डॉ. दर्शनी प्रिय। दसवीं और बारहवीं के इम्तिहान शुरू हो चुके हैं। ऐसे में छात्रों पर परीक्षा का भय तारी है। कड़ी प्रतिस्पर्धा के साथ सबसे आगे निकलने की होड़ ने छात्रों को असमय ही थकान और उब से भर दिया है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने परीक्षाओं का मिजाज बदला है। आत्मविश्वास हिला देने वाली परीक्षाओं की प्रकृति ने दबाव का वातावरण तैयार किया है जिसके परिणामस्वरूप छात्रों में हताशा और निराशा से ख़ुदकुशी जैसी घटनाओं में इजाफा हुआ है।

परीक्षाओं को लेकर हौवा पैदा किया जाना : हालिया आंकड़ों से पता चलता है कि परीक्षाओं में असफलता से उपजे ग्लानि और अपराध- बोध के भाव के चलते हजारों छात्रों ने आत्महत्या की है। बढ़ते परीक्षा संबंधी दबाव ने कई जिंदगियों को लील लिया है। दरअसल जिस तरह कोचिंग संस्थानों द्वारा परीक्षाओं को लेकर परीक्षा का हौवा पैदा किया जाता है, वह विशुद्ध व्यावसायिकता को ही दर्शाता है, वहीं अभिभावक भी इसे लेकर अतिव्यग्रता दिखाने से नहीं चूकते। खेलने-कूदने और आनंद से भरपूर जीवन जीने की उम्र में आज बच्चे परीक्षाओं का बोझ लिए अवसाद को गले लगा रहे हैं। निस्संदेह यह स्थिति चिंतनीय है।

‘एक्यूट डिप्रेशन’ से जूझ रही भारत 4.5 प्रतिशत आबादी : एक अनुमान के अनुसार भारत की लगभग 4.5 प्रतिशत आबादी इस समय अवसाद के उच्चतम स्तर यानी ‘एक्यूट डिप्रेशन’ से जूझ रही है। 13 से 15 साल की उम्र के एक-चौथाई किशोर अवसाद से पीड़ित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पूर्व एशिया के करीब 8.6 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में हैं। दस दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में सर्वाधिक आत्महत्या दर भारत में है। इसमें ‘दक्षिण-पूर्व एशिया में किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य स्थिति’ संबंधी रिपोर्ट में यह बताया गया है कि भारत में 15 से 29 वर्ष की उम्र वर्ग के प्रति एक लाख व्यक्ति पर अवसाद संबंधी आत्महत्यों की दर 35.5 है। परीक्षाओं और अन्य कारणों से उपजे अवसाद संबंधी ये आंकड़े स्थिति की भयावहता की ओर इशारा करते हैं।

हैपिनेस कैरिकुलम : ऐसे में हैपिनेस कैरिकुलम या खुशहाली पाठ्यक्रम की आवश्यकता बढ़ जाती है। अपनी खूबियों के चलते यह आजकल विमर्श के केंद्र में है। ‘हैप्पीनेस’ या खुशी एक मानसिक स्थिति है जिसे किसी भी कार्यक्षेत्र में बेहतर कार्य प्रदर्शन का पैमाना माना जाता है। एक प्रसन्न व्यक्ति ना केवल अपने परिवार या समाज के लिए अपितु राष्ट्र के विकास के लिए भी उत्पादक माना जाता है।

दरअसल खुशहाली पाठ्यक्रम के तहत युवाओं को आभासी दुनिया से बाहर निकल कर वास्तविक दुनिया में घुलने-मिलने, शिक्षक और दोस्तों के साथ अपनी भावनाओं को साझा करने और व्यवहार में सकारात्मक प्रवृत्ति विकसित करने का अवसर दिया जाता है। इसमें समग्र चिंतन, योग, ध्यान, मनोरंजन आधारित गतिविधियों सहित व्यावहारिक कुशलता पर भी खासा ध्यान दिया जाता है। खुशनुमा माहौल, दोस्तों और सहयोगियों का सहयोगात्मक रवैया और सकारात्मक सोच व्यक्ति को अवसाद के क्षणों से निकालने के कुछ कारगर कदम माने जाते हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम और शैक्षिक फ्रेमवर्क में सभी स्कूलों में हैप्पीनेस कैरिकुलम को समवेत रूप से स्वीकारने संबंधी दिशानिर्देश जारी किए हैं।

परंपरागत शिक्षा से उलट स्कूलों की शिक्षा अपने भारी-भरकम पाठ्यक्रम और मोटे किताबों से छात्रों के नाजुक मन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है। पाठ्यक्रम के बोझ से उनका बचपन असमय कहीं खो सा गया है। एकरस और उबाऊ शिक्षा पद्धति के प्रभाव में उनकी स्वाभाविक मनोदशा गायब हो रही है। बचपन स्कूली परिक्षाओं, परियोजनाओं और कक्षा कार्यों की भारी-भरकम बोझ की मार झेल रहा है। शिक्षकों और अभिभावकों का प्रतिस्पर्धात्मक दबाव छात्रों से उनका सहज बचपन छीन रहा है। खेल-कूद और अन्य रचनात्मक गतिविधियों के समय को भारी सिलेबस की खानापूर्ति के नाम पर सिमेटा जा रहा है। अव्यावहारिक सिलेबस ने छात्रों के आस-पास अवसाद, चिड़चिड़ेपन और तनाव का एक ऐसा संजाल खड़ा कर दिया है जो अभेद्य किले के रूप में तब्दील हो चुका है। तनाव के इस किले में सेंध लगाने की आवश्यकता है। जाहिर है हैप्पीनेस कैरिकुलम एक शस्त्र की तरह काम करेगा जो अवसाद और तनाव के मजबूत किले को भेदकर एक उज्ज्वल भविष्य की नींव तैयार करेगा।

सकारात्मक परिणाम : देश के जिन राज्यों ने इसे स्कूली पाठ्यक्रम में तरजीह दी है वहां से सकारात्मक नतीजे सामने आ रहे हैं। अभिभावक खुलकर इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि खुशी पाठ्यक्रम के चलते उनके बच्चों में बदलाव आ रहे हैं। छात्रों पर शिक्षकों और अभिभावकों, दोनों ओर से बढ़ते अंकों के दबाव से निपटने में यह पाठ्यक्रम एक महती भूमिका अदा कर सकता है। स्पष्ट है कि छात्र इसके जरिये ये सीख पाएंगे कि जीवन सिर्फ अंकों की दौड़ नहीं, बल्कि अनुभवों से सीखने की एक निमित्त कला है। एक अवसाद मुक्त पीढ़ी तैयार करने की दिशा में शिक्षा के बुनियादी स्तरों पर प्रसन्नता पाठ्यक्रम को लागू करना ही होगा जिससे छात्रों में खुश रहने की प्रवृत्ति आसानी से जड़ जमा सके। वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ते तनाव, हताशा, कुंठा और आक्रामकता ने स्कूलों में हैप्पीनेस पाठ्यक्रम को समवेत रूप से स्वीकारने पर बल दिया है।

जीवन में आनेवाली चुनौतियों से लड़ने में सक्षम यह टूल न केवल संकटग्रस्त परिस्थितियों से उबारने में सहायक होगी, अपितु मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी नौनिहालों के हक में होगी। मानसिक और शारीरिक गतिविधियों पर आधारित यह पाठ्यक्रम समग्र चिंतन परंपरा और ध्यान शैली पर केंद्रित है जिसके जरिये बच्चे एक सुनहरे कल और समुन्नत भविष्य की ओर कदम बढ़ा सकेंगे, क्योंकि खुशहाली में ही खिलखिलाता बचपन छिपा है जो एक खुशनुमा राष्ट्र की मजबूत आधारशिला बन सकता है।

आमतौर पर बोर्ड परीक्षा शुरू होने से पहले बड़ी संख्या में छात्रों में अनेक कारणों से तनाव बढ़ जाता है। अभिभावक भी कई बार पसोपेश में रहते हैं। कई बार छात्र गलत कदम भी उठा लेते हैं। इसका एक बड़ा कारण परीक्षा में आने वाले अंकों और भविष्य में करियर को लेकर होता है। ऐसे में हैपिनेस पाठ्यक्रम के जरिये छात्रों में तनाव को कम किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि छात्रों को उनके स्वाभाविक रूप में रहने दिया जाए और उम्र के हिसाब से मानसिक बोझ को अधिक नहीं बढ़ाया जाए।

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