प्रमोद भार्गव। जब हमारे स्वतंत्रता सेनानी ब्रिटिश हुकूमत से लड़ रहे थे तब वे अभावग्रस्त और कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद अपने पारंपरिक ज्ञान और चेतना से इतने बौद्धिक थे कि किसान-मजदूर से लेकर हर उस वर्ग को परस्पर जोड़ रहे थे, जिनका एक-दूसरे के बिना काम चलना मुश्किल था। इस दृष्टि से महात्मा गांधी ने चंपारण के भूमिहीन किसानों, कानपुर, अहमदाबाद, ढाका के बुनकरों और मुंबई के वस्त्र उद्यमियों के बीच सेतु बनाया। नतीजतन इनकी इच्छाएं आम उद्देश्य से जुड़ गईं और यही एकता कालांतर में ब्रिटिश राज से मुक्ति का आधार बनी। इसीलिए देश के स्वतंत्रता संग्राम को भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक-चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था।

इन्हीं भावनाओं के अनुरूप डॉ. आंबेडकर ने संविधान को आकार दिया। इसीलिए जब हम सत्तर साल पीछे मुड़कर संवैधानिक उपलब्धियों पर नजर डालते हैं तो संतोष होता है। प्रजातांत्रिक मूल्यों के साथ राष्ट्र-राज्य की व्यवस्थाएं जीवंत हैं। बीच में आपातकाल जैसी अराजकता भी दिखी, लेकिन मजबूत संवैधानिक व्यवस्था के चलते लंबे समय तक ये स्थितियां गतिशील नहीं रह पातीं। फलत: तानाशाही ताकतें स्वयं ही इन पर लगाम लगाने को विवश हुई हैं। यही कारण है कि प्रजातंत्र, समता, न्याय और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के साथ विधि का शासन अनवरत है। भारत की अखंडता और संप्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से सरदार पटेल जैसे लोगों ने कूटनीतिक तरीके से करीब 600 रियासतों का विलय कराया। जमींदारी उन्मूलन व भूमि-सुधार हुए। पुर्तगाल और फ्रांस से भी भारतीय भूमि को मुक्त कराया। गोवा आजाद हुआ और सिक्किम का भारत में विलय हुआ।

देश में औद्योगीकरण की बुनियाद रखने के साथ सामरिक महत्व के इसरो व डीआरडीओ जैसे संस्थान अस्तित्व में आए। इन्हीं की बदौलत हम प्रक्षेपास्त्र और अंतरिक्ष में उपग्रह स्थापित करने में सक्षम हुए। हरित क्रांति की शुरुआत कर खाद्यान्न के क्षेत्र में हम न केवल आत्मनिर्भर हुए, बल्कि कृषि उपजों के निर्यात से विदेशी मुद्रा कमाने में भी समर्थ हुए। ये उन्नति के कार्य इसलिए हो पाए, क्योंकि 1990 से पहले तक हमारे राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी सही रूप में बौद्धिक होने के साथ स्वदेशी की भावना रखते थे और नैतिक दृष्टि से कमोबेश ईमानदार थे। सरकारी पाठशालाओं से निकले इस दौर के लोग श्रेष्ठ वैज्ञानिक, अभियंता और चिकित्सक बने। आज हम जिन प्रवासी भारतीयों की बौद्धिक व आर्थिक उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, वह आठवें दशक के अवसान और नौवें दशक के आरंभ की वह पीढ़ी है, जो सरकारी विद्यालयों में पढ़कर देश-दुनिया में छाई हुई है।

