[ जीएन वाजपेयी ]: देश में शिक्षा की स्थिति को लेकर कुछ समय पहले हुए एक सर्वेक्षण के नतीजे हल्की उम्मीद जगाने वाले थे। सर्वेक्षण में शामिल 50 प्रतिशत से अधिक लोग सामान्य किस्म की अंग्रेजी पढ़ने और समझने में सक्षम थे। चूंकि भारत में शिक्षा की गुणवत्ता हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है इसलिए मोदी सरकार ने कुछ कदम भी उठाए हैं। संस्थानों को पूर्ण स्वायत्तता और उन्हें विश्वस्तरीय बनाने के लिए 100 करोड़ रुपये का आवंटन ऐसे ही कुछ कदम हैैं। आज जब वैश्विक स्तर पर यह मान लिया गया है कि राज्य और जनता भी कंपनियों में एक तरह से अंशभागी हैं तब भारत ने इस मामले में एक कदम और आगे बढ़ाया है।

भारतीय कंपनी अधिनियम के अनुसार कंपनियों को अपने शुद्ध लाभ के कम से कम दो प्रतिशत हिस्से को सामाजिक कल्याण के मद में खर्च करना होगा। इसका मर्म यही है कि कंपनियां जो संपदा सृजित करती हैं उसे वे समाज के साथ भी साझा करें। यह व्यवस्था देय करों के अतिरिक्त है। धीरे-धीरे यह कानूनी बाध्यता भारत में फलदायी भी साबित होती दिख रही है। इस कानूनी प्रावधान ने ऐसे व्यक्तियों और संगठनों को सामने लाने का काम किया है जो कारपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व यानी सीएसआर कोष के सार्थक उपयोग के लिए प्रयासरत हैैं। जहां कुछ पेशेवर और संगठन समाज सेवा के लिए विशेषज्ञता का बीड़ा उठा रहे हैं तो कुछ परामर्श सेवाओं से काम चला रहे हैं। तमाम ऐसे लोग जो करोड़ों रुपये आवंटित करते हैं उन्होंने अपनी ही स्वतंत्र संस्थाएं बना ली हैं ताकि आवंटित संसाधनों के लिए सही राह बन सके। कुल मिलाकर वैधानिक बाध्यता के पालन में कुछ सकारात्मक रुझान देखे जा सकतें हैं।

यह एक हकीकत है भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग विपन्न है। उसके लिए बेहतर गुणवत्ता वाली शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, पेयजल, स्वच्छता एवं साफ-सफाई आवास इत्यादि सुविधाओं की तत्काल जरूरत है। हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों ने इसके लिए पहल करते हुए तमाम योजनाएं चलाई हैं जिनमें अलग-अलग हिसाब से सफलता भी मिली है। फिर भी वंचित वर्ग के करोड़ों लोगों के जीवन को बेहतर बनाने की गुंजाइश बनी हुई है। अपनी भली मंशा के बावजूद सरकारों के सामने इसके लिए वित्तीय संसाधनों का अभाव एक बड़ी समस्या है।

नोबेल पुरस्कार विजेता गैरी बेकर ने कहा है कि बेहतर शिक्षा का आमदनी के साथ जुड़ाव है। इसके अतिरिक्त हम सब जानते हैैं कि अर्थशास्त्र में ऐसी तमाम मिसालें हैं जिनसे यह पुष्ट होता है कि शिक्षा और आय के स्तर में सीधा संबंध है। सीएसआर कोष वाला कोई भी संगठन यदि तय लक्ष्यों के अनुरूप काम करे तो वह सराहना का पात्र है। इसमें तमाम तरह के संतुलन साधने होंगे ताकि संगठन के प्रति सकारात्मक भाव पैदा हो। अभी भी ऐसे शोधों की प्रतीक्षा है जो सीएसआर कोष के आगम बनाम परिणामों के उत्कृष्ट प्रतिमान को दर्शाएं। कंपनियों की कोशिशों में दोहराव प्रत्यक्ष है। चूंकि सीएसआर के तहत आवंटित राशि काफी अधिक होती है इसलिए वह एक या दो इलाकों की बहुत ही कम वक्त में तकदीर बदल सकती है।

