(प्रदीप सिंह)। जार्ज ऑरवेल ने गांधीजी के बारे में लिखते हुए कहा था कि संतों को दोषी माना जाना चाहिए जब तक कि वे निर्दोष साबित नहीं हो जाते। इसके साथ ही उन्होंने एक शर्त भी जोड़ी कि ऐसे हर व्यक्ति को कसने की कसौटी अलग-अलग होगी। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के संत थे। अब सवाल है कि उन्हें किस कसौटी पर कसा जाए? सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में होने के नाते उनसे दो तरह की अपेक्षाएं थीं। उन्हें इन्हीं अपेक्षाओं की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। वह जिस कालखंड में राजनीति में आए उस समय राजनीतिक मतभेद मनभेद नहीं बनते थे। वह अपनी पार्टी का संसदीय या कहें कि सार्वजनिक चेहरा थे और उनकी जिम्मेदारी संगठन के प्रयास से मिले जनसमर्थन में इजाफा करना और संगठन की विचारधारा से इतर लोगों को पार्टी से जोड़ना था। उन्होंने ये दोनों जिम्मेदारियां बखूबी निभाईं। वह अपने खराब स्वास्थ्य के कारण सार्वजनिक जीवन से एक दशक पहले ही रिटायर हो गए थे। सार्वजनिक जीवन में रहे किसी व्यक्ति के किए-अनकिए का आकलन करने के लिए इतना समय काफी होता है। ऐसा नहीं है कि वाजपेयी जी ने जो किया वह सब सही ही हो, परंतु जब किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व का समग्रता में आकलन किया जाता है तो निष्कर्ष इस पर निर्भर करता है कि उसकी कमियों पर खूबियां हावी रहीं या खूबियों पर कमियां भारी पड़ गईं। इस बात से उनके राजनीतिक विरोधी भी सहमत होंगे कि उनकी कमियां उनकी खूबियों के आगे टिक नहीं पाईं। इस सबके बावजूद ऐसे भी लोग हैं जो इससे सहमत नहीं हैं।

ऐसे लोगों की दो श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में ऐसे लोग हैं जिनमें ज्यादातर कांग्रेसी और दूसरे विपक्षी दलों के नेता हैं। इस श्रेणी के लोगों का विरोध राजनीतिक कारणों से और प्रशंसा प्रधानमंत्री मोदी को कमतर दिखाने के लिए होती है। सर्वदलीय श्रद्धांजलि सभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने जो कहा उसका मकसद यही था। उनकी बात तथ्यात्मक रूप से गलत नहीं है। यह सही है कि आज विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच उस तरह का संवाद नहीं है जो अटल जी के समय था, परंतु क्या इसके लिए एक ही पक्ष जिम्मेदार है? अटल जी सत्ता में रहे तो और विपक्ष में रहे तो उनका व्यवहार एक जैसा रहा। उनके बाद जो सत्ता में रहे उनका विपक्ष के साथ कैसा व्यवहार और संवाद था? संवाद एकतरफा नहीं हो सकता। आरोप लगाने वालों को इसके बारे में भी सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि जब अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति में आए तब राजनीतिक वातावरण कैसा था? क्या उस समय के राजनीतिक वातावरण से आज की राजनीति की तुलना की जा सकती है? दूसरी श्रेणी में ऐसे लोग आते हैं जो अपने अब तक के जीवन में और आने वाले समय में भी यह मानने को तैयार नहीं होंगे कि भाजपा एवं संघ और उससे जुड़ा व्यक्ति कभी कुछ अच्छा कर सकता है। अगर वह अच्छा करेगा तो वे अच्छे की परिभाषा बदल देंगे।

भाजपा आज जहां पहुंची है और संघ का जो विस्तार हुआ है उसमें इन आलोचकों का भी योगदान है। दरअसल ये आलोचना नहीं, घृणा करते हैं। ऐसे लेफ्ट लिबरल्स को तथ्यों तर्कों से कोई मतलब नहीं होता। उनके लिए संघ परिवार की आलोचना उनके जीवन का ध्येय है। इन लोगों ने जीवन में जो हासिल किया उसमें सबसे बड़ा योगदान संघ परिवार को गरियाने की उनकी क्षमता रही है। अपने आकाओं के यहां इसी से उनके नंबर बढ़ते हैं। निधन के बाद अटल को मिल रही श्रद्धांजलि और समर्थन से भी उन्हें कष्ट है।

आजादी के बाद के 20 वर्ष यानी 1947 से 1967 तक कन्याकुमारी से कश्मीर तक एक ही पार्टी कांग्रेस का वर्चस्व था। देश की राजनीति एकध्रुवीय थी। इसके बाद के 20-25 वषों में वही लोग सफल हुए जो कांग्रेस से निकल कर आए। विपक्ष को कामयाबी के लिए एक अदद कांग्रेसी की जरूरत रहती थी। 1967 से 1969 के बीच संयुक्त विधायक दल सरकारें भी बागी कांग्रेसियों की मदद से ही बनीं। फिर 1977 में मोरारजी देसाई हों, चंद्रशेखर या जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे नेता, सब कांग्रेस से ही निकले। इस कड़ी के आखिरी नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। उनके बारे में जॉर्ज फर्नाडीस ने तो यहां तक कह दिया था कि वीपी सिंह नहीं होते तो हमें एक वीपी सिंह गढ़ना पड़ता।

1977 से करीब 1987 तक भाजपा एक दक्षिणपंथी मध्यमार्गी दल थी। साल 1980 में भाजपा की स्थापना के समय अटल जी की पहल पर पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद का रास्ता अपनाया, परंतु 1988 में लालकृष्ण आडवाणी पालमपुर अधिवेशन में पार्टी को अपने मर्म (कोर) की ओर ले गए। इसी अधिवेशन में पार्टी ने रामजन्मभूमि आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया। किसी भी कैडर वाली पार्टी के दो हिस्से होते हैं, एक संगठन और दूसरा संसदीय शाखा। संगठन विचारधारा के अनुरूप अपने मूल मुद्दों के आधार पर काम करता है। संसदीय शाखा का नेता वृहत्तर स्वीकार्यता के लिए बनाया जाता है। उससे अपेक्षा होती है कि वह कैडर के बाहर के लोगों को पार्टी से जोड़ सके। वह पार्टी के वोट में अपने व्यक्तित्व और लोकप्रियता से इजाफा करता है। वाजपेयी ने ये सभी काम बखूबी किए। उनका सबसे बड़ा सकारात्मक योगदान यह था कि उन्होंने जनसंघ और भाजपा को राजनीतिक अस्पृश्यता से बचाया।

अयोध्या में छह दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा गिरने के बाद 1998 में सरकार बनाने के लिए देश की 24 पार्टियों का समर्थन वाजपेयी के कारण ही मिला। कैडर वाली पार्टियों में लोकप्रिय नेता की इस भूमिका में संज्ञानात्मक विसंगति भी होती है, जो अटल जी की भूमिका और कार्यकलाप में दिखी। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री रहते हुए वह पाकिस्तान से संबंध सुधारने बस लेकर लाहौर गए। कारगिल युद्ध के बाद भी मुशर्रफ को आगरा शिखर वार्ता के लिए बुलाया। जबकि कैडर चाहता था कि भारत पाकिस्तान पर हमला करे।

हर कालखंड की राजनीति का अपना स्वभाव होता है। वह नेताओं के व्यक्तित्व और सामयिक राजनीतिक, सामाजिक परिस्थितियों से तय होती है। राजनीति और नेता को इस संदर्भ से काट कर नहीं समझा जा सकता। जैसे नेहरू की राजनीति उनके साथ ही चली गई। उसी तरह अटल जी की राजनीति उनके सक्रिय जीवन से हटते ही चली गई। इसके बावजूद समय यही सिखाता है कि सब कुछ जाने वाले के साथ खत्म नहीं होता। समर शेष है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)