[ उदय प्रकाश अरोड़ा ]: एक के बाद एक अध्ययन और सर्वेक्षण भारत में असमान विकास को रेखांकित कर रहे हैैं। ऐसे भी आंकड़े सामने आ रहे हैैं कि गैर बराबरी के बीच भारत में अति अमीरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। एक अनुमान के तहत अपने देश में कुल 37 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। एक दिलचस्प बात यह है कि जहां भारत की गिनती उन देशों में होती है जहां बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकालना है वहीं अमेरिका और चीन के बाद अरबपतियों की सबसे अधिक संख्या भारत में बताई जाती हैै। यदि यह वर्ग निर्धनता निवारण में हाथ बंटाए तो गरीबी कम करने में मदद मिल सकती है, लेकिन भारत में बिल गेट्स जैसे अरबपति कम ही हैैं।

अपने देश में ऐेसी खबरें आती ही रहती हैैं कि अमुक अरबपति ने बेटे या बेटी की शादी में करोड़ों रुपये खर्च किए। इस तरह की खबरें भी आम हैैं कि धार्मिक स्थल विशेष में चंदे का रिकार्ड कायम हुआ। कुछ बड़े धार्मिक स्थलों में हर वर्ष चंदे की राशि पिछले रिकार्ड को पार करती है। यह सैकड़ों करोड़ रुपये में होती है। धर्म स्थलों के निर्माण में भी लोग दिल खोलकर खर्च करते हैैं। हाल में गुजरात में पाटीदार समुदाय के लोगों ने एक मंदिर परिसर के निर्माण के लिए केवल तीन घंटे में डेढ़ सौ रुपये एकत्र किए। लक्ष्य सौ करोड़ रुपये का ही था। यह वही समुदाय है जो कुछ समय पहले आरक्षण की मांग को लेकर चर्चा में था।

धार्मिक स्थलों के निर्माण के साथ-साथ लोग ऐसे स्थलों में दान करने में भी उदारता दिखाते हैैं। इस मामले में भारत के मुकाबले पश्चिम की स्थिति भिन्न नजर आती है। हाल तक दुनिया के सबसे अधिक धनी व्यक्ति के तौर पर चर्चित बिल गेट्स ने पत्नी मेलिंडा गेट्स के साथ मिलकर समाजसेवा के लिए एक कोष बनाया है। बिल एंड गेट्स फाउंडेशन वैज्ञानिक शोध के साथ समाज सेवा के लिए जमकर पैसा देता है। इस फाउंडेशन ने जानलेवा बीमारियों से बचाव और शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के लिए उल्लेखनीय काम किए हैैं।

बिल गेट्स ने अमेरिका के अरबपति कारोबारियों के साथ मिलकर ‘गिविंग प्लेज’ नामक जिस सोयायटी की स्थापना की थी उसके सदस्य यह शपथ लेते हैैं कि वे अपनी संपत्ति का कम से कम आधा भाग सेवा कार्यों में व्यय करेंगे। नि:संदेह यह कहना गलत होगा कि पश्चिम की तरह का सेवा भाव अपने देश में नहीं है। दान और सेवा की भारत में एक लंबी परंपरा रही है। समय-समय पर समाज के धनीवर्ग ने अपनी संपत्ति गरीबों के बीच बांटी हैैं। आजादी के बाद से यह परंपरा लुप्त सी होती दिखाई पड़ती है।

गांधी जी को पूंजीपतियों की सदाशयता पर पूर्ण विश्वास था। यह उनकी प्रेरणा का ही परिणाम था कि बिड़ला, बजाज और टाटा जैसे घराने आजादी की लड़ाई में अपनी तरह से सहयोग करते थे। उद्योगपति जमना लाल बजाज के बारे में गांधी ने अपने हरिजन पत्र में लिखा था, ‘‘मेरा कोई काम ऐसा नहीं है जिसमें उन्होंने अपने शरीर, दिमाग और धन से पूरा सहयोग न दिया हो। गांधी जी को अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाने में अनेक बार टाटा से भी धन प्राप्त हुआ। टाटा ने भारत की गरीबी के कारणों के अध्ययन हेतु एक चेयर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में स्थापित की थी। गांधी जी ने मोक्ष का पारंपरिक अर्थ भी बदला। जन्म-मरण बंधन से मुक्ति पाकर मोक्ष हासिल करने को उन्होंने अपना ध्येय नहीं बनाया। दरिद्र की सेवा को उन्होंने सबसे बड़ा धर्म माना।

