[हर्ष वी पंत]। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य बहुत तेजी से बदलता है। उसके अनुरूप अपनी नीतियों में फेरबदल करना भी आवश्यक हो जाता है। इसके लिए पर्याप्त लचीलेपन की आवश्यकता होती है। अतीत में भारतीय विदेश नीति में इसका एक प्रकार से अभाव दिखा, लेकिन मोदी सरकार की विदेश नीति व्यावहारिक मोर्चे पर पूरी तरह पारंगत दिखती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के आस-पड़ोस में अक्सर अस्थिरता हावी रही। इस कारण भारत का रवैया भी प्राय: प्रतिक्रियात्मक रहा, परंतु मोदी सरकार में इस रीति-नीति में बदलाव आया है। प्रधानमंत्री मोदी की विदेश नीति में पड़ोसियों को प्राथमिकता देने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें इन देशों को लेकर भारत की दृष्टि बदली है। विदेश नीति में आया यह बदलाव उपयुक्त एवं तार्किक है, क्योंकि सदा परिवर्तनशील विदेश नीति को किसी एक लकीर या सांचे के हिसाब से चलाया भी नहीं जा सकता। प्रत्येक मामले के हिसाब से अलग पत्ते चलने होंगे। तभी राष्ट्रीय हितों की पूर्ति संभव हो सकेगी। मोदी सरकार विदेश नीति की इसी व्यावहारिक राह पर चल रही है। हालिया कई मिसालें इसकी पुष्टि करती हैं।

कोरोना काल में अपने पहले विदेश दौरे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते दिनों बांग्लादेश गए। इस अवसर पर बांग्लादेश की मुक्ति के मसीहा शेख मुजीबुर्रहमान की जन्मशती से जुड़े कार्यक्रम पिछले वर्ष ही आयोजित होने थे, लेकिन कोरोना लहर एवं कहर के कारण रद हो गए थे। प्रधानमंत्री मोदी चाहते तो इस बार भी वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से संबंधित आयोजन में सम्मिलित हो सकते थे, मगर उन्होंने प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व का निर्णय किया। इस यात्रा के माध्यम से उन्होंने दर्शाया कि भारत के लिए उसके पड़ोसी कितने अहम हैं। इससे पहले भी अपने प्रथम शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सहित दक्षेस के सभी नेताओं को आमंत्रित किया था। इतना ही नहीं अपने पहले विदेश दौर के लिए उन्होंने भूटान को चुना तो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद वह पहली विदेश यात्रा पर मालदीव गए। 

म्यांमार में सैन्य सत्ता प्रदर्शनकारियों से बहुत सख्ती से निपट रही

हमारे पड़ोस में इन दिनों म्यांमार बहुत अशांत है। वहां लोकतांत्रिक सरकार को अपदस्थ कर सैन्य शासकों ने फिर से कमान संभाल ली है। देश में लोकतंत्र की पुनस्र्थापना के लिए विरोध-प्रदर्शन चल रहे हैं। सैन्य सत्ता प्रदर्शनकारियों से बहुत सख्ती से निपट रही है। एक आकलन के अनुसार इस विरोध के कारण अब तक म्यांमार के 500 से अधिक नागरिक मारे जा चुके हैं। पश्चिमी देश म्यांमार पर दबाव बना रहे हैं। उसे आर्थिक एवं अन्य किस्म के प्रतिबंधों का डर दिखाया जा रहा है। भारत पर भी उनके इस अभियान में शामिल होने का दबाव है, लेकिन भारत अभी तक न केवल उससे बचने में सफल रहा है, बल्कि अपने हितों को देखते हुए उसने व्यावहारिक रणनीति का परिचय भी दिया है।

म्यांमार में नागरिकों की आकांक्षाओं का रखा जाए ख्याल: भारत

भारत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि म्यांमार में नागरिकों की आकांक्षाओं का ख्याल रखा जाए। साथ ही भारत म्यांमार में स्थिरता कायम रखने और वहां के आंतरिक मामलों में दखल न देने का पक्षधर भी है। यह दोहरी रणनीति भारत के व्यापक हितों के अनुरूप ही है। दरअसल पश्चिम के जो देश लोकतंत्र की दुहाई देकर यह दबाव बढ़ा रहे हैं, उनकी भू-सामरिक स्थिति भारत से अलग है। उनमें से किसी की सीमा म्यांमार से नहीं लगती, परंतु भारत उससे सीमा रेखा साझा करता है, जो खासी संवेदनशील भी है। विशेषकर भारत के पूर्वोत्तर में अलगाववाद की चुनौती से निपटने में म्यांमार की सेना ने हमेशा भारत का सहयोग किया है। भारत ने भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद म्यांमार के राजनीतिक नेतृत्व के अलावा सैन्य नेतृत्व के साथ भी अपने संवाद की धाराएं खुली रखीं।

भारत की एक्ट ईस्ट नीति के लिए म्यांमार भारत का प्रवेश द्वार

चीन को लेकर भी म्यांमार को अपने पाले में रखना भारत के लिए आवश्यक है। इतना ही नहीं भारत की एक्ट ईस्ट नीति के लिए म्यांमार भारत का प्रवेश द्वार है। बिम्सटेक में भी म्यांमार की खासी महत्ता है। साथ ही म्यांमार से शरणार्थियों की समस्या को देखते हुए भारत को खासा सतर्क रहना है और इस मामले में वह एहतियात भी बरत रहा है। स्वाभाविक है कि अपने व्यापक हितों को देखते हुए भारत म्यांमार को कुपित करने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में म्यांमार को लेकर उसकी यह संतुलित नीति न केवल उचित है, बल्कि उसे उन पश्चिमी देशों को भी समझाना होगा कि वे म्यांमार के खिलाफ कोई सख्त कदम उठाने से परहेज कर कोई मध्यमार्ग निकालने का प्रयत्न करें। म्यांमार पर पश्चिमी प्रतिबंधों का यही परिणाम होगा कि उस पर चीन का प्रभाव और बढ़ेगा। 

श्रीलंका का परोक्ष समर्थन कर भारत सरकार ने राष्ट्रहित में उठाया कदम

देश के पूर्वी हिस्से से धुर दक्षिण का रुख करें तो श्रीलंका में इस समय स्थिरता तो कायम है, लेकिन उसका अतीत वर्तमान में भी पीछा नहीं छोड़ रहा। उसके छींटे भारत पर भी पड़ रहे हैं। बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में युद्ध अपराधों को लेकर श्रीलंका पर आए एक प्रस्ताव से भारत ने अनुपस्थित रहना ही मुनासिब समझा। देश में एक वर्ग ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सरकार पर तमिलों के साथ विश्वासघात के आरोप तक लगाए गए। ऐसे आरोप लगाने वाले भूल गए कि श्रीलंका के साथ भारत के द्विपक्षीय रिश्तों का एक अहम आधार इस पड़ोसी देश का वह अनुच्छेद 13 ही है, जिसमें श्रीलंका सरकार को तमिल सहित देश के अन्य अल्पसंख्यकों के व्यापक अधिकारों को सुरक्षित रखना सुनिश्चित करना है। ऐसे में हालिया मामले में श्रीलंका का परोक्ष समर्थन कर भारत सरकार ने राष्ट्रहित में ही कदम उठाया है, क्योंर्कि हिंद महासागर में श्रीलंका जैसा साथी हमारे लिए अत्यंत उपयोगी एवं अहम है। इससे भारत श्रीलंका को यह संदेश देने में सफल रहा है कि घरेलू राजनीति के जोखिमों की परवाह किए बिना भी वह मित्रों की मदद में पीछे नहीं रहता।

वास्तव में राष्ट्रहित से जुड़े ऐसे मसलों पर राजनीतिक वर्ग में एक आमसहमति होनी चाहिए, लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो सका। श्रीलंका को लेकर तमिलों के मसले और प्रधानमंत्री की हालिया बांग्लादेश यात्रा को भी संकीर्ण राजनीतिक दृष्टि से देखने का प्रयास किया गया। इससे राष्ट्र के दीर्घकालिक हितों को ही आघात पहुंचता है। अच्छी बात यह रही कि मोदी सरकार ने ऐसे दबावों को दरकिनार करते हुए व्यावहारिक विदेश नीति की राह पर चलने को वरीयता दी। अफगानिस्तान और पाकिस्तान को लेकर उसके नजरिये में भी यह झलकता है।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं)

[लेखक के निजी विचार हैं]