नई दिल्ली (संजय गुप्त)। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने, लेकिन बहुमत से दूर रहने के बाद कांग्रेस ने जिस तरह आनन-फानन जनता दल-सेक्युलर को समर्थन देने की घोषणा की, उसे देखते हुए बीएस येद्दयुरप्पा के नेतृत्व में सरकार गठन की संभावनाएं समाप्त सी हो गई थीं, लेकिन राज्यपाल ने उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाकर इन संभावनाओं को फिर उभार दिया था। उन्होंने येद्दयुरप्पा को न केवल सरकार गठन के लिए आमंत्रित किया, बल्कि उन्हें बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय भी दे दिया। चूंकि बहुमत परीक्षण के लिए जरूरत से ज्यादा समय दिया गया इसलिए इस आशंका को बल मिला कि उन्हें जोड़-तोड़ के लिए मौका दिया जा रहा है। कांग्रेस राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गई और वहां उसे राहत मिली। सुप्रीम कोर्ट ने येद्दयुरप्पा को 15 दिन के बजाय अगले 30 घंटों में बहुमत साबित करने को कहा। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से येद्दयुरप्पा का काम और कठिन हो गया। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने शक्ति परीक्षण के पूर्व एक भावुक भाषण देर त्यागपत्र देने की घोषणा की। विश्वास मत प्रस्ताव पेश करने के पहले ही येद्दयुरप्पा के त्यागपत्र की घोषणा काफी कुछ वैसी ही रही जैसे अटल बिहारी वाजपेयी ने 13 दिन तत सरकार चलाने के बाद की थी। येद्दयुरप्पा का इस्तीफा यह बताता है कि उनके पास इसके अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया था और उन दावों में कोई दम नहीं था कि उनके पास पर्याप्त संख्याबल है और वे आवश्य बहुमत जुटा लेंगे।

येद्दयुरप्पा के इस्तीफे के बाद जद-एस के नेतृत्व और कांग्