दान को हिंदू धर्म में मानव के सर्वोत्तम गुणों में माना गया है। अलबरूनी लिखता है कि हिंदू धर्म में यह अनिवार्य है कि प्रतिदिन जितना अधिक संभव हो सके दान दें। अलबरूनी के अलावा अन्य विदेशी यात्रियों ने लिखा है कि धन और संपत्ति की प्रचुरता के बावजूद भारतीय त्यागमय जीवन बिताने में विश्वास रखते हैं। महाभारत में सेवा कार्य के लिए संपूर्ण आय का एक तिहाई हिस्सा व्यय करने की हिदायत है।

धर्मग्रंथों में त्याग के साथ भोग की बात कही गई है। जरूरतमंद को दान देना और मानव सेवा ही ईश्वर पूजा है मंदिरों में चढ़ावा चढ़ाना भर ईश्वर पूजा नहीं है। विवेकानंद और टैगोर ने भी गरीबों की सेवा को ईश्वर भक्ति का समानार्थी कहा है।

विवेकानंद का कहना था कि सच्ची ईश्वर उपासना वह है कि हम स्वयं को मानव जाति की सेवा में लगा दें। जब हमारा पड़ोसी भूखा मरता है तो मंदिर में भीड़ लगाने का कोई अर्थ नहीं। उनके अनुसार, ‘मेरे जीवन का परम लक्ष्य उस ईश्वर के विरुद्ध संघर्ष करना है जो दु:खी विधवाओं के आंसू पोछने में असमर्थ है, जो अनाथ बच्चों को रोटी का टुकड़ा नहीं दे सकता। वास्तविक पूजा निर्धन और दरिद्रों की पूजा है, रोगी और कमजोर की पूजा है। जिन लोगों को दो जून भोजन भी नहीं मिलता उनसे ईश्वर की चर्चा कैसे की जाए? उनके लिए तो रोटी ही ईश्वर है। अर्थ ही आध्यात्म है। भूखे और बेरोजगार के सामने ईश्वर एक ही रूप में प्रकट होने का साहस कर सकता है और वह है काम और भोजन के रूप में।’

हालांकि कुछेक भारतीय पूंजीपति समाज सेवा में सक्रिय हुए हैैं और उन्होंने कई उल्लेखनीय काम भी किए हैैं, लेकिन यह समय की मांग है कि भारत में भी बिल एंड मेलिंडा गेट्स जैसे फाउंडेशन स्थापित हों और विशाल संपदा अर्जित करने वाले लोग आधी हिस्सा न सही, कुछ हिस्सा उन कार्यों में खर्च करें जिनसे गरीबी दूर करने में मदद मिले।

यह समय की मांग है कि परोपकार की परंपरा को पुष्ट किया जाए और साथ ही उसे एक नई दिशा और ध्येय भी दिया जाए। गैर बराबरी को दूर करने के ठोस प्रयास इसलिए होने चाहिए, क्योंकि विषमता के दुष्प्रभाव से धनी भी बच नहीं सकते। जिन्हें विदेशी संस्थाओं और ईसाई मिशनरियों के सेवा भाव के तौर-तरीकों पर आपत्ति है उनकी तो यह जिम्मेदारी बनती है कि निर्धनता और विषमता को दूर करने का काम करने वाली भारतीय संस्थाएं स्थापित हों। यह कहीं परोपकार की पुरानी परंपरा के क्षीण होने का परिणाम तो नहीं कि अपने देश में धार्मिक स्थलों का निर्माण तो खूब होता है, लेकिन अच्छे स्कूल और अस्पताल कम ही बनते हैैं।

[ लेखक जेएनयू में ग्रीक चेयर प्रोफेसर रहे हैैं ]