[बिंदू डालमिया]। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी भाजपा विरोध का कोई भी मौका छोड़ नहीं रही हैं। उनके रुख-रवैये से यही लगता है कि वह मोदी विरोध के मामले में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से आगे दिखना चाह रही हैं। कांग्रेस ने जैसे ही राफेल सौदे को चुनावी मसला बनाने का एलान किया, ममता बनर्जी ने भाजपा हटाओ अभियान शुरू करने की घोषणा कर दी। दरअसल लोकसभा में जब विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया तो सरकार को सदन में मौजूद 451 सांसदों में से 326 का समर्थन मिला। इस नतीजे ने जहां सत्तापक्ष को आत्मविश्वास दिया वहीं विपक्ष की अगुआई करने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी की जमीन को कमजोर दिखाने का काम किया। यह इससे भी साबित होता है कि कांग्रेस ने उन्हें पीएम प्रत्याशी के रूप में पेश करने के बाद अपने कदम पीछे खींच लिए।

यह भी उल्लेखनीय है कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कोई अहमियत देने के लिए तैयार नहीं। यह सवाल भी उभर रहा है कि यदि सपा-बसपा, राजद, तृणमूल कांग्रेस आदि अपने गढ़ में बेहतर प्रदर्शन करती हैं तो फिर वे राहुल को अपना नेता क्यों स्वीकार करें? विपक्षी दल यह भी महसूस कर रहे हैं कि अगर आम चुनाव में मोदी बनाम राहुल की स्थिति बनती है तो इससे भाजपा को आसानी होगी। ऐसे में भाजपा को परिवारवाद से लेकर कांग्रेस के 60 सालों के शासन की विफलताओं को लेकर घेरने में आसानी होगी, लेकिन यदि मुकाबला मोदी बनाम ममता के बीच होता है तो ममता को भाजपा पर हमला करने में आसानी होगी। वह मोदी सरकार पर राज्यों की अनदेखी करने और बंगाल की उपेक्षा करने, सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग करने जैसे आरोप लगाकर खुद को केंद्र से पीड़ित और परेशान बता सकती हैं। चूंकि फिलहाल उनका जनाधार मजबूत नजर आता है इसलिए यदि वह पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से अधिकतर सीटों पर जीत हासिल कर लेती हैं तो खंडित जनादेश की स्थिति में संघीय मोर्चे की अगुआई करते हुए खुद को प्रधानमंत्री का प्रबल दावेदार बता सकती हैं।

ममता बनर्जी मोदी विरोधी अभियान में राहुल गांधी और साथ ही मायावती से कहीं बेहतर नेता के रूप में खुद को सामने ला सकती हैं। यह बात भी उनके पक्ष में जाती है कि वह राहुल गांधी, अखिलेश यादव या तेजस्वी यादव की तरह किसी राजनीति घराने से नहीं हैं। उन पर परिवारवाद के आरोप भी नहीं मढ़े जा सकते। राजनीति में उनका कोई वैसा गॉडफादर भी नहीं जैसे मायावती या जयललिता के रहे। उनकी लड़ाकू शैली मोदी और शाह पर भारी भी पड़ सकती है। वह मोदी की ही तरह साधारण पृष्ठभूमि से हैं। वह जमीनी नेता भी हैं। इसके अलावा वह राहुल के उलट 24 घंटे केवल राजनीतिज्ञ ही नजर आती हैं, लेकिन सवाल है कि क्या इतने भर से वह मोदी के सामने चुनौती पेश कर सकती हैं? एक तो वह हिंदी में दक्ष नहीं और दूसरे उनके शासन की शैली विवादों में है। बंगाल में अपराध बढ़ रहे हैं और माफिया टैक्स के मामले भी सामने आ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस के लोगों का वैसा ही सिंडिकेट राज कायम हो गया है जैसा एक समय वाम दल के लोगों का था। वह विकास का कोई वैकल्पिक मॉडल भी पेश नहीं कर सकी हैं। बंगाल में पर्याप्त निवेश नहीं हो रहा है। फिलहाल बंगाल कर्ज में डूबे राज्यों में सबसे आगे है।

ममता की सेक्युलर छवि भी उनके लिए समस्या बन सकती है। वह राज्य की 28-30 फीसद मुस्लिम आबादी के वोट हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार दिखती हैं। जाहिर है अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की नीति उन पर भारी पड़ सकती है। ममता विपक्ष की राजनीति में राहुल को चुनौती दे सकती हैं, लेकिन तभी जब अन्य विपक्षी दल उनके पीछे खुलकर खड़े होने के लिए तैयार हों। फिलहाल वे किसी के पीछे खड़े होते नहीं दिख रहे हैं। यह भी ध्यान रहे कि मायावती भी पीएम पद के लिए अपनी दावेदारी पेश करती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि विपक्षी नेताओं की ओर से ऐसे बयान अधिक आ रहे हैं कि नेता का चयन चुनाव बाद होगा। कुल मिलाकर यह कहना अभी भी कठिन है कि विपक्ष पीएम पद का कोई चेहरा पेश कर सकेगा या नहीं?