लालजी जायसवाल। इंटरनेट ब्रॉडबैंड और मोबाइल इंटरनेट सेवाएं आज भारत के लोगों की जीवन-रेखा बन चुकी है। यह न केवल सूचनाएं प्राप्त करने और सोशल मीडिया के साथ-साथ संचार का साधन है, बल्कि उससे भी अधिक बड़ी अभिव्यक्ति के आजादी की सहायक है। आज के समय में वैचारिक और सूचना के आदान-प्रदान के लिए समुदायों और समाज के विभिन्न समूहों को आपस में जोड़ने हेतु सोशल मीडिया का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। वाट्सएप, ट्विटर, फेसबुक आदि कुछ लोकप्रिय साधन हैं जिन मंचों पर कुछ ऐसे कार्यकर्ता सक्रिय रहते हैं, जो सरकार, समाज और मीडिया पर नियंत्रण रखने की दृष्टि से समय-समय पर उनकी आलोचना में भी पीछे नहीं हटते। ऐसे कार्यकर्ता किसी घटना से जुड़कर उस पर तुरंत सुधारात्मक रवैया, न्याय या निष्पक्षता के लिए प्रतिकार, प्रतिशोध और दंड जैसे साधनों को अपनाए जाने पर जोर देने लगते हैं।

वैसे तो मीडिया सूचनाओं तथा आंकड़ों को संरक्षित व संप्रेषित करने का उपकरण है। मीडिया का कार्य सूचनाओं का एकत्रीकरण करना तथा उससे सभी को पारदर्शिता पूर्ण अवगत कराना है। सरकारी क्रियाकलापों तथा सामाजिक क्रियाकलापों को उजागर करना भी मीडिया का कार्य है। वैसे तो मीडिया सरकार को कार्यो के प्रति तथा उनके द्वारा किए गए वादों के प्रति कटिबद्धता को दिखाने के लिए मजबूर करती ही है, साथ ही उनके द्वारा किए गए सभी आधे-अधूरे कार्यो की सच्चाई को भी जनता तक पहुंचाती है। मीडिया का सबसे बड़ा योगदान लोकतंत्र में होता है, जो प्राय: विकास को प्रेरित करता है। इसीलिए कहा जाता है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा बड़ा आधार स्तंभ होता है।

हथियार की भांति इस्तेमाल हो रहा सोशल मीडिया 

मीडिया की ही एक शाखा सोशल मीडिया है जो आज टेक्नोलॉजी के युग में अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आ रही है। आज फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम इत्यादि ऐसे माध्यम हैं जो लोगों को एक-दूसरे के मित्र तो बनाते ही हैं, साथ में इसकी लत लोगों में इस कदर लग जाती है कि फिर वो बच्चा हो या बूढ़ा या जवान सभी उसमें इस कदर चिपके होते हैं, जैसे गुड़ में मक्खियां। बहरहाल, हमारे लोकतंत्र ने हमें एक आजादी दी है, वो है अभिव्यक्ति की। हम अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया एक जरिया है जहां लोग अपने विचार रख सकते हैं, पर आजकल लोग इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। इसी स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं के बारे में अभद्र टिप्पणी करना, लोगों का अपशब्द कहना, उन पर फिकरे कसना, उनका मजाक उड़ाना, ये सब आम हो गया है। सोशल मीडिया का इस्तेमाल आज इंसान अभिव्यक्ति की आजादी से कहीं आगे बढ़कर करता जा रहा है, जो एक खतरा बन चुका है। आज सोशल मीडिया से मित्रता की संधि करते-करते लोग उस पराकाष्ठा को भी पार कर गए हैं जो एक दूसरे के प्राण तक लेने से नहीं कतराते हैं।

वायरल कंटेंट और फैक्ट चेक 

हालांकि आज ऐसे तमाम निजी टीवी चैनल आदि मौजूद हैं जो वायरल वीडियो को और वायरल करते रहते हैं, तो वहीं कुछ टीवी चैनल साइबर पुलिस का भी कार्य करते हैं और वायरल वीडियो या कंटेंट की सत्यता की पड़ताल कर लोगों को वास्तविकता से अवगत कराते हैं। लेकिन आज सोशल मीडिया अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुका है कि वह लोगों को लगातार नुकसान ही पहुंचा रहा है। हमें संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, लेकिन इतनी भी स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती, जिसमें लोगों के जानमाल का नुकसान स्तंभित होता हो।

संवेदनशील मामलों में सोच-समझकर लें निर्णय 

झूठे मुद्दे में मॉब लिंचिंग की घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं जिस कारण कई राज्यों में इसके लिए एक कठोर कानून बनाया गया है। इसमें तमाम ऐसे लोग भीड़ का शिकार होते पाए गए हैं जो निदरेष थे। दरअसल सोशल मीडिया पर यह मुद्दा उछाला जाता है कि बच्चा चोर फलां रास्ते से जा रहा है और लोग इकट्ठा होकर उसे पकड़कर उसकी जान ले लेते हैं। ऐसी घटनाएं प्राय: आपसी द्वेष के कारण भी घटी हैं। भीड़ द्वारा हिंसा को रोकने के लिए जहां तक कानून बनाने की बात है, तो वह सही है। परंतु केवल कानून इस पर लगाम नहीं लगा सकता, क्योंकि जहां लोगों की प्रवृत्ति ही दूषित हो, और जहां घृणा को उकसाने वाला मौन समर्थन मौजूद हो, वहां इसे कानून से रोकना मुश्किल हो जाता है। पिछले वर्षो के दौरान ऐसी अनेक घटनाएं सामने आई हैं जिनमें मॉब लिंचिंग के रूप में कई लोगों को सार्वजनिक रूप से मारा गया और भीड़ चुपचाप खड़ी देखती रही। यहां तो जांच-पड़ताल करने वाले भी मिले हुए हैं, और उल्टे दोष पीड़ित पर ही लगा देते हैं।

अफवाह के प्रसार पर लगाम 

इसी प्रकार फेसबुक और ट्विटर आदि पर बीते वर्ष के लोकसभा चुनाव के दौरान एक मुद्दा उठा कि अगर किसी पोलिंग बूथ पर एक निश्चित फीसद से ज्यादा टेंडर वोट रिकॉर्ड हुआ तो द रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट 1950 और 1951 की धारा 49ए के तहत दोबारा चुनाव होगा, लेकिन इस मामले में वास्तविकता यह है कि इन दोनों अधिनियमों में धारा 49ए का प्रावधान है ही नहीं। वैसे भी भारत की जनता का नागरिक शास्त्र इतना कमजोर है कि उसे पता भी नहीं चल पाता कि वास्तव में 49ए है या नहीं। शायद इसी कारण जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए के हटने के बाद वहां का नेटवर्किग सिस्टम बंद कर दिया गया ताकि देश में फैलने वाली किसी भी संभावित अफवाह को रोका जा सके। हमें यह समझना होगा कि एक स्वार्थी नागरिक की भांति किसी घटना को तर्क की कसौटी पर कसे बिना संवेदनशील मामलों या घटनाओं के संदर्भ में तत्काल किसी निर्णय पर पहुंचने से बचना चाहिए। पहले किसी भी घटना का तार्किक मूल्यांकन कर तभी विश्वास करना चाहिए अथवा किसी विशेषज्ञ की समुचित राय लेनी चाहिए।

दोधारी तलवार की भांति है सोशल मीडिया 

सोशल मीडिया दोधारी तलवार की तरह है जो दोनों ओर से वार करती है। अत: इसकी म्यान को मजबूत करने यानी अपनी तार्किकता को मजबूत करने की आवश्यकता है। साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गलत उपयोग ना करते हुए संविधान के दायरे में रहते हुए अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समुचित उपयोग करना होगा।

चुनाव आयोग को चाहिए कि वह नेताओं के भाषणों में घृणा तत्व को चुनावी अपराध की श्रेणी में रखे। सोशल मीडिया पर तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत की गई फोटो या खबरों का स्नोत और पहचान प्रकट की जाए। सरकार को ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए, जो सोशल मीडिया जैसे मंचों का दुरुपयोग करके समाज में जहर फैलाने का काम कर रहे हैं। तभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा भी हो पाएगी, और भीड़ द्वारा हिंसा से कई निदरेष बच जाएंगे। भारत को मलेशिया, थाईलैंड जैसे देशों की तर्ज पर कड़े और त्वरित दंड का विधान करना चाहिए। मलेशिया में इसके लिए दोषी व्यक्ति को छह वर्षो की सजा देने का प्रावधान है, जबकि थाईलैंड में सात साल की सजा का प्रावधान है। पड़ोसी देश पाकिस्तान में गलत खबर के जरिये किसी की भावना को ठेस पहुंचाने वाले व्यक्ति को सजा और जुर्माना दोनों का ही प्रावधान है। इसके अलावा सिंगापुर, चीन, फिलीपींस आदि देशों में भी गलत खबरों पर रोक लगाने के लिए सख्त कानून बनाए गए हैं।

इंटरनेट और स्मार्टफोन ने हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को निश्चित तौर पर आसान बनाने में व्यापक मदद की है। धीरे-धीरे इनका जुड़ाव हमारी अभिव्यक्ति से भी होता गया। इन दोनों की मदद से एक साथ बड़ी संख्या में लोगों को अपनी बात कहने या फिर अपनी विचारधारा को प्रसारित करने का आसान जरिया मिल गया। लेकिन आज सोशल मीडिया के तौर पर विकसित हुआ एक नया मीडिया अभिव्यक्ति के मामले में बेलगाम होता जा रहा है। अब तक इसके लिए मजबूत नियामक की व्यवस्था नहीं होने और भ्रामक कंटेंट व वीडियो आदि की सत्यता की तत्काल पुष्टि से संबंधित जागरुकता के अभाव में ऐसी अनेक घटनाएं सामने आ रही हैं जो समाज के लिए विघटनकारी हैं।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध छात्र हैं)

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