सुरेंद्र किशोर। इस देश के एक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री कहा करते थे कि ‘फस्र्ट फैमिली को कभी टच नहीं किया जाना चाहिए।’ इसी तरह की बातें कई राज्यों में भी कही जाती थीं। अधिकतर राजनीतिक दल सत्ता में होते थे तो वे प्रतिपक्षी दलों के गुनाहों को आमतौर पर नजरअंदाज कर देते थे। तब माफी आम बात थी और सजा अपवाद। यह सिलसिला लंबे समय तक चला। वर्ष 2014 के बाद स्थिति बदल चुकी है। इसलिए गैर राजग दलों के अनेक नेतागण इन दिनों बड़ी कानूनी परेशानियां ङोल रहे हैं, क्योंकि उन्हें अपने बचाव का कोई उपाय नजर नहीं आ रहा है। अब माफी अपवाद है और सजा नियम। ऐसे में विरोधी नेताओं की जुबान तीखी होती जा रही है। मोदी की आलोचना करते-करते वे कभी देश की तो कभी संवैधानिक शासन व्यवस्था की ही आलोचना करने लगते हैं। दरअसल देश भ्रष्टाचार के प्रति सहनशीलता के दौर से निकल कर अब लगभग शून्य सहनशीलता के दौर में प्रवेश कर चुका है।

दुख की बात है कि देश में घोटालेबाजों को प्रोत्साहन देने की परंपरा आजादी के तत्काल बाद ही पड़ गई थी। वीके कृष्ण मेनन पर 1949 में जीप घोटाले का गंभीर आरोप लगा। जांच कमेटी ने उन्हें सरसरी तौर पर दोषी माना। इसके बावजूद तत्कालीन केंद्र सरकार ने 30 सितंबर, 1955 को संसद में यह घोषणा कर दी कि जीप घोटाले के मामले को बंद कर दिया गया है। हद तो तब हो गई जब फरवरी, 1956 को कृष्ण मेनन केंद्रीय मंत्री बना दिए गए। जीप घोटाला पिछली सदी के अंतिम दशक के यूरिया घोटाला के समान ही था। जीप घोटाले के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को सजा मिली होती तो शायद यूरिया घोटाला करने की हिम्मत इस देश में किसी को नहीं होती। एक घोटाले को नजरअंदाज करने के कारण दूसरे घोटाले होते गए। हर अगला घोटाला पिछले घोटाले से बड़ा होता रहा। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से एक बार जब यह कहा गया कि ‘आपके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों के खिलाफ शिकायतें आ रही हैं। इसे देखते हुए कोई ऐसी एजेंसी बना दें, जो मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करे।’ इस पर नेहरू का जवाब था कि इससे हमारे मंत्रियों में डर बैठ जाएगा। हालांकि एक बार उन्होंने यह भी कहा था कि भ्रष्टाचारियों को नजदीक के लैंप पोस्ट से लटका दिया जाना चाहिए, पर यह बात सिर्फ भाषण तक ही रह गई। उन्हीं दिनों राज्यों में भी भ्रष्टाचार ने सिर उठाना शुरू कर दिया था। शिकायत मिलने पर महात्मा गांधी ने बिहार के एक मंत्री को हटाने की सलाह दी, पर वह नहीं मानी गई। सरदार पटेल ने आंध्र के एक बड़े नेता को लिखा कि आपने जो थैलियां वसूली हैं, उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी को सौंप दीजिए। इसके बावजूद उस नेता को मुख्यमंत्री बना दिया गया। जब भ्रष्टाचारियों को यह संदेश गया कि भ्रष्टाचार कम खतरे और अधिक मुनाफे का धंधा है तो फिर वे बेलगाम होने ही थे। जीप घोटाले के बाद भी नेहरू शासन काल में कई छोटे-बड़े घोटाले हुए। किसी को भी सजा मिली, ऐसा किसी को याद नहीं है।

1955 में सिंचाई के मद में तत्कालीन केंद्र सरकार ने राज्यों को कुल 29 हजार करोड़ रुपये दिए। इसमें से एक बड़ी राशि पंजाब को मिली। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने उन पैसों से सिंचाई क्षमता का निर्माण अवश्य किया, पर उसमें भारी कमीशनबाजी भी हुई। यह भी नेहरू युग की बात है। कैरों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच हुई। जांच रिपोर्ट में यह अजीब बात कही गई कि कैरों के पुत्र एवं पत्नी ने पैसे जरूर बनाए, पर उसके लिए कैरों जिम्मेदार नहीं हैं। इसी तरह बिहार में छह कांग्रेसी मंत्रियों के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए 1967 में अय्यर आयोग बना। उसने सभी के खिलाफ कोई न कोई आरोप सही पाया, पर किसी नेता को सजा नहीं मिली। यदि तब भ्रष्ट तत्वों को सजा मिल गई होती तो अन्य भ्रष्टाचारी डरते।

राष्ट्रीय स्तर पर 1971 के बाद भ्रष्टाचार ने देश में संस्थागत रूप ग्रहण कर लिया। खुद पर भ्रष्टाचार के आरोपों के जवाब में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार तो दुनिया भर में है। सिर्फ भारत में ही नहीं है।’ पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी कहा था कि केंद्र सरकार के सौ पैसे में से सिर्फ 15 पैसे ही उन तक पहुंच पाते हैं, जिनके लिए वे पैसे दिल्ली से भेजे जाते हैं। हालांकि आज यह स्थिति बदली नजर आ रही है। अब योजनाओं का पूरा पैसा लाभार्थियों को मिल रहा है। अब घोटालेबाज जान रहे हैं कि उन्हें कोई बचाने वाला नहीं है। सजाएं मिलनी शुरू हो गई हैं। बड़े-बड़े नेता जमानत पर हैं। किसी से ईडी पूछताछ कर रही है तो किसी से सीबीआइ। ऐसे नेताओं में प्रथम परिवार कहे जाने वाले परिवार के नेता भी शामिल हैं।

मोदी राज में अब कोई छूट मिलने की उम्मीद जाती रही। मोदी सरकार को एक और काम करना चाहिए। उसे वोहरा कमेटी की सिफारिशों को तार्किक परिणति तक पहुंचाना चाहिए। उसने अक्टूबर, 1993 को तत्कालीन केंद्र सरकार को प्रेषित अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘देश में अपराधियों, नेताओं और नौकरशाहों के साथ अन्य प्रभावशाली लोगों का एक गठजोड़ बन गया है। इस कारण वे बिना दंडित हुए अपनी गतिविधियां चलाते हैं।’ मोदी सरकार का मौजूदा कार्यकाल पूरा होने में अभी लगभग दो साल बाकी हैं। इसके साथ ही 2024 के आम चुनाव में उनके ही प्रधानमंत्री बनने के संकेत हैं। इसलिए मोदी सरकार को वोहरा कमेटी की रिपोर्ट पर काम करना चाहिए।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)