डॉ. दर्शनी प्रिय बीते करीब छह माह से देश-दुनिया में बहुत सी गतिविधियां ठप हैं। शिक्षण कार्यो पर व्यापक रूप से इसका असर पड़ा है। शिक्षाíथयों का बहुत नुकसान हुआ है। ऑनलाइन पठन-पाठन के कुछ सक्रिय प्रयासों के अलावा शैक्षिक संस्थानों की कोई विशेष उपलब्धि नहीं रही। कक्षीय अधिगम संबंधी क्रियाकलापों को लेकर भी संबंधित संस्थानों और तंत्र में कोई एकनिष्ठ अनुप्रयोग नहीं दिखा। नीतिगत तैयारियों में खामियां और तकनीकी गैर सुलभता के चलते अधिकांश छात्र ऑनलाइन शिक्षा तक अपनी पहुंच नहीं बना सके। समग्र रूप में कहें तो कोरोना संकट ने समानुपातिक रूप से शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्र के छात्रों को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन इससे इतर इस दौरान देश में कुछ ऐसे अनूठे प्रयास होते रहे, जिसने शिक्षा की परिभाषा और मायने दोनों ही बदल दिए।

महाराष्ट्र में कुछ जगहों पर शिक्षकों द्वारा एक ऐसा ही अभिनव प्रयोग किया गया, जहां स्कूल की दीवारों पर पाठ्य आधारित बुनियादी सबक उकेरकर बच्चों को पढ़ाया गया। इस सकारात्मक प्रयास ने कई अन्य ग्राम-पंचायतों को भी प्रेरित किया। एक और बानगी देखने को मिली हरियाणा के बेगमपुर में, जहां स्थानीय शिक्षादूतों की तैनाती के जरिये सर्वसुलभ शिक्षा की पैरोकारी की गई। इलाके के युवाओं के समग्र प्रयास और स्वैच्छिक योगदान से पटरी से उतरी शिक्षा को पुनर्जीवित किया गया। जिले के शिक्षाधिकारियों की सहभागिता से ये युवा शिक्षादूत पांच बच्चों के समूहों को बगीचों और सामुदायिक भवनों में ज्ञान का अमृत बांट रहे हैं। ये प्रयोग यहीं नहीं रुके। कहीं माइक और लाउडस्पीकर का सहारा लिया गया, तो कहीं खुली दीवारों को ही ब्लैक बोर्ड में तब्दील कर दिया गया। देशभर में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिले, जिसने विपरीत परिस्थिति में भी आशा की किरण जलाए रखी।

कहना न होगा कि अपने दत्तचित्त प्रयासों द्वारा शिक्षकों ने ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के नवीन प्रायोगिक माध्यमों से ज्ञान की निरंतरता को बनाए रख अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया। ऑनलाइन शिक्षा से वंचित छात्रों तक ज्ञान की रोशनी पहुंचाने में ऐसे अभियानों से बड़ी मदद मिली। ऐसे प्रायोगिक शैक्षिक विकल्पों से सामुदायिक शैक्षिक भावना का विकास हुआ और लोगों में नए प्रयोगों को लेकर जनजागृति आई। शिक्षा जगत में, ऐसे प्रयोगों के सुसंगत विस्तार की मांग अब उठने लगी है। भारत जैसे विशाल भूभाग वाले देश में अनौपचारिक माध्यमों की भारी जनस्वीकार्यता शुभ संकेतक है। देश के दूर-दराज के इलाकों में बसे ज्यादातर स्कूल बुनियादी जरूरतों का अभाव झेल रहे हैं। जहां बिजली और तकनीकी उपकरणों का सुलभ हो पाना दूर की कौड़ी है, वहां ऐसे प्रयोगों ने उम्मीद की नई किरण पैदा की है।

इस कठिन दौर में देश के कई जिलों के असंख्य शिक्षकों ने अपनी अनूठी पहल से शिक्षा की नई वैकल्पिक व्यव्स्था की शुरुआत की है और पठन-पाठन के ये अनूठे तरीके छात्रों के बीच खासे लोकप्रिय हो भी रहे हैं। ऐसे में भविष्य के विकल्पों की पूर्व तैयारी मुफीद साबित हो सकती है। कई शिक्षा विशेषज्ञों की सलाह है कि ऐसे परिवार जो डिजिटलाइजेशन से दूर हैं, उन्हें स्थानीय प्रशासन की तरफ से एक एजुकेशनल किट बना कर उपलब्ध कराया जाना चाहिए, ताकि शिक्षण कार्य अनवरत जारी रहे।

ऑनलाइन क्लासेज के जरिये शहरों में स्कूलों के नए एकेडमिक सेशन शुरू हो गए हैं, जबकि आर्थिक रूप से कमजोर और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले छात्र इस मामले में पीछे छूट रहे हैं। समय आ गया है कि शिक्षा के पारंपरिक तरीकों से इतर कुछ नवीन प्रयोग किए जाएं, जिससे संसाधनहीनता और तकनीकी अनुपलब्धता के बावजूद अधिगम को अनिवार्य रूप से सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य बनाया जा सके।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)