बहरहाल तमाम उपलब्धियों के बीच शिक्षा समेत अनेक क्षेत्रों में नैतिक मूल्यों का क्षरण हुआ। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की गठबंधन सरकार गिरने के पश्चात संजय गांधी की युवा-टोली को राजनीति में प्रवेश मिला जिसने मूल्यों के अवमूल्यन की पृष्ठभूमि रची। हाशिये पर पड़े सामंत और जमींदार बड़ी संख्या में एकाएक राजनीति की केंद्रीय भूमिका में आ गए। जब ये विधायक एवं सांसद के रूप में सत्ता-तंत्र में हस्तक्षेप के अधिकारी हुए तो इन्होंने पुन: मृतप्राय समंती दुष्प्रवृत्तियों को सींचकर हरा-भरा कर दिया। गांधी और नेहरू के निष्ठावान अनुयायी लगभग निर्वासित कर दिए गए। नतीजतन 1984 में पंजाब में पनपे उग्रवाद के चलते इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो प्रतिकार स्वरूप पूरे देश में सत्ता के संरक्षण में सांप्रदायिक हिंसा हुई। इसी की पृष्ठभूमि से भाषाई, जातीय व क्षेत्रीय अस्मिताएं प्रखर आंदोलन के रूप में उभरीं। वर्ष 1989 में जब वीपी सिंह की सरकार को देवीलाल ने अस्थिर किया तो उन्होंने मंडल का पिटारा खोल दिया। इसे लेकर मंडल-कमंडल में भी हिंसक टकराव देखने में आए। मुलायम सिंह, लालू प्रसाद, शरद यादव, रामविलास पासवान और मायावती जैसे नेता इन्हीं आंदोलन के अगुआ रहकर मुख्यमंत्री या केंद्र सरकार में मंत्री बने। इसी दौर में धनबल- बाहुबल का राजनीति में प्रवेश हुआ तथा अपराध का राजनीतिकरण एवं राजनीति का अपराधीकरण हुआ। वर्ष 1991 में संरचनागत समायोजन के बहाने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत में व्यापार का समझौता हुआ जिसने देश की आर्थिक आजादी को गिरवी रख दिया।

अतएव लगता है कि संविधान की प्रस्तावना के उदात्त आदर्श व उद्देश्य पूरे नहीं हुए हैं। गोया राजनीति त्याग, समता और जनसेवा की भावना से प्रेरित होने की बजाय लाभकारी व्यवसाय, धनोपार्जन का माध्यम व सत्तासुख भोगने का साधन बनती जा रही है। भारतीय संविधान ने संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया, जिसमें समस्त निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों और मंत्रियों के उत्तरदायित्व की परिकल्पना है। संविधान निर्माताओं ने ऐसी संकल्पना कतई नहीं की थी जिसमें मंत्रियों के दायित्व में आम आदमी बहिष्कृत होता जाए। सत्ता में भागीदार अपने लिए तो अधिकतम प्रजातांत्रिक अधिकारों की मांग उठाते हैं, लेकिन दूसरों को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार के कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता जताते नहीं दिखते हैं। अधिकार और कर्तव्य की यह ऐसी विडंबना है जो लोकतंत्र की बढ़ती उम्र के साथ जटिल होती जा रही है। इसी तात्कालिक लाभ की दृष्टि के चलते नेताओं की दलों के प्रति निष्ठा भंग हुई है। चुनावी मौसम में दलबदलुओं के टिड्डी दल दिखाई देने लगते हैं।

हम पढ़ते आ रहे हैं कि भारत कृषि-प्रधान देश है। खेती को आजीविका का मुख्य साधन बनाने की धारणा पर ही देश विकसित होता चला गया और अब हम विकसित देशों की होड़ में शामिल हैं। मौजूदा समय में भी देश में कृषि उत्पादन अत्यधिक है, देशवासियों का पेट भरने की मात्र से कहीं अधिक, लेकिन दुर्भाग्य यह कि इसे पैदा करने वालों को इसकी पर्याप्त कीमत नहीं मिल पा रही है। हालांकि इसमें कई व्यवस्थागत खामियां हैं जिन्हें जल्द से जल्द दूर करने की जरूरत है। इस हेतु विभिन्न फसलों पर समर्थन मूल्य बढ़ाए गए हैं और नीतिगत उपाय भी किए गए हैं। हमें यह समझना होगा कि ग्रामीण भारत पर फोकस किए बिना हम देश का समग्र आर्थिक विकास नहीं कर सकते हैं।

इसमें कोई दोराय नहीं कि हमारी आर्थिक मजबूती में पिछले कई दशकों की कृषि उत्पादकता ने अहम भूमिका निभाई है, तथापि सच्चाई यह है कि आज कृषि हमारे आर्थिक विकास के ऊंचे मानकों से बहुत नीचे है। गणतांत्रिक देश बनने के बाद भारत अब तक लंबी यात्र तय कर चुका है। हालांकि जिस समय भारत का अपना संविधान लागू किया गया, उस समय जिस तरह के गणतंत्र की कल्पना की गई थी, वहां तक हम आज पहुंच पाए या नहीं यह एक बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इतना तय है कि इस दौरान समग्र आर्थिक विकास हुआ है और देश ने अनेक उपलब्धियां भी हासिल की हैं। हां, कृषि के मामले में यह कहा जा सकता है कि अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)