मिसाल के तौर पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का मामला लेते हैं। यह सर्वविदित है कि भारी-भरकम सीएसआर कोष से जुड़ी तमाम कंपनियां बिना किसी समन्वय के ही शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार के मिशन में जुटी हैं। तमाम एनजीओ भी हैं जो सीमित दायरे में बढ़िया काम कर रहे हैं। हालांकि दशकों की कोशिशों के बावजूद नतीजे बहुत उत्साहवर्धक नहीं हैं। प्रत्येक संगठन मुख्य रूप से प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा से लेकर कुछ विशेष क्षेत्रों में तकनीकी कौशल विकास परियोजनाओं पर भी काम कर रहा है। यदि सभी संगठन या कम से कम बड़े संगठन ही कंपनियों और सरकार के साथ कदम मिलाकर काम करें तो शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के उनके अभियान का असर कहीं ज्यादा और व्यापक हो सकता है।

साझा रणनीति से शिक्षा से लेकर प्रशिक्षण और शोध की तस्वीर बदली जा सकती है। इससे सीएसआर कोष का भी कहीं बेहतर तरीके से इस्तेमाल हो सकता है। फिलहाल अधिकांश स्कूलों में उपलब्ध सामग्री और पढ़ाने वालों के कौशल का स्तर बहुत अच्छा नहीं है। परिणामस्वरूप छात्रों के सीखने का स्तर भी बहुत लचर होता है। अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने अपनी हालिया पुस्तक ‘न्यू वेल्थ ऑफ नेशंस’ में स्कूलिंग के मूल्यांकन का विश्लेषण किया है। भारत में यह 0.26 आंका गया तो ब्राजील 0.57, चीन 0.52 और दक्षिण कोरिया 0.73 के स्तर पर रहे। सरकारी स्कूलों की दशा इतनी खराब हैैं कि मध्य वर्ग और गरीब तबके को भी अपने बच्चों को उन निजी स्कूलों में दाखिला दिलाना पड़ता है जो उनके घरेलू बजट पर बहुत भारी पड़ता है।

मानव संसाधन की गुणवत्ता सुधारने में मदद करना कंपनियों के लिए भी आर्थिक रूप से उपयोगी है। काम के लिए अच्छी गुणवत्ता के लोगों के मिलने से न केवल भर्ती की लागत कम होगी, बल्कि इससे उत्पादकता भी बेहतर होगी। कंपनियां अपनी रुचि और जरूरत के हिसाब से अपनी जिम्मेदारी तय कर सकती हैैं। बतौर उदाहरण कुछ कंपनियां प्राथमिक शिक्षा को चुन सकती हैं। इसमें भी वे अपनी जिम्मेदारियां बांट लें तो बेहतर। मसलन कोई एक कंपनी समूह विषयवस्तु तैयार करने और उसे निरंतर रूप से अद्यतन बनाने का जिम्मा ले सकता है। दूसरा प्रभावी वितरण की बागडोर संभाल सकता है। तीसरा बुनियादी ढांचे के लिए वित्तीय कोष की जरूरत के साथ ही मानव संसाधन की जिम्मेदारी ले सकता है। चौथा समूह शिक्षकों के प्रशिक्षण एवं कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।

एक अन्य समूह माध्यमिक शिक्षा के मोर्चे पर काम कर सकता है। वहीं सरकार आमजन को शिक्षा की महत्ता समझाने, स्कूलों के लिए भौतिक अवसंरचना बनाने और उनमें बेहतर शिक्षक उपलब्ध कराने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है। इन सभी प्रयासों के मूल में यही होना चाहिए कि शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए किए जा रहे खर्च से उत्तम परिणाम हासिल किए जाएं। ऐसी सहभागिता से बढ़िया नतीजे हासिल किए जा सकते हैं और उनका असर एक दशक से भी कम में नजर आने लगेगा।

हालांकि इसके लिए पूरी प्रक्रिया की उचित रूप से निगरानी भी करनी होगी। केवल उठाए गए कदमों से काम नहीं चलने वाला। राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक-निजी भागीदारी से करोड़ों वंचित लोगों के जीवन में सुधार संभव है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा कोई तालमेल बनना खासा मुश्किल है और उसकी राह में कुछ अवरोध भी होंगे। तालमेल बनाने में प्राथमिकताएं और पूर्वाग्रह संबंधी तमाम परेशानियां आड़े आएंगी। इसके अलावा निहित स्वार्थों वाले तत्व इस तालमेल के खिलाफ खड़े हो सकते हैैं, लेकिन व्यापक राष्ट्रीय हित और आम जनता के हितों के लिए ऐसे तालमेल की कोशिश बहुत सार्थक होगी। मैं चाहता हूं कि इसकी पहल भी निजी क्षेत्र द्वारा की जाए, अन्यथा सरकार पर न चाहते हुए भी सीएसआर कोष के नियंत्रण का आरोप भी लग सकता है।

[ लेखक सेबी एवं एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं ]