[ तरुण गुप्त ]: जब कोई विषय ध्रुवीकरण वाला हो तब आप कितनी भी तार्किक बात कहें उससे एक वर्ग निराश नहीं तो असहमत अवश्य होगा। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी को लेकर बीते छह हफ्तों से मैं भी लेखकों की ऐसी ही दुविधा से दो-चार हुआ हूं। यह आलेख पाठकों को किसी पक्ष में लामबंद करने का प्रयास नहीं है। अपने विवेक, परिवेश और सुविधा के हिसाब से लोग पहले ही अपना मत बना चुके हैं। बहरहाल इन विषयों से जुड़ी टिप्पणियों में मुख्य रूप से संवैधानिक नैतिकता, मूल ढांचा सिद्धांत, न्यायिक समीक्षा जैसी तमाम अवधारणाओं पर चर्चा होती रही है। ये भले ही पाठकों को विरक्त न करें, परंतु कानूनी जटिलताओं में जरूर जकड़ती हैं। इस स्थिति में अधिक उपयुक्त यही होगा कि ऐसे विषयों पर विशेषज्ञ ही प्रकाश डालें और संबंधित प्राधिकारी ही इससे जुड़े प्रश्नों का उत्तर दें।

सीएए-एनआरसी की जुगलबंदी व्यर्थ एवं विध्वंसक किस्म की है

यहां हम कुछ अपेक्षाकृत आधारभूत मुद्दों की चर्चा करेंगे। एक प्रमुख अखबार में प्रख्यात स्तंभकार ने लिखा कि सीएए-एनआरसी की जुगलबंदी व्यर्थ एवं विध्वंसक किस्म की है। उनके तमाम वैचारिक सहोदरों का भी मानना है कि अवैध प्रवासियों को चिन्हित करने वाले इस उपक्रम से कोई लाभ नहीं होने वाला। इन लोगों को भारत से बाहर नहीं भेजा जा सकता, क्योंकि कोई अन्य देश इन्हें नहीं अपनाएगा। मानवाधिकारों को देखते हुए उन्हें डिटेंशन कैंप में भी नहीं रखा जा सकता। वे ये भी मानते हैं कि उनके अवैध विधिक दर्जे के बावजूद वे किसी न किसी कार्य में संलग्न होकर अर्थव्यवस्था में योगदान तो कर ही रहे हैं।

कई विचारक सरकार की प्राथमिकताओं पर भी प्रश्न उठा रहे

आपत्तियों को लेकर कुछ और दलीलें दी गईं जिनमें भारी-भरकम वित्तीय लागत से लेकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में एनआरसी से जुड़ी अव्यावहारिकता जैसे पहलुओं की चर्चा है। कई विचारक सरकार की प्राथमिकताओं पर भी प्रश्न उठा रहे हैं। उनका मानना है कि अप्रत्याशित मंदी के इस दौर में पूरा जोर अर्थव्यवस्था में तेजी लाने वाले उपायों पर होना जाना चाहिए, न कि ध्यान भटकाने वाले उन मसलों पर जो उनकी राय में विशुद्ध रूप से विभाजनकारी एजेंडे से ओतप्रोत हैं।

नागरिक बनना प्रवास का सबसे विकसित स्वरूप है

बहरहाल आप भले ही किसी भी वैचारिक ध्रुव पर खड़े हों, लेकिन आपत्तियों की यह सूची विषय के अति-सरलीकरण का जीता-जागता उदाहरण है। सामान्य समझ के अनुसार हम जानते हैं कि किसी देश में प्रवास के विभिन्न स्तर होते हैं। इसमें कोई पर्यटक, छात्र या कारोबारी के रूप में रह सकता है, लेकिन इसके बावजूद वे नागरिक नहीं माने जाएंगे। दरअसल नागरिक बनना प्रवास का सबसे विकसित स्वरूप है। ऐसे में इसका उत्तर इसी बिंदु में निहित है कि इन अवैध प्रवासियों का क्या किया जाए। उन्हें न तो किसी दूसरे देश में भेजना संभव है और न ही कैद में रखना।

अपात्र लोगों तक राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र पहुंच गए

संभवत: उन्हें कामकाज की अनुमति दी जाए, परंतु उन्हें मताधिकार से तो वंचित किया ही जा सकता है। हम अपने तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से तो परिचित हैं कि कैसे तमाम अपात्र लोगों तक राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र पहुंच गए। इससे बीते कई वर्षों के दौरान देश के कई हिस्सों में राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं जनसांख्यिकीय परिवेश काफी बदल गया है। एनआरसी इस प्रक्रिया को बाधित अवश्य कर सकती है।

अपने नागरिकों की पंजिका तैयार करना प्रत्येक देश का अधिकार है

हम अक्सर इसी उलझन में रहते हैं कि जो संभव है वही किया जाए और इसकी अनदेखी करते हैं कि वास्तव में क्या किया जाना चाहिए? यह रवैया त्रुटिपूर्ण है। अपने नागरिकों की पंजिका तैयार करना प्रत्येक देश का अधिकार है। इससे सरकारी सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ती है। कल्याणकारी योजनाओं में रिसाव रुकता है। साथ ही सुनिश्चित होता है कि केवल वही मतदान करेंगे जो वास्तविक नागरिक हों। यदि एनआरसी का विचार सैद्धांतिक रूप से सही है तब क्या मात्र इसके क्रियान्वयन की राह में आने वाली चुनौतियों के आधार पर ही इस अवधारणा को खारिज करना उचित होगा? हमारी वित्तीय, तंत्रीय एवं अन्य चुनौतियों को देखते हुए कारगर एनआरसी के लिए कौन सा तरीका उपयुक्त होगा, यह तय करने का दायित्व, अधिकार एवं विशेषज्ञता केवल सरकार के पास है।

एनआरसी को लेकर असम के अनुभव से जरूर कुछ सवाल उठते हैं

एनआरसी को लेकर असम के अनुभव से जरूर कुछ सवाल उठते हैं और इसी कारण इसका वह स्वरूप देश के दूसरे हिस्सों में नहीं आजमाया गया। वैसे भी इसका अंतिम प्रारूप अभी तक तैयार नहीं हुआ है और जब तक सरकार इसे अधिसूचित नहीं करती तब तक इस दिशा में कोई भी अनुमान लगाना निरी अटकल ही होगी। यदि सीएए की बात करें तो किसी अन्य देश की भांति भारत के पास भी नागरिकता को लेकर तमाम कायदे-कानून हैं। इसमें ताजा संशोधन एक विशेष वर्ग के लोगों को शीघ्रता से नागरिकता प्रदान करने का ही प्रावधान करता है। जहां तक इसकी बारीकियों की बात है तो उसका निर्णय उच्चतम न्यायालय ही करेगा।

सरकार सब कुछ भूलकर केवल आर्थिक मोर्चे पर जुट जाए

अब सबसे चर्चित मुद्दे यानी अर्थव्यवस्था पर लौटते हैं। यकीनन इसे शीर्ष प्राथमिकता में होना चाहिए, लेकिन क्या यही इकलौती वरीयता होनी चाहिए? क्या अर्थव्यवस्था और एक वैचारिक सामाजिक एजेंडे को समांतर रूप से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता? सरकार सब कुछ भूलकर केवल आर्थिक मोर्चे पर जुट जाए, यह कहना कुछ वैसा ही होगा मानों वह एक वक्त में एक ही कार्य कर सकती है। राज्य सबसे बड़ा निकाय है। क्या उसे एक वक्त में कई कार्यों के संचालन में सिद्धहस्त नहीं होना चाहिए?

नागरिक ऐसा विरोध करें जिससे दूसरों को कोई परेशानी न हो

विमर्श, आलोचना और विरोध-प्रदर्शन लोकतंत्र का हिस्सा हैं। हालांकि हम अभी उस स्तर तक नहीं पहुंचे जहां नागरिक ऐसा विरोध करें जिससे दूसरों को कोई परेशानी न हो या सामान्य कामकाज में गतिरोध न उत्पन्न हो। वहीं सरकार भी ऐसे प्रदर्शनों से निपटने के कारगर उपाय नहीं तलाश पाई है जिसमें बलप्रयोग की स्थिति न बने।

लोकतांत्रिक राजव्यवस्था की दो बड़ी सीख

लोकतांत्रिक राजव्यवस्था की दो बड़ी सीख हैं-एक साध्य और साधन की पवित्रता और दूसरा विरोध-प्रदर्शन को अपने मर्म से विमुख नहीं होना चाहिए। वास्तव में किसी आंदोलन की आत्मा उसके मर्म में ही समाई होती है। समाज को विमर्श की धारा से ही स्वयं को विकसित करना चाहिए। आलोचना का प्रवाह भी मुक्त होना चाहिए, लेकिन वह सही कारणों के आधार पर की जाए। इस बीच कुछ बातें आलोचकों-प्रदर्शनकारियों विशेषकर छात्रों को भी गांठ बांध लेनी चाहिए। सबसे पहले तो उन्हें किसी विषय पर राय बनाने के अति-उत्साह में प्रासंगिक सूचनाओं, जानकारी, शिक्षा, बुद्धिमता, परिपक्वता और अनुभव की अनदेखी नहीं करनी चाहिए। याद रखें कि किसी मसले पर राय से पहले और कहीं अधिक महत्वपूर्ण उसकी सही जानकारी होती है।

[ लेखक दैनिक जागरण के संपादक हैं ]