[ हृदयनारायण दीक्षित ]: आनंद सबकी अभिलाषा है। ऋग्वेद आनंदगोत्री ऋषियों की ही वाणी है। ऋषि कहते हैं, ‘जहां सदानीरा नदियां हैं, जहां मुद, मोद, प्रमोद हैं, जहां इहलौकिक और पारलौकिक कामनाएं पूरी होती हैं, हे देवों! हमें वहां ले चलो।’ संप्रति ऐसा ही ‘आनंदनगर’ है भारत-उत्तर प्रदेश का प्रयाग। यहां अमृतरस से भरा कुंभ घट छलक रहा है। जाति, पंथ, क्षेत्र सभी विभेदों से पृथक विराट समागम है। सारी दुनिया के आनंद अभीप्सु, जिज्ञासु, आस्तिक और नास्तिक कुंभ में हैं। तमाम भाषा, बोली, वेश, देश और भिन्न-भिन्न उपासना वाले संत, साधु और स्त्री-पुरुष इसमें हैं। लगभग सौ देशों के महानुभाव कुंभ का हिस्सा हैं। दिक् काल भी अनुकूल होकर स्वागत की मुद्रा में हैं। करोड़ों आ रहे हैं, करोड़ों जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ स्वयं व्यवस्था देख रहे हैं। योगी मंत्रिपरिषद की यहां संपन्न बैठक ने सबका ध्यान खींचा है। सरकार इस दफा व्यवस्था ही नहीं देख रही है, बल्कि स्वागतकर्ता की भूमिका में भी है। कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा समागम है, लेकिन दलतंत्र द्वारा कुंभ के राजनीतिकरण के सतही आरोप लगाए जा रहे हैं। आलोचकों ने भारत की प्रतिष्ठा का ध्यान भी नहीं रखा। वे ऐसे आरोप लगाने के लती हैं।

सांस्कृतिक प्रतीकों एवं विश्वासों को लेकर ऐसे आरोप अक्सर लगाए जाते हैं। अयोध्या और श्रीराम का उदाहरण ताजा है। फैजाबाद की जगह प्राचीन नाम अयोध्या रखने के फैसले पर भी आरोप लगाए गए थे। अयोध्या में तमाम योजनाओं की घोषणा पर भी ऐसे ही आरोप हैं। कुछ समय पूर्व प्रयाग नामकरण की पुनस्र्थापना पर भी अनावश्यक आरोप लगे थे। चित्रकूट में डॉ. राममनोहर लोहिया ने रामायण मेले का आयोजन किया था, तब राजनीतिकरण की बात नहीं चली। प्रयाग और कुंभ हजारों वर्ष के सांस्कृतिक विकास की उपलब्धि हैैं। प्रयाग में सैकड़ों वर्ष पहले (644 ई.) राजा हर्षवर्धन धनदान करते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इसका उल्लेख किया है। ह्वेनसांग के अनुसार राजा गरीबों और विद्वानों में धन बांटते थे। मूलभूत प्रश्न है कि क्या राजा का यह कार्य प्रयाग का राजनीतिकरण था? मोदी और योगी सरकारों ने दुनिया के सबसे बड़े सांस्कृतिक समागम को भव्य बनाकर क्या राजनीति की? क्या कुंभ यात्रियों से वोट का संकल्प कराया गया? ऐसे आरोपों की परिधि में यूनेस्को भी आ सकता है जिसने कुंभ को विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व का आयोजन घोषित किया है। योगी सरकार की कुंभ व्यवस्था सांस्कृतिक उपलब्धि है।

भारतीय संस्कृति विश्वकल्याणकामी है। कुंभ संस्कृति प्रेमियों का महाउल्लास है। पंडित जवाहरलाल नेहरू कुंभ दर्शन पर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में लिखा, ‘वास्तव में यह समग्र भारत था। कैसा आश्चर्यजनक विश्वास जो हजारों वर्ष से इनको, इनके पूर्वजों को देश के कोने-कोने से खींच लाता है।’ नेहरू जी के लिए ‘यह विश्वास आश्चर्यजनक है, लेकिन समागम समग्र भारत है।’ समग्र भारत प्रयाग आए और करोड़ों श्रद्धालु आवाजाही करें, ऐसे महाउल्लास से भरे-पूरे समागम में कोई संस्कृतिविहीन, संवेदनहीन सरकार ही तटस्थ रह सकती है। योगी मंत्रिपरिषद भी तटस्थ नहीं रही। वह भी करोड़ों लोगों के साथ स्नान में उतर गई तो इसमें राजनीति कहां है? यह भारत के साथ, भारत की मन तरंग में, भारत की संस्कृति, प्रीति और रीति में होने का सामूहिक उल्लास है। भारत का वैदिक इतिहास सामूहिकता से परिपूर्ण है। वेदों में ‘साथ-साथ चलने, संवाद करने और सभा-समिति में विमर्श के संकल्प हैं।’ भारत के उत्सव भौतिक विज्ञान की ‘दिक्काल’ धारणा के अनुसार विकसित हुए हैं। कुंभ समागम में स्थान के साथ कालगति का मिलन है।

प्रयाग यज्ञ, साधना और आत्मदर्शन की तपोभूमि रही है। गंगा, यमुना सरस्वती नदियां धरती के साथ-साथ भारत के मन में भी प्रवाहमान हैं। वैदिक पूर्वजों ने सरस्वती को ‘नदीतमा’ कहा है। प्रयाग में गंगा-यमुना का संगम प्रत्यक्ष है, लेकिन अदृश्य सरस्वती की भी गहन उपस्थिति अनुभूति है। पाणिनि ने इसी क्षेत्र में दुनिया का पहला भाषा अनुशासन ‘अष्टाध्यायी’ लिखा था। इंडोनेशिया के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘ककविन’ में भी प्रयाग कुंभ की महिमा है। तुलसीदास ने इसे ‘क्षेत्रु अगम गढ गाढ सुहांवा’ कहा है। वह भूक्षेत्र के साथ कालगति का वर्णन करते हैं, ‘माघ मकरगत रवि जब होई/ तीरथपतिंह आव सब कोई।’ तुलसी अनुभूति में कुंभ में देवता आते हैं, अन्य मनुष्य श्रेणियां भी आती हैं। सूर्य की 12 राशियों में एक राशि कुंभ है। सूर्य की मकर राशि में युति पर कुंभ आता है। प्रयाग में जब दिक्काल की अनूठी प्रीति मिलती है, तब कुंभ आता है। करोड़ों आनंद खोजी, मोक्ष-मुक्ति पिपासु यहां तीर्थाटन का सांस्कृतिक सुख ले रहे हैं। इनमें राजनीति खोजना दुस्साहस के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।

कुंभ सांस्कृतिक प्रतीक कलश है। कुंभ कलश की स्थापना लोकमंगलकारी है। पुराणों के अनुसार कलश में विष्णु, रूद्र और ब्रह्मा होते हैं। सप्त सिंधु, सप्तद्वीप, ग्रह-नक्षत्र और ज्ञान भी इसमें समाहित हैं। पुराणों में देव-असुर संग्र्राम की कथा है। शुभ और अशुभ या देव और असुर का संघर्ष पुराना है। सभ्यता और संस्कृति पर हमले होते हैं। सत्यप्रिय लड़ते हैं, लेकिन अंत में सत्य की ही जीत होती है। इसके बाद भी संग्र्राम का अंत नहीं होता। असुर हार कर भी लड़ते रहते हैं। देव जीतकर भी शांत नहीं बैठ सकते। सागर मंथन में विष और अमृत, दोनों निकले। शिव विष पी गए। फिर अमृत पर झगड़ा हो गया। एक पौराणिक मान्यता के अनुसार जयंत एवं दूसरे मत के अनुसार गरुण अमृत घट लेकर भागे। स्कंद पुराण के अनुसार इस कलश से हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में अमृत छलका और गिरा। सो इन स्थानों पर कुंभ की परंपरा चली। चेतना का अमृतत्व भारतीय दर्शन की चिरंतन प्यास है। कुंभ इसी बोध और आनंद का दिक्काल संयोग है। शंकराचार्य ने इसी ब्रह्म तत्व को अद्वैत सत्य बताया।

कुंभ का सामाजिक महत्व है। सांस्कृतिक महत्व है। यहां आने वाले जाति-पंथ सहित सभी विभेद छोड़कर आते हैं। तीर्थराज में रमते हैं। इसका दार्शनिक महत्व भी है। यहां अध्यात्म एवं दर्शन के विद्वान, महानुभाव, साधु अपना पक्ष रखते हैं। सांस्कृतिक संसदें चलती हैं। कुंभ के भीतर जल और बाहर भी जल है। मनुष्य भी जल से भरा कुंभ है। कुंभ की काया मिट्टी की तो मनुष्य की देह भी। कबीर ने गाया है, ‘जल में कुंभ/कुंभ में जल है/ भीतर बाहर पानी/ फूटा कुंभ जल जलहि समाना यह तत कथ्यों ज्ञानी।’ ज्ञानी ही यह तत्व जानते हैैं। जल आदि देव हैं।

डार्विन ने सृष्टि का विकास जल से बताया है। यूनानी दार्शनिक थेल्स ने जल को आदि तत्व कहा था। ऋग्वेद में जल माताएं ही सबकी जननी हैं। कुंभ संगमन में यही जल भीतर-बाहर पवित्रता का प्रतीक है। 10-15 लाख जनसंख्या के भी नगर का प्रबंधन आसान नहीं होता। यहां करोड़ों आ रहे हैं। करोड़ों जा रहे हैं। करोड़ों रुके हुए हैं। इसका खूबसूरत प्रबंधन प्रशंसनीय है। जो कुंभ से लौटे हैं, वे अपने साथ कुंभ आनंद लेकर आए हैं। जो कुंभ में हैं, वे आनंदरस में हैं। जो नहीं पहुंचे, वे तैयारी में हैं। इस दफा का कुंभ वाकई आनंदवर्धक, अंतरराष्ट्रीय आश्चर्य है। सोचता हूं कि थोड़ा-सा कुंभ अपने साथ रखूं। हमेशा के लिए।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैैं )