यदि सभी पक्ष और विपक्ष के सांसद मिलकर मानसून सत्र में जो हुआ उसके लिए राष्ट्र से क्षमा मांग लें तो यह अद्भुत ऐतिहासिक अवसर होगा और भारतीय जनतंत्र की जड़ें अभूतपूर्व शक्ति प्राप्त करेंगी। क्या वे ऐसा नैतिक साहस दिखा सकेंगे? राजनीति अपनी गतिशीलता सदा कायम रखती है। इस समय सभी बिहार के चुनाव में लगे हैं। मानसून सत्र का विश्लेषण तथा उस दूरगामी परिणामों तथा प्रभावों पर चर्चा करने का समय न उनके पास है न मीडिया के पास। संभवत: राष्ट्र के लिए यह बिहार चुनावों से अधिक महत्वपूर्ण रहेगा। सभी जानते और मानते हैं कि सामान्यत: परिवार में वरिष्ठ सदस्यों से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है जो छोटों के लिए अनुकरणीय हो। यह अपेक्षा भी सामान्य ही मानी जाएगी कि भारत की संसद में ऐसा कोई प्रकरण उत्पन्न न हो जो बच्चों और युवाओं को अस्वीकार्य व्यवहार तथा मूल्यों की ओर प्रेरित करे। मानसून सत्र में जब माननीय सांसद अध्यक्ष के सामने प्ले कार्ड लहरा रहे थे तब वे करोड़ों संवेदनशील भारतीयों के मूल्यों पर प्रहार कर उन्हें ऐसे संदेश दे रहे थे जिनके दुष्परिणाम पीढिय़ों तक अपना प्रभाव डालते रहेंगे।

यदि सांसद अध्यक्ष का अपमान कर सकता है तो एक युवा अपने प्राचार्य का क्यों नहीं। वित्तमंत्री की घोषणा के साथ ही संसद के मानसून सत्र के विस्तार की संभावना खत्म हो गई और इसी के साथ सत्र के दौरान जो कुछ खराब हुआ उसे ठीक करने के आसार भी समाप्त हो गए, लेकिन क्या इस सत्र को भुलाया जा सकता है? क्या हम यह भूल जाएं कि जब गुरुदासपुर में भारतीय जांबाज आक्रमणकारियों से लोहा ले रहे थे, देश पर कुर्बान हो रहे थे, कुछ सांसद उससे बेखबर स्तरहीन दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाए, उन्होंने अपने से संख्याबल में कई गुना अधिक बाकी सब को भी अपना कत्र्तव्य निभाने का मौका ही नहीं दिया। वे शायद भूल गए कि इस सत्र के दौरान जगह-जगह लोगों ने बहुत कुछ याद किया, मगर सांसद शायद यह भी याद नहीं रख सके कि उन्हें संसद में पहुंचने का अवसर उन स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदानों के कारण ही नसीब हुआ है जिनकी आत्मा संसद की स्वयं सांसदों द्वारा की जा रही अवमानना को देख कर कितनी दुखी होगी। वे यह भी भूल गए कि आजादी को बचाए रखने में लगातार खून देना ही पड़ता है और गुरुदासपुर में यही हो रहा था। एक शहीद का बेटा देश के लिए अपने सहकर्मियों के साथ प्राण न्योछावर कर रहा था ताकि स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद आया जनतंत्र सुचारु रूप से कार्य कर सके और उसके लिए आवश्यक है कि देश की संसद सुचारु रूप से चलती रहे। वे इसलिए जीवन न्योछावर कर रहे थे ताकि आक्रमणकारियों को भारत की आंतरिक शक्ति और क्षमता का परिचय सही ढंग से मिल सके। गांधी की विरासत को पूरी तरह बिसरा चुके, मगर उसका दम भरने वाले लोग कभी तो सोचें कि जो दृश्य उन्होंने भूटान से आए संसदीय शिष्टमंडल के समक्ष प्रस्तुत किया उसने भारत और संसद की गरिमा को कितना नुकसान पहुंचाया।

यदि देश की एकता तथा भारत की प्रभुता और अखंडता विघ्न-संतोषी दलों और उनके नेताओं के मन-मानस में सर्वोपरि होती तो गुरुदासपुर में भारत पर हुए एक और आक्रमण के बाद वे संसद सत्र में व्यवधान नहीं डालते। यदि राजनीति में नैतिक मूल्यों का भारी क्षरण न हुआ होता तो कम से कम विरोध करने वालों में से कुछ-एक तो नैतिक साहस दिखाते और राष्ट्र की एकता का वह स्वरूप प्रस्तुत करते जो आक्रमणकारियों के हौसले पस्त कर देता। समस्या यह है कि अधिकांश चयनित नेतृत्व जनता से लगातार दूर होता जा रहा है। अपवादों को छोड़ दें तो संसद में जो अधिकांश चयनित प्रतिनिधि आते हैं वे अपने दल में शीर्ष नेतृत्व से बनाए घनिष्ठ संबंधों के कारण ही टिकट पाते हैं। वे काले धन का उपयोग कर जीतते हैं। उन लोगों की संख्या कितनी होगी जिन्होंने अपने क्षेत्र में दो-तीन दशक जनसेवा की हो और तब जनता के आग्रह पर उन्हें टिकट दिया गया हो। कुल मिलाकर जिस ढंग से चुनाव जीते जाते हैं उसमें यह बात बेमानी लगती है कि सभी सांसद संविधान की मूल भावना को समझेंगे, अंतर्निहित करेंगे और तदनुसार ही कार्य करेंगे। इसे आसानी से समझा जा सकता है यदि 1952 से 1962 के दौरान संसद के कार्यकलाप तथा स्तर का पिछले दस वर्षों के कार्यकलापों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। संसद के कार्यकलाप में जिस सम्मान तथा आचार-विचार और व्यवहार में उत्तरदायित्व बोध की उपस्थिति के उदाहरण प्रारंभ में रखे गए थे उनसे आज के अनेक सांसद पूरी तरह या तो अनभिज्ञ हैं या वे उनका महत्व समझ पाने की क्षमता से दूर हैं।

यह दुर्भाग्य की स्थिति है। मीडिया में अनेक विचारकों ने जनसामान्य को बताया कि जो दल संसद सत्र में अस्वीकार्य व्यवधान डाल रहे थे उनके भी अधिकांश सांसद उसके पक्ष में नहीं थे, मगर नेतृत्व की जिद के सामने कुछ कह नहीं पा रहे थे। क्या एक सांसद को इतना निरीह होना शोभा देता है? उनसे तो अनुकरणीय साहस की अपेक्षा मेरे जैसे लोग आज भी करते हैं। दलगत अनुशासन राष्ट्रहित के ऊपर नहीं जा सकता है? संसद के कार्य कलाप में व्यवधान का प्रभाव किस पर पड़ा? किसी भी सांसद के वेतन-भत्तों तथा सुविधाओं पर तो कतई नहीं पड़ा। जो सैकड़ों करोड़ का अपव्यय हुआ वह तो मतदाताओं के मत्थे ही मढ़ा जाएगा। देश की गरिमा और उसकी प्रतिष्ठा पर जो आंच आई उसे यदि विरोध करने वाले समझ सकते तो यह सब होता ही नहीं। जो यह कहते नहीं थकते हैं कि विरोध करना उनका संवैधानिक अधिकार है, वे शायद गांधीजी के इन वाक्यों से कभी परिचित हो ही नहीं पाए किअधिकारों का सच्चा स्नोत कर्तव्य है। अगर हम सब अपने कर्तव्यों का पालन करें तो अधिकारों को खोजने बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। अगर अपने कर्तव्यों का पालन किए बिना हम अधिकारों के पीछे दौड़ते हैं तो वे मृगजल के समान हमसे दूर भागते हैं। उन्होंने यह भी कहा था किसी सुव्यवस्थित लोकतांत्रिक समाज में अराजकता या हड़तालों के लिए कोई अवकाश या मौका ही नहीं है। ऐसे समाज में न्याय प्राप्त करने के लिए काफी कानूनी साधन होते हैं। आज जिनके ऊपर लोकतांत्रिक व्यवस्था को और सुदृढ़ करने की जिम्मेदारी है और जो संसद में चयनित और निर्वाचित होकर गए हैं वे लाभान्वित होंगे यदि वे याद रखें कि बापू ने उन्हें एक मंत्र दिया है जो आत्म-निरीक्षण करने में अत्यंत सहायक हो सकता है। जन्मजात लोकतंत्रवादी जन्म से ही अनुशासन पालने वाला होता है। लोकतंत्र की भावना कुदरती तौर पर उसी में विकसित होती है, जो सामान्यत: समस्त मानवीय अथवा ईश्वरीय कानूनों को स्वेच्छा से पालने का आदी हो जाता है।

किसी सांसद को दूसरे सांसद के कार्य में विघ्न डालने का कोई हक नहीं है। कितना अच्छा होगा कि भविष्य में माननीय सांसद विरोध करने का नया तरीका अपनाएं वे विरोध के दिनों का वेतन-भत्ता प्रधानमंत्री के राहत कोष के लिए दान कर दिया करें। सत्तापक्ष के माननीय सांसद भी व्यर्थ गए दिनों का वेतन-भत्ता न लेकर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं।

[लेखक जगमोहन सिंह राजपूत, एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं]