़ ने कांग्रेस और हरनाम सिंह ने शिरोमणि अकाली दल का पक्ष प्रस्तुत किया। पाकिस्तानी पक्ष मात्र मुस्लिम आबादी की बहुलता के क्षेत्रों का तर्क दे रहा था। वहीं भारतीय पक्ष आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आधारों की दुहाई दे रहा था। 31 जुलाई को शिमला में आयोग के सदस्यों ने अपने-अपने नक्शे पेश किए। जस्टिस महाजन के नक्शे में बंसतार नदी को सीमा रेखा मानते हुए शंकरगढ़ को भारतीय क्षेत्र में शामिल किया गया। करतारपुर साहिब कस्बा और गुरुद्वारे को भारतीय क्षेत्र में लेते हुए नरावल कस्बे के दक्षिण में बसंतार-रावी संगम से आगे कुछ दूर तक वह रावी नदी के साथ प्रस्तावित सीमा को ले गए। अगर इस प्रस्ताव को अहमियत दी जाती तो करतारपुर साहिब भारतीय सीमा में आ जाता।

जस्टिस तेजा सिंह ने चिनाब नदी की सीमा प्रस्तावित की। फिर आगे वह जस्टिस महाजन के अनुसार ही चले। पाकिस्तानी पक्ष ने कोई नक्शा तो नही दिया, पर उसके लोगों ने मुस्लिम लीग की ही लाइन पकड़ी। वे पठानकोट, रोपड़, लुधियाना, फाजिल्का तक की मांग कर रहे थे। बहरहाल 12 अगस्त, 1947 को रेडक्लिफ ने स्वविवेक से निर्णय लेते हुए अपनी रिपोर्ट माउंटबेटन को सौंप दी। इसी रिपोर्ट के आधार पर पंजाब की सीमा तय हो गई। भारतीय पक्ष की पहल के बावजूद करतारपुर साहिब पाकिस्तान में रह गया। माउंटबेटन ने घोषणा से पूर्व अनौपचारिक रूप से यह मानचित्र नेहरू को दिखाया था। वह गुरदासपुर के माध्यम से कश्मीर का मार्ग उपलब्ध हो जाने से संतुष्ट हो गए और शायद इसीलिए करतारपुर साहिब का बिंदु नेपथ्य में चला गया। पंडित नेहरू के स्तर से करतारपुर साहिब का समाधान होना बड़ा आसान था। वास्तव में हमारे नेताओं ने सीमाओं के निर्धारण को गंभीरता से नहीं लिया। यहां तक कि अच्छी-खासी हिंदू आबादी के बावजूद सिंध का विभाजन किए बिना ही उसे पूरा का पूरा जिन्ना को सौंप दिया। राजस्थान की सीमाओं पर स्थित सिंध के जिले उमरकोट एवं थरपाकर हिंदू बहुल थे। सिंधी समाज को सीधे-सीधे खारिज कर दिया गया, जैसे वे भारत के भाग थे ही नहीं। जो सीमा आयोग बना वह मात्र पंजाब तक ही सीमित रह गया। उसका सिंध तक विस्तार नहीं हुआ।

आश्चर्य होता है कि हमारे नेताओं ने सिंध की अनदेखी क्यों की? हमारे नेताओं को यह भी ख्याल नहीं आया कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के जिस गीत को वे भारत का राष्ट्रगीत तय कर रहे है उसमें सिंध का नाम भी प्रमुखता से आता है। सिंधियों को पूरी तरह उनके भाग्य पर छोड़ देना दर्शाता है कि आजादी के अभियान के अंत तक हमारे नेताओं में वह जज्बा, वह शक्ति नहीं बची थी, जिसके साथ 1920 से गांधी जी के नेतृत्व में उसका आगाज हुआ था। इसके चलते वह जो हमारा जिंदा इतिहास था उसके बहुत से सूत्र उस पार छूट गए है। असम तो खैर गोपीनाथ बारदोलाई के साहस से किसी तरह बच गया, लेकिन चटगांव हिल ट्रैक्ट के चकमा आदिवासी पाकिस्तानी त्रासदी के शिकार बन गए। आबादी में उनका हिस्सा 97 प्रतिशत था, लेकिन उनकी पैरवी करने वाला कोई नहीं था। पाकिस्तान से निकाली गई चकमा जनजाति की वह आबादी राज्यविहीन होकर बिना नागरिकता के अपना जीवन यापन करती रही। हाल में इस समाज को बड़ी राहत मिली है। अब वे भी गर्व से स्वयं को भारतीय कह पाएंगे।

बंगाल सीमा आयोग के समक्ष चटगांव हिल ट्रैक्ट के साथ चटगांव का दक्षिणी भाग काक्स बाजार का समुद्रतट जो आज म्यांमार की सीमाओं से मिलता है, मांगा जाना चाहिए था। मात्र 20 किमी चौड़ाई का सिलीगुड़ी कॉरिडोर ही आज भारत को पूवरेत्तर से जोड़ता है। पूवरेत्तर के लिए आज कोई समुद्री बंदरगाह नहीं है। भारत का मजहबी बंटवारा अपने अंतिम चरण में खानापूर्ति जैसा था जिसमें न तो कोई आर्थिक विचार था, न सांस्कृतिक, न ऐतिहासिक। रणनीतिक एवं सुरक्षा संबंधी सोच तो जैसे थी ही नहीं। तत्कालीन नेतृत्व की गैरजिम्मेदारियों ने हमें कश्मीर जैसी समस्या दी, 1962 की पराजय की टीस दी। करतारपुर गलियारा विभाजन की भूलों का प्रायश्चित है। भारत की विभाजित सीमाओं से गुजरना एक बड़ी त्रसदी से दो-चार होने जैसा है।

(लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं)