[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: किसी फैक्ट्री की भूमि को लेकर दो लोगों में विवाद हो गया। मामला हाईकोर्ट पहुंचा। करीब 25 वर्षों बाद हाईकोर्ट ने निर्णय दिया। इतने वर्षों तक वह भूमि बिना किसी उपयोग के पड़ी रही। इसी प्रकार तमाम संपत्तियां उपयोग में नही आ रही हैं। इसलिए अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए न्याय शीघ्र उपलब्ध कराने की जरूरत है। जिन देशों में न्यायतंत्र सुदृढ़ है, सामान्य रूप से उनकी आय भी अधिक है।

वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट की रपट- कानून व्यवस्था में भारत की रैंक 68वें पायदान पर आ पहुंची

वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट की 2019 की रपट के अनुसार कानून व्यवस्था में इंग्लैंड की रैंक 12, सिंगापुर की 13, अमेरिका की 20 और भारत की 68 पाई गई है, जबकि पाकिस्तान की 117 है। पहले तीनों देशों की रैंक ऊंची है और वे विकसित भी हैं। विशेष यह कि भारत की रैंक 2018 में 65 से घटकर 2019 में तीन पायदान नीचे 68 पर आ टिकी है। इसी के साथ हमारी आर्थिक विकास दर में भी गिरावट आ रही है। इन दोनों बातों के आपसी संबंध को नकारा नहीं जा सकता।

जिन देशों ने न्याय व्यवस्था सुदृढ़ बनाई वे आज विकसित हैं

न्यायपालिका पर खर्च के दो पक्ष हैं। सरकार न्यायपालिका पर आधिक खर्च करती है तो न्याय शीघ्र मिलता है और अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। दूसरी तरफ न्यायपालिका पर अधिक खर्च करने से सीधे सरकारी बजट पर भार पड़ता है और दूसरे आवश्यक निवेश प्रभावित होते हैं, लेकिन जैसा कहा कि जिन देशों ने न्याय व्यवस्था सुदृढ़ बनाई है वे आज विकसित हैं। न्यायपालिका पर बढे़ हुए खर्च का सकारात्मक प्रभाव अधिक होता है। तुलना में न्यायपालिका पर खर्च के बोझ का नकारात्मक प्रभाव कम पड़ता है।

कानूनी विलंब के कारण भारत की विकास दर में कमी आई- विश्व बैंक

विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार कानूनी विलंब के कारण भारत की विकास दर में 0.5 प्रतिशत की कमी आई है। ऑस्ट्रेलिया के इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस के अनुसार आपराधिक मामलों में न्याय में देरी होने के कारण भारत में आपराधिक गतिविधियां बढ़ी हैं। इसके कारण हमारी जीडीपी में गिरावट आई है।

जनता को न्याय शीघ्र उपलब्ध कराने के लिए न्यायपालिका में सुधार करना जरूरी

यह विवाद का विषय हो सकता है कि न्यायपालिका में विलंब से आर्थिक विकास पर कितना प्रभाव पड़ता है, पर इसका एक हद तक नकारात्मक प्रभाव स्पष्ट है। न्यायपालिका में सुधार करना दुष्कर नहीं है। सिंगापुर में 1990 में एक विवाद को निपटाने में औसत छह वर्ष का समय लगता था। 1990 के दशक में वहां कानूनी सुधार लागू किए गए। वर्ष 1999 में यह अवधि घटकर मात्र एक वर्ष तीन माह की रह गई। हम भी अपनी जनता को न्याय शीघ्र उपलब्ध करा सकते हैं।

न्यायपालिका में रिक्त पदों को भरें, विवादों का शीघ्र निपटारा हो और आर्थिक विकास को गति मिले

अब सुधार के रास्ते पर चर्चा करते हैं। पहला विषय रिक्त पदों का है। हमारी न्यायपालिका में 2006 में 15 प्रतिशत पद रिक्त थे जो 2015 में 37 प्रतिशत हो गए और 2019 में भी 37 प्रतिशत। बीते चार वर्षों में सुधार नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त 2018-19 में न्यायपालिका को 4386 करोड़ रुपये का बजट दिया गया, जो 2019-20 में घटाकर 3055 करोड़ रुपये कर दिया गया। सरकार को चाहिए कि रिक्त पदों को भरे और न्यायपालिका पर खर्च बढ़ाए, जिससे जनता को त्वरित न्याय मिले, विवादों का शीघ्र निपटारा हो और आर्थिक विकास को गति मिले।

गर्मी के दिनों में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट दो माह के लिए बंद रहते हैं, इसका कोई औचित्य नहीं

दूसरा विषय कार्य दिवसों का है। एक अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में वर्ष में करीब 190 दिन काम होता है। हाईकोर्ट में 232 दिन और निचली अदालतों में 244 दिन। गर्मी के दिनों में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट लगभग दो माह के लिए बंद रहते हैं। इसका कोई औचित्य नहीं। इसके अलावा दशहरा, नववर्ष इत्यादि के समय भी एक या दो सप्ताह का अवकाश होना आम है।

न्यायपालिका के सभी स्तरों पर कार्यदिवस बढ़ाने की जरूरत

न्यायपालिका के सभी स्तरों पर कार्यदिवस बढ़ाने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट को इस पर विचार करना चाहिए। मेरा अनुभव है कि अक्सर अदालत जाने पर पता लगता है कि जज साहब आज नहीं बैठ रहें हैं। ऐसा होने पर विवाद के निपटारे पर विलंब होता ही है। जनता को अनावश्यक खर्च वहन करना पड़ता है जिससे आर्थिक विकास धीमा पड़ता है।

मामलों का जल्द निपटारा के लिए वकीलों और जजों के तालमेल होना जरूरी

तीसरा विषय वकीलों और जजों के तालमेल का है। चूंकि कई वकील प्रति सुनवाई के हिसाब से फीस लेते हैं इसलिए मामला जितनी देर तक चले, जितनी अधिक तारीखों पर सुना जाए उन्हें उतनी ही अधिक फीस मिलती है। जजों और वकीलों को यह देखना होगा कि मामलों का निपटारा जल्द कैसे हो? किरायेदारी के एक विवाद में जज साहब ने तीन बार पंजीकृत डाक से नोटिस भेजने के बाद ही प्रकाशन का आदेश दिया। आग्रह करने पर भी पहली बार पंजीकृत नोटिस के वापस आने पर प्रकाशन का आदेश नहीं दिया। यह स्वीकार करना होगा कि मामले के लंबा खिंचने में कुछ लोगों के निहित स्वार्थ होते हैैं।

कोर्ट में पेश सभी कागज जनता को ऑनलाइन उपलब्ध होने चाहिए

चौथा विषय तकनीक के उपयोग का है। आज हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वादों की स्थिति को ऑनलाइन देखा जा सकता है, लेकिन जो वाद दायर किया गया उसकी प्रतिलिपि ऑनलाइन उपलब्ध नहीं होती। आपको निर्णय और उसका मसौदा भी मिल जाएगा, लेकिन उस निर्णय के संबंध में जो दायर दस्तावेजों की प्रतिलिपि ऑनलाइन उपलब्ध नहीं होगी। न्यायपालिका व्यवस्था कर सकती है कि जितने कागज पेश किए जाएं उन सभी को ऑनलाइन अपलोड करके जनता को उपलब्ध कराया जाए।

जजों की जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए

पांचवां विषय जजों की जवाबदेही का है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के कानून में व्यवस्था है कि निर्णय छह माह में दिया जाएगा, लेकिन ट्रिब्यूनल से निर्णय मिलने में चार साल तक लग जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि जजों का मूल्यांकन कराएं और जो जज समयबद्ध तरीके से कार्य नहीं करते उनकी पदोन्नति रोकी जाए अथवा उन्हें सेवा से विरत किया जाए।

त्वरित निर्णय से मन में भय रहता है और लोग कानून का उल्लंघन नहीं करते

जब मैैं अमेरिका में पढ़ रहा था तो मेरा मकान मालिक से विवाद हो गया। फैसला मात्र 20 दिन में हो गया। इस प्रकार त्वरित निर्णय से मन में भय रहता है और लोग कानून का उल्लंघन नहीं करते। निर्णय में देरी गलत कार्य करने वालों का मन बढ़ाती है। उन्हें पता होता है कि मामला अदालत में पहुंचेगा तो लंबा खिंचेगा। पीड़ित पक्ष भी अदालत में उनके गलत कार्यों को चुनौती नहीं देता, क्योंकि उसे मालूम है कि न्यायपालिका में बहुत समय लगता है। इस तरह समाज में गलत काम का प्रतिरोध न करने को बढ़ावा मिल रहा है। सरकार को चाहिए कि न्यायपालिका पर खर्च बढ़ाए और रिक्त पदों पर नियुक्तियां करें। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि अवकाश की संख्या घटाएं और जजों की जवाबदेही सुनिश्चित करें।

( लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैैं )