अवधेश कुमार। लोकसभा के चुनावी परिदृश्य का मोटा-मोटा आकलन करें तो राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में राजग और दूसरी ओर कांग्रेस के नेतृत्व वाला आइएनडीआइए है। इनके बीच गुणात्मक अंतर हैं। कुछ राज्यों को छोड़ दें तो राजग का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार है और एक बड़ी पार्टी भाजपा के पास इसका नेतृत्व है। वह संगठित है तथा उसका एक घोषित नेता है।

दूसरी ओर आइएनडीआइए का राष्ट्रीय स्तर पर कोई स्वरूप नहीं है, न कोई नेता और न कोई एक ढांचा है। अलग-अलग राज्यों में इसका स्वरूप भी अलग है। राजग की विशेषता यह है कि इसमें आइएनडीआइए के कई दल स्वयं आए हैं या इससे बाहर के दलों ने भी भाजपा से हाथ मिलाने की खुद पहल की है।

उदाहरण के लिए बिहार में नीतीश कुमार, उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल, महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का अजीत पवार धड़ा और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू ने स्वयं भाजपा के साथ गठबंधन करने को लेकर पहल की है। इसके विपरीत आइएनडीआइए को पहले तो पार्टियों और नेताओं को साथ लाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। बाद में नेताओं में उसे छोड़कर जाने की प्रवृत्ति दिखी। आज की स्थिति में आइएनडीआइए बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली में कुछ दिखाई देता है। दोनों पक्षों की इस स्थिति से हम चुनाव नतीजों का अनुमान लगा सकते हैं।

वैसे चुनावों में दलों या गठबंधनों की कुल अंकगणितीय ताकत, संपूर्ण देश का परिवेश, सत्तारूढ़ पार्टी या गठजोड़ तथा विरोधियों द्वारा उठाए गए मुद्दे, चुनाव पूर्व के कुछ महीनों में मतदाताओं को प्रभावित करने वाली घटनाएं और नेतृत्व का चेहरा ही मतदान में मुख्य भूमिका निभाते हैं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 37.36 प्रतिशत मत प्राप्त किया था और राजग को कुल मिलाकर 45 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। वर्तमान गठबंधनों का ऐसा निश्चित आंकड़ा निकलना कठिन है, क्योंकि शिवसेना, राकांपा टूट चुकी हैं तथा कई दल ऐसे हैं जिन्होंने पिछली

बार लोकसभा चुनाव में हिस्सा नहीं लिया था। इसके बावजूद यदि हम पिछले चुनाव के आंकड़े एवं उनके साथ वर्तमान सांसदों एवं विधायकों को मिलाकर देखें तो राजग का मत 50 प्रतिशत से ऊपर चला जाता है। ध्यान रखिए 1984 में कांग्रेस को 46.6 प्रतिशत मत मिले थे और उसे 414 सीटें प्राप्त हुई थीं। आइएनडीआइए का आंकड़ा निकालना ज्यादा कठिन है।

अगर वाममोर्चा बंगाल में कांग्रेस से गठबंधन करता है और केरल में खिलाफ लड़ता है तो उनके मतों को कैसे जोड़ा जाए। वर्तमान राजनीतिक स्थितियों के आधार पर गणना करें तो यह कुल मिलाकर 30-31 प्रतिशत से ऊपर नहीं जाता। दोनों गठबंधनों की शुरुआत ही इतने अंतर से हो रही है। इतने बड़े अंतर की तभी भरपाई हो सकती है, जब केंद्रीय सत्ता के विरुद्ध जनता में व्यापक आक्रोश और उसे उखाड़ फेंकने की प्रबल भावना हो, लेकिन अभी तो मोदी सरकार को लेकर ऐसा कुछ नजर नहीं आता। आइएनडीआइए में एकता भी नजर नहीं आती। ऐसी स्थिति में वह एकजुट राजग से कैसे मुकाबला करेगा?

वर्तमान चुनाव में मुख्य मुद्दे क्या हैं? पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अपने मंत्रिमंडल की अंतिम बैठक में वर्ष 2047 का दृष्टिकोण पत्र प्रस्तुत किया, अगले पांच वर्षों की कार्ययोजना दी तथा सरकार में लौटने पर 100 दिनों में क्या करना है, यह भी अधिकारियों और मंत्रियों को बताया। चुनाव के पूर्व की इस बैठक के राजनीतिक मकसद होंगे। इससे दो संदेश निकले। पहला, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा और राजग लोकसभा चुनाव में विजय को लेकर आश्वस्त हैं, इसलिए उनका व्यवहार उसी के अनुसार है।

दूसरा संदेश यह गया है कि हम देश को 2047 तक विकसित बनाने के लिए संकल्पबद्ध हैं तथा चुनाव में रहते हुए भी लगातार उस लक्ष्य पर काम कर रहे हैं। हालांकि कुछ कमियां दिखीं, परंतु आम लोगों तक सरकार की योजनाएं पहुंची हैं। उन्हें महसूस हुआ है कि पूर्व में सामाजिक न्याय और पिछड़ों-दलितों का नारा लगाने वाली सरकारों से मोदी सरकार उनके लिए ज्यादा अनुकूल साबित हुई है। इसलिए विकास, जनकल्याण आदि मुद्दों पर विपक्ष राजग को चुनौती देने की स्थिति में नहीं। उनकी ओर से कोई दूरगामी विजन भी देश के समक्ष ऐसा नहीं रखा गया, जिससे वे स्वयं को बेहतर साबित कर सकें।

रामलला की प्राण प्रतिष्ठा का असर संपूर्ण देश में व्याप्त है। विपक्ष के नेताओं द्वारा प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण ठुकराना लोगों को नहीं भाया। वस्तुत: हिंदुत्व और सनातन इस चुनाव में और ज्यादा सशक्त मुद्दा बन चुका है। केंद्र एवं भाजपा की राज्य सरकारों की नीतियों और वक्तव्यों से हिंदुत्व, भारतीय संस्कृति और भारतीय राष्ट्रभाव का मनोविज्ञान ज्यादा प्रखर और सशक्त हुआ है। द्रमुक नेताओं द्वारा सनातन के विरुद्ध वक्तव्य तमिलनाडु तक के परिवेश में आए बदलाव का उदाहरण है। देश का बहुमत हिंदुत्व और राम मंदिर को लेकर सकारात्मक है। इसके विरुद्ध की गईं टिप्पणियां केवल उस राज्य में ही नहीं, दूसरे राज्यों में भी मतदाताओं के एक वर्ग को आइएनडीआइए के विरुद्ध जाने के लिए प्रेरित कर सकती हैं।

भाजपा के विरुद्ध भी समर्थकों एवं कार्यकर्ताओं के एक वर्ग में अपनी अनदेखी, अलग-अलग दलों से लोगों को लिए जाने, उन्हें महत्व देने आदि को लेकर असंतोष गहराता दिख रहा है, लेकिन मूल मुद्दे उनके अंतर्निहित असंतोष पर भारी पड़ते हैं। कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच यही भाव पैदा होता है कि अगर सरकार चली गई तो इसे हिंदुत्व, हमारी संस्कृति और राष्ट्रभाव के समर्थक नेताओं और राजनीतिक दलों की पराजय के रूप में देखा जाएगा। यह भाव तमाम असंतोषों के बावजूद भाजपा के पक्ष में जा रहा है। नेतृत्व के चेहरे को लेकर नरेन्द्र मोदी के समक्ष विपक्ष का कोई एक नेता या नेताओं का समूह लोकप्रियता तथा जनता की विश्वसनीयता के मामले में टिकता नहीं दिख रहा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)