विशेष गुप्ता। चंद दिन पहले लखनऊ की एक घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। यहां एक 16 वर्षीय किशोर ने अपनी मां की हत्या इसी आक्रोश में आकर कर दी कि वह उसे मोबाइल पर पबजी गेम नहीं खेलने दे रही थीं। वीडियो गेम या मोबाइल की लत के कारण किसी परिवार में अनहोनी का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले 22 अप्रैल को रायगढ़ के 19 वर्षीय किशोर ने इसी गेम की लत के कारण परिवार द्वारा बार-बार टोकने की वजह से आत्महत्या कर ली थी। हाल के समय में ऐसे और भी मामले सामने आए हैं, लेकिन एक बेटे द्वारा मां को मौत के घाट उतार देने का मामला दुर्लभ श्रेणी का और मानवीय रिश्तों को तार-तार कर देने वाला है। इसके लिए इंटरनेट की बढ़ती पैठ को बड़ी हद तक जिम्मेदार माना जा रहा है। समय आ गया है कि हम इंटरनेट के माध्यम से बच्चों के मन में घर करती जा रही हिंसा और उनके क्रूर होते व्यवहार के रुझान को समझते हुए उसके समाधान हेतु उपाय खोजने के लिए कदम उठाएं।

लखनऊ की घटना परिवार और स्कूल जैसी संस्थाओं की भूमिका को भी प्रश्नांकित कर रही है। आखिर क्यों इस नेटीजन सोसायटी में हमारे सहज संवाद वाली संस्थाएं दम तोड़ रही हैं? इंटरनेट पर उपलब्ध तमाम हिंसक गेम्स के सामने हमारे मस्तिष्क को तरोताजा रखने वाली सामाजिक और शैक्षिक क्रियाएं समाज से नदारद क्यों हैं? विस्तार करती आभासी दुनिया एक बीमारी की शक्ल क्यों लेती जा रही हैं? डिजिटल सोसायटी के इस संक्रमण काल में ऐसे प्रश्नों के उत्तर तलाशना आवश्यक है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि पारिवारिक विखंडन के इस दौर का सबसे बड़ा खामियाजा बच्चों को ही भुगतना पड़ा है। उनके मनो-शारीरिक विकास में दैहिक समाज गायब है। कामकाजी माता-पिता के पास उनके लिए समय का अभाव है, जो उन्हें यह बता सकें कि उनके जीवन में उपयोगी चीजों के चयन की दिशा क्या हो। माता-पिता भी बच्चों को सभी सुविधाएं देकर अपने कर्तव्य को पूरा मान लेते हैं। संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों की सीख देने वाले परिवार और स्कूल भी उनसे दूर हो रहे हैं। ऐसे परिवेश में बच्चे अपने लिए चीजों का चयन करने में स्वतंत्र हो गए हैं, जबकि इसके लिए आवश्यक विवेक का अमूमन उनमें अभाव होता है। यही कारण है कि अबोध बच्चे इंटरनेट की आभासी दुनिया के चंगुल में फंसते जा रहे हैं। घर में एक प्रकार से बंद बच्चे उत्सुकतावश हिंसक गेम खेलना शुरू करते हैं और उसमें प्रतिद्वंद्वी को मारने के लिए जो तिकड़म करते हैं, उसमें उन्हें परपीड़क आनंद की अनुभूति होने लगती है। इस प्रकार उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब हिंसक प्रवृत्ति उनके भीतर घर करती जाती है। बाजार भी इसे बखूबी भुना रहा है।

वर्ष 2019 में आनलाइन गेमिंग का जो बाजार 3,700 करोड़ डालर का था वह 2025 तक 12 हजार करोड़ डालर के स्तर तक पहुंच सकता है। एक आंकड़े के अनुसार देश में भी यह कारोबार 10 हजार करोड़ रुपये से अधिक का है। आंकड़े बताते हैं कि कोरोना काल में इन गेमर्स की जो संख्या 35 करोड़ के आसपास थी, 2022 के अंत तक वह 50 करोड़ से भी अधिक हो सकती है। भारत सरकार ने पिछले दो वर्षों में 118 चीनी एप पर प्रतिबंध तो लगाया था, मगर इसके बावजूद वे नाम बदलकर नए कलेवर में सामने आ जाते हैं।

आज बच्चे दोस्तों, सहपाठियों और स्वजनों के साथ जो हिंसा कर रहे हैं, वह निश्चित ही उनकी सहनशक्ति के कमजोर होने एवं उनमें बढ़ते गुस्से का परिचायक है। परिवार, शिक्षक और शिक्षा की जो त्रयी बच्चों के व्यक्तित्व को एक सुरक्षा कवच प्रदान करती थी, उसकी पकड़ अब कमजोर पड़ रही है। संचार माध्यमों ने बच्चों के कल्पनालोक और यथार्थ में घालमेल करते हुए आक्रोश और हिंसा को केंद्र में लाकर लक्ष्य प्राप्ति का साधन बना दिया है। हिंसा अब बच्चों के सामान्य अनुभव का हिस्सा बनती जा रही है। संयम, सहनशीलता, दया, करुणा और अहिंसा जैसे मूल्य अपना महत्व खोते जा रहे हैं। लक्ष्यों की प्राप्ति में विलंब बच्चों के लिए असहनीय हो रहा है। परिवारों में बच्चों की खुद की अस्मिता अन्य परिवारजनों से अलग होने की मांग कर रही है। यही कारण है कि परिवार में टोका-टाकी तक बच्चों में बर्दाश्त से बाहर हो रही है। समय की मांग है कि बच्चों को हिंसा की गिरफ्त से बचाने के लिए हम उनके प्रति तटस्थता के भाव का अविलंब त्याग करते हुए उनके निकट आने का प्रयास करें।

बच्चों का सामाजीकरण रूपी निवेश मानव के सामाजिक और सांस्कृतिक संसाधन का निवेश है। उनमें वात्सल्य, प्रेम, दया, सहानुभूति, अच्छा-बुरा, सच-झूठ और हिंसा-अहिंसा के बीच के अंतर से जुड़े अच्छे भावों को उनके जीवन में लाने के लिए परिवार एवं स्कूल जैसी प्राथमिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके साथ ही बच्चों के जीवन में उनके एकाकीपन, तनाव, निराशा और कुंठा को कम करते हुए उन्हें रचनात्मक अथवा आउटडोर खेल गतिविधियों में व्यस्त किया जाए। इसके अलावा बच्चों में भावनात्मक थकान और हिंसक उत्तेजना से जुड़े भावों को कम करते हुए माता-पिता द्वारा उनसे नजदीकी एवं वात्सल्यपूर्ण संवाद स्थापित करने का प्रयास जारी रहे। स्मरण रहे कि जीवन का एकाकीपन बच्चों को उत्तेजक भावों का प्रकटीकरण करने के लिए उकसाता है। बच्चा जो कहना चाहता है, उसे ठीक से सुनना एवं समझना भी माता-पिता का दायित्व है। ऐसा करके ही बच्चों के लिए इंटरनेट से जुड़ी आभासी एवं हिंसक दुनिया की चुनौतियों को कम किया जा सकता है, अन्यथा उनकी क्रूरता की नई-नई कहानियां सामने आती रहेंगी। इस मामले में लखनऊ की घटना आंखें खोलने वाली होनी चाहिए।

(लेखक समाजशास्त्री एवं उत्तर प्रदेश बाल संरक्षण आयोग के पूर्व अध्यक्ष हैं)