[ हृदयनारायण दीक्षित]: लोकतंत्र भारत के लोगों की जीवन-संस्कृति है। संविधान निर्माताओं ने गहन विचार विमर्श के बाद संसदीय लोकतंत्र अपनाया था। संविधान की उद्देशिका में शासन व्यवस्था का शक्ति स्रोत ‘हम भारत के लोग’ हैं। हम भारत के लोग अपनी प्रभुता का प्रयोग जनप्रतिनिधियों के माध्यम से करते हैं। इसके लिए यहां केंद्र में संवैधानिक जनप्रतिनिधि संस्था संसद है और राज्यों में विधानमंडल। संसद द्विसदनीय है। लोकसभा आमजनों से निर्वाचित सदन है और राज्यसभा राज्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित संस्था है। संविधान सभा में कुछ सदस्य एक ही सदन के पक्ष में थे। वे दूसरे सदन को अनावश्यक मानते थे, लेकिन संघीय ढांचे के अनुरूप राज्यसभा को राज्यों की प्रतिनिधि संस्था के रूप में जरूरी माना गया।

विधान परिषदों का जन्म, जीवन और मृत्यु विधानसभा पर निर्भर है

धन और वित्त विधेयक से भिन्न शेष सभी मामलों में दोनों सदनों के अधिकार लगभग एक जैसे हैं, लेकिन राज्यों में उच्च सदन या विधान परिषद की हैसियत प्राय: हास्यास्पद है। राज्य विधान परिषदों का जन्म, जीवन और मृत्यु विधानसभा की कृपा पर है। आंध्र प्रदेश में विधान परिषद की समाप्ति का प्रस्ताव पिछले सप्ताह पारित हुआ। उधर ओडिशा सरकार विधान परिषद बनाने की तैयारी कर रही है।

विधान परिषद का गठन संवैधानिक बाध्यता नहीं

विधान परिषद का गठन संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संविधान सभा ने इसे विधानसभा के विवेक पर छोड़ दिया था। संविधान (अनु.169) में कहा गया है कि विधानसभा के कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित सदस्यों की दो तिहाई संख्या द्वारा पारित संकल्प पर संसद विधि द्वारा विधान परिषद का गठन या समापन करेगी। आंध्र प्रदेश का उदाहरण दिलचस्प है। ऐसे ही प्रस्ताव द्वारा 1958 में आंध्र विधान परिषद बनी थी। ऐसे ही प्रस्ताव द्वारा 1985 में समाप्त कर दी गई। 2007 में फिर बनाई गई। पिछले सप्ताह इसकी समाप्ति का प्रस्ताव फिर से आया।

सत्तासीन दलों की मर्जी पर हैं राज्यों की विधान परिषदें

पंजाब की विधान परिषद 1970 में समाप्त की गई थी। तमिलनाडु विधान परिषद भी 1986 में समाप्त की गई थी। अब 2010 में पारित तमिलनाडु विधान परिषद अधिनियम के अमल का इंतजार है। ओडिशा, असम और राजस्थान भी प्रतीक्षा में हैं। विधान परिषदें उच्च सदन कही जाती हैं, लेकिन इनके गठन और समापन में अराजकता है। वे राज्यों में सत्तासीन दलों की मर्जी पर हैं। बावजूद इसके इनकी उपयोगिता और औचित्य पर पीछे 70 साल से कोई बहस नहीं हुई।

द्विसदन बनाम एक सदन की बहस पुरानी है

द्विसदन बनाम एक सदन की बहस पुरानी है। दो सदनों के पक्षधरों के तर्क हैं कि जनता से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर निर्वाचकों का दबाव होता है। जनता तत्काल परिणाम चाहती है। इसलिए विधेयकों पर शांत चित्त विचार का अवसर नहीं होता। वे ऐसे विधायन को जल्दबाजी और व्यग्रता में किया गया काम बताते हैं। उनकी मानें तो दूसरे सदन में पर्याप्त समय मिलता है। विमर्श प्रशांत मन होते हैं।

ब्रिटेन ने संसद के दोनों सदनों का सदुपयोग जारी रखा, डाईट भी दो सदनीय है

ब्रिटेन की संसद में दो सदन हैं। हाउस ऑफ कामंस निचला सदन है और हाउस ऑफ लार्ड्स उच्च सदन। पहले दोनों के अधिकार प्राय: एक समान थे। जब निर्वाचित सरकार के सामने कठिनाइयां आईं तो 1911 में हाउस ऑफ लार्ड्स के अधिकार घटाए गए। 1949 में फिर से लार्ड्स के प्राधिकार घटे। प्रख्यात विधिवेत्ता लॉर्ड डेनिंग ने दूसरे सदन पर रोचक टिप्पणी की थी कि यदि वह पहले सदन से सहमत है तो व्यर्थ है और असहमत है तो शरारती है। ब्रिटिश संसदीय परंपरा में आवश्यकतानुसार परिवर्तन की क्षमता है। उसने नियमन और संशोधन द्वारा दोनों सदनों का सदुपयोग जारी रखा है। जापान की संसद डाईट भी दो सदनीय है। जापान में निम्न सदन द्वारा पारित विधेयक दूसरे सदन की असहमति के बावजूद निचले सदन के दो तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है।

भारत ने दो सदनों वाली व्यवस्था अपनाई

भारत ने दो सदनों वाली व्यवस्था अपनाई है। बजट सहित सभी धन विधेयकों के लिए लोकसभा को अधिकार संपन्न बनाया गया है। लोकसभा का बहुमत ही सरकार का आधार है। लोकसभा गतिशीलता की प्रतिनिधि है। राज्यसभा राष्ट्रीय विवेक और राज्यों की प्रतिनिधि है। विवेक को राष्ट्रजीवन की गतिशीलता में मार्गदर्शक और सहयोगी बनना चाहिए, लेकिन मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में राज्यसभा में विपक्ष ने राष्ट्रजीवन की गतिशीलता में अपनी भूमिका का अपेक्षित निर्वाह नहीं किया।

संविधान ने लोकसभा और राज्यसभा, दोनों को ही प्रतिष्ठा दी

राज्यसभा की असाधारण उपलब्धियां हैं, लेकिन संविधान सभा में लोकनाथ मिश्र ने दूसरे सदन के औचित्य पर सवाल उठाए थे। एम अनंत शयनम् आयंगर ने कहा था कि दूसरा सदन जरूरी है। अगर निचला सदन आवेश में कोई कानून तुरंत पास करता है तो ऊपरी सदन तक उसके पहुंचने तक बीच में आए समय व्यवधान से आवेश का प्रशमन होगा और कानून पर सही विचार होगा। संविधान ने लोकसभा और राज्यसभा, दोनों को ही प्रतिष्ठा दी है।

राज्यसभा और विधान परिषद धन और वित्त विधेयकों पर अधिकारविहीन हैं

इसलिए जनप्रतिनिधि सदनों की गुणवत्ता और अर्थवत्ता पर लगातार विमर्श जरूरी है। राज्यसभा और विधान परिषद धन विधेयक और वित्त विधेयकों पर अधिकारविहीन हैं। धन संबंधी मामलों में लोकसभा और विधानसभा के पास ही अधिकार हैं। शेष विधेयकों पर बेशक राज्यसभा अधिकार संपन्न है, लेकिन विधान परिषदें ज्यादा से ज्यादा तीन माह तक ही विधेयक विचारार्थ रोक सकती हैं। क्या इस अवधि का कोई सदुपयोग संभव है? दो सदनीय व्यवस्था के पक्षधर कहते हैं कि इस अवधि में हड़बड़ी या आवेश की त्रुटि समाप्त हो सकती है। मूलभूत प्रश्न है कि ऐसी उपयोगिता के बावजूद विधान परिषदों का गठन ऐच्छिक क्यों है? उच्च सदन धीर-गंभीर विमर्श के मंच हैं। तब यहां उत्तेजना और आवेश का माहौल नहीं होना चाहिए। यहां होने वाली बहसें देश के लिए उपयोगी भी होती हैं।

दो सदन बनाम एक सदन की बहस

राज्यसभा ऐसा ही सदन है, लेकिन अनेक अवसरों पर शोर और कलह का वातावरण होता है। महत्वपूर्ण विधायन पर भी सार्थक बहस नहीं होती। विधान परिषदों की हालत और भी निराशाजनक है। इसीलिए दो सदन बनाम एक सदन की बहस चलने लगती है।

दुनिया के कई देशों में एक सदन व्यवस्था है

दुनिया के तमाम देशों में दूसरे सदन नहीं हैं। न्यूजीलैंड, लेबनान, दक्षिण कोरिया, डेनमार्क, बुलगारिया आदि में एक सदन व्यवस्था है। एक सदन या द्विसदन की बहस अनंत है। विधायिका की गुणवत्ता और उत्पादकता ही विचारणीय है। विधान परिषदों को बनाने या समाप्त करने के औचित्य, उपयोगिता एवं प्राविधान पर गहन विमर्श की आवश्यकता है। हमें अपनी जनप्रतिनिधि संस्थाओं की हरेक गतिविधि पर चौकसी रखनी ही चाहिए। क्या वे ‘हम भारत के लोगों’ द्वारा प्राप्त प्राधिकार का सही उपयोग कर रही हैं?

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैैं )