[ संतोष त्रिवेदी ]: वह आला दर्जे के आलोचक हैं। साहित्य को ऊंचा ‘उठाने’ में उनका विशेष योगदान है। उन्हीं के सद्प्रयासों से साहित्य आज फल-फूल रहा है। वह तो बस उस फल का सदुपयोग कर रहे हैं। सम्मानों की उन्होंने कभी परवाह नहीं की, उल्टे सम्मान ही उनका लिहाज करते हैं। हर संस्था में उनके लोग धंसे हुए हैं। आधे से ज्यादा लेखक उन्हीं के बनाए हैं। आलोचक जी ने उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं किया। बस, उन सभी को अपनी ‘सुपारी-समीक्षा’ से ऊंचाई प्रदान कर दी। हम ऐसे ‘ऐतिहासिक’ आलोचक से मिलने का लोभ संवरण नहीं कर सके। कल शाम उनके ‘साहित्य-सदन’ पहुंच गए।

बुरी शक्तियों से साहित्य भी आहत होता है

वह घर के बाहर ही मिल गए। दरवाजे पर ‘नींबू-मिर्ची’ टांग रहे थे। हम जड़ होकर उनकी आराधना देखने लगे। लगा कि बुरी शक्तियों से साहित्य भी आहत होता है। वह उसी का निदान कर रहे थे। जैसे ही आलोचक जी साहित्य-साधना से निवृत्त हुए, हमने अपनी उत्सुकता प्रकट की-‘गुरुदेव! यह ‘नींबू-मिर्ची’ टांगने का क्रांतिकारी विचार आपको कैसे सूझा? क्या साहित्य में भी कोई राजनीतिक प्रयोग करने जा रहे हैं?’ यह सुनकर आलोचक जी ने लंबी सांस ली। वह हमारी टांगों की ओर देखते हुए बोले, ‘अभी तुम साहित्य से बिल्कुल अपरिचित हो।

साहित्य का अपना एक संस्कार होता है

साहित्य का भी अपना एक संस्कार होता है। हम उसका ही निर्वहन कर रहे हैं। और हां, ‘नींबू-मिर्ची’ से तुम्हें क्यों मिर्ची लग रही है? यह विशुद्ध साहित्यिक-कृत्य है। साहित्य में या तो हम किसी को टांगते हैं या उखाड़ते हैं। हमने यहां बड़े-बड़ों को टांग दिया तो ये ‘नींबू-मिर्ची’ क्या चीज हैं! और तो और टांग खींचना तो हमारा प्रिय शगल है। जिस उम्र में तुम गन्ना तक नहीं उखाड़ पाए, अपनी आलोचना से हमने जमे-जमाए लेखक उखाड़े हैं। लेखक बनने के लिए आलोचक होना कितना जरूरी है, यह इसी से साबित होता है। रही बात राजनीतिक प्रयोग की तो यह सरासर गलत है।

साहित्य कभी राजनीति के रास्ते पर नहीं चलता

राजनीति में भले साहित्य के प्रयोग होते हों, साहित्य कभी राजनीति के रास्ते पर नहीं चलता। मुझे ही देखो, कभी राजनीति में दखल नहीं दिया। सरकार और सरोकार से हमेशा दूर रहे, तभी साहित्य के सारे सम्मान हमारे गले पड़े। अगर तुम लिखकर क्रांति करने की सोच रहे हो तो यह तुम्हारी नासमझी है। सम्मानित होगे, तभी लेखक माने जाओगे। हमने जो भी लिखा है, सम्मानित है। हमारे होते यह इतना मुश्किल भी नहीं है। आओ, अब हमारे साथ साहित्य का रस-पान करो।’

कोई भी साहित्यिक-चर्चा रसरंजन के बिना अधूरी है

यह कहकर वह एक कक्ष की ओर बढ़ चले। शाम गहरा रही थी और हम भी साहित्य की गहराई में उतरने को उत्सुक थे। चुपचाप उनके पीछे हो लिए। हम उनके साधना-कक्ष में थे। सोफे पर बैठने का इशारा कर वह स्वयं ढक्कन खोलने लगे। औपचारिक ना-नुकुर के बाद हमने भी आत्मसमर्पण कर दिया। थोड़ी देर में ही वह ‘मूड’ में थे। अपनी सफलता का रहस्य खोलते हुए बोले, ‘कोई भी साहित्यिक-चर्चा रसरंजन के बिना अधूरी है। इसीलिए साहित्य में रसों का बड़ा महत्व है। जितने भी महान लेखक हुए हैं, साहित्य-सुधा से लैस होकर ही सफल हुए हैं। तुम सही जगह पर आए हो।’

मैं लेखक नहीं आलोचक बनना चाहता हूं

‘परंतु, मैं लेखक नहीं आलोचक बनना चाहता हूं। कृपया इसी विधि को ठीक से समझा दें!’ हम पर साहित्य का सुरूर तारी हो चुका था। मेरी बात सुनकर वह कमरे में लगे जाले की ओर देखने लगे। फिर मुझे देखते हुए बोले, ‘वैसे नई पीढ़ी से मुझे कोई उम्मीद नहीं लगती। न वह ठीक से लिखती है, न पढ़ती है। यहां तक कि वरिष्ठों का भी लिहाज नहीं करती। उनके लेखन में खोट खोजती है। यही वजह है कि मुझे आलोचक बनना पड़ा। खुद की समीक्षाएं लिखवानी पड़ीं। यह तुमसे इसलिए कह रहा हूं कि तुम ऐसे नहीं हो। तुममें साहित्य की अपार संभावनाएं देख रहा हूं। वैसे मैं फोकट में किसी के लिए कुछ नहीं करता, पर ‘हम-प्याला’ होने का दायित्व जरूर निभाऊंगा। मेरी आलोचना की नई किताब की समीक्षा तुम्हारे नाम से आएगी। तुम्हें कोई कष्ट न हो इसलिए मैंने किताब आने से पहले ही उसे तैयार कर लिया है। इस तरह तुम आलोचक भी बन जाओगे और मेरे उत्तराधिकारी भी!’

हम ही साहित्य संभाल रहे हैं

अब तक साहित्य पूरी तरह मेरी चपेट में आ चुका था। आलोचक जी ने अतिरिक्त सहृदयता दिखाते हुए अपने ड्राइवर को आवाज दी। इसके बाद कब अपने घर पहुंचा, मुझे याद नहीं। आलोचक जी शहर से बाहर हैं। फिलहाल, हम ही साहित्य संभाल रहे हैं।

[  लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]