नई दिल्ली (हर्ष वी पंत)। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग चीन में माओत्से तुंग के बाद निर्विवाद रूप से सबसे शक्तिशाली नेता बन गए हैं। बीते दिनों वहां की संसद ने चिनफिंग के आजीवन राष्ट्रपति बने रहने पर आधिकारिक तौर पर मुहर लगा दी। इसके लिए चीन के संविधान में बाकायदा संशोधन भी किया गया। चीन में सत्ता के शीर्ष पर ऐसे समायोजन का लंबे अरसे से अनुमान लगाया जा रहा था, लेकिन इस प्रस्ताव को मूर्त रूप देने के साथ ही एक वैश्विक शक्ति के तौर पर चीन काउभार और स्पष्ट हो गया। पिछले महीने चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीसी ने एक प्रस्ताव आगे बढ़ाया था जिसमें उस संवैधानिक बाध्यता को खत्म करने की बात थी जो राष्ट्रपति के लिए अधिकतम दो कार्यकाल निर्धारित करती थी। मौजूदा वैश्विक ढांचे में चीन के रुतबे को देखते हुए इसे वर्तमान वैश्विक राजनीति की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक कहा जाएगा।

पिछले वर्ष अक्टबूर में बतौर राष्ट्रपति चिनफिंग का दूसरा कार्यकाल शुरू होने के साथ ही उन्हें पार्टी और सेना की कमान भी मिली। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रत्येक पांच वर्ष में होने वाली बैठक जिसे वहां कांग्रेस कहा जाता है, में यही रीत चली आई है। असल में उन्हें सबसे ज्यादा ताकत पार्टी प्रमुख और बेहद शक्तिशाली केंद्रीय सैन्य आयोग का मुखिया बनने से मिली। पार्टी प्रमुख के लिए कोई निश्चित कार्यकाल तय नहीं है। ‘नए दौर के लिए चीनी स्वरूप वाले समाजवाद पर शी चिनफिंग के विचार’ नामक उनका राजनीतिक सिद्धांत अब चीन के संविधान का हिस्सा बन गया है। इस समय चीन में चिनफिंग का जैसा सिक्का चल रहा है उसकी तुलना माओ के पुराने स्वर्णिम दौर से ही की सा सकती है जब सर्वोच्च नेता के रूप में माओ के इशारे से करोड़ों लोगों की तकदीर तय हुआ करती थी। एक व्यक्ति के शासन के खतरों को महसूस करते हुए देंग श्याओपिंग ने माओ की मौत के बाद 1982 में चीन के संविधान में संशोधन कर राष्ट्रपति के लिए पांच-पांच वर्ष के अधिकतम दो कार्यकाल तय कर दिए थे।

हालांकि चीन में विरोध के छिटपुट स्वर अभी भी उभर रहे हैं जो मुख्य रूप से सोशल मीडिया पर ही देखे जा सकते हैं। ये आलोचक राजनीतिक ढांचे में बदलाव की तुलना उत्तर कोरिया से कर रहे हैं या फिर माओ-शैली वाले व्यक्ति पूजन के खतरों को इंगित कर रहे हैं, लेकिन चीन में मुख्य रूप से इस कदम का समर्थन ही किया जा रहा है। समर्थन के पीछे देश को लंबे समय तक स्थायित्व देने की दुहाई दी जा रही है। इसके इतर कुछ लोगों की दलील है कि चिनफिंग का भ्रष्टाचार विरोधी अभियान और बेल्ट एंट रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआइ जैसी महत्वाकांक्षी पहल अभी अधर में ही है इसलिए ऐसा कोई कदम बेहद जरूरी हो चला था। जो भी हो, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं कि इसका पूरा वास्ता चिनफिंग की महत्वाकांक्षा से है। बीते वर्ष अक्टूबर में पार्टी की 19वीं कांग्रेस में दिए अपने मैराथन भाषण में चिनफिंग ने चीन को एक सुनहरा ख्वाब दिखाया था। उन्होंने उस योजना का खाका पेश किया जिसमें चीन को अगले चार वर्षों के दौरान ‘सामान्य’ समृद्धि और वर्ष 2050 तक एक आधुनिक समाजवादी देश बनाने की तस्वीर दिखाई गई थी।

जब वह यह कह रहे थे कि चीन ‘चीनी स्वरूप वाले समाजवाद’ से अपने विकास की राह बनाएगा और ‘मानवता के लिए एक साझा भविष्य और शांति एवं स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए दुनिया के सभी देशों के लोगों को साथ मिलकर काम करने के लिए आमंत्रित करेगा’ तो वह ‘बीजिंग सहमति’ का मसौदा ही तैयार कर रहे थे जिसे एक तरह से तथाकथित वाशिंगटन सहमति के विकल्प के तौर पर बढ़ाया जा रहा है। शेष विश्व की तरह भारत भी चीन में हुए बदलाव से कई तरह से प्रभावित हो सकता है। भारत-चीन संबंधों में लगे ऊंचे दांव को देखते हुए नई दिल्ली के पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं कि वह चीन के साथ व्यावहारिक रूप से काम ले, भले ही वहां सत्ता पर कोई भी आसीन हो। ऐसे दौर में जब भारत-चीन द्विपक्षीय संबंध बेहद मुश्किल दौर से गुजर रहे हों तब चीन की शासन प्रणाली में एक शख्स के बहुत ज्यादा मजबूत होने से भारत के लिए स्थिति और जटिल ही बनेगी। भारत को लेकर चीन ने निरंतरता वाला ऐसा रणनीतिक रुख अपनाया है जिसमें वह भारत को दक्षिण एशिया तक सीमित रखकर इस इलाके में संतुलन के लिए पाकिस्तान को प्रश्रय देता आया है। बीजिंग ने नई दिल्ली की वैश्विक आकांक्षाओं को कभी मान्यता नहीं दी और भारत के प्रमुख हितों से जुड़े मुद्दों पर जरा भी ढील देना मुनासिब नहीं समझा।

ताकत के पैमाने पर भारत और चीन के बीच बढ़ता अंतर और चीन के खिलाफ किसी मोर्चे पर बढ़त न होने से भारत किसी भी तरह चीन को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। मोदी सरकार ने चीन के साथ नई शर्तें तय करके आश्वस्तकारी शुरुआत की थी। बीआरआइ को लेकर उसकी संवैधानिक स्थिति ने वैश्विक विमर्श तैयार करने का काम किया तो पिछले साल डोकलाम में भारत के रुख ने उसका कद बढ़ाया। बहरहाल अब चीनी मोर्चे पर फिसलन का खतरा बढ़ गया है जहां पुरानी धारणा के तहत यही माना जा रहा है कि अगर भारत कुछ तल्ख मुद्दों पर रुख नरम कर ले तो भारत और चीन संबंध सामान्य हो सकते हैं। इसके संकेत भी मिल रहे हैं, लेकिन अब इसकी भी आशंका है कि चीन किसी भी सूरत में भारत को लेकर कोई ढील नहीं देगा, क्योंकि चिनफिंग किसी भी मंच पर चीन को महाशक्ति बनाने की इच्छा व्यक्त करने से नहीं चूकते। अब उनकी ताकत और संसाधन भी बढ़ गए हैं। चिनफिंग की बढ़ती ताकत का यही अर्थ होगा कि वह हिंद महासागर का सैन्यीकरण करने और दक्षिण चीन सागर में अपना दबदबा बढ़ाने की कोशिश को दोगुनी रफ्तार देंगे।

उनकी महत्वाकांक्षी परियोजना बीआरआइ अब नए सिरे से जोर पकड़ेगी और इस पर भारतीय विरोध उन्हें और कुपित करेगा। वह भारत को सबक सिखाने के मौके का भी इंतजार कर सकते हैं, क्योंकि चीन में तमाम लोग मानते हैं कि डोकलाम के मसले पर बीजिंग को कूटनीतिक पटखनी खानी पड़ी थी। अगले आम चुनाव के आसपास ऐसा होने की आशंका है जब चढ़े हुए राजनीतिक पारे का असर नेताओं की जुबान पर भी नजर आएगा। भारतीय राजनीतिक बिरादरी को अभी भी यह सीखना बाकी है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर समवेत स्वर में कैसे बोलते हैं? भारतीय राजनीतिक वर्ग में कैसे विभाजन किया जा सकता है, यह तब स्पष्ट भी हो गया था जब डोकलाम विवाद के वक्त मुख्य विपक्षी दल के नेता चीनी राजदूत से गुपचुप तरीके से मिले। स्पष्ट है कि जब चिनफिंग सत्ता के शिखर पर कहीं अधिक मजबूती से हों तब चिंता करने की कई वजहें पैदा हो जाती हैं, लेकिन अपना घर दुरुस्त करना हमारी प्रमुख प्राथमिकता होनी चाहिए।

(लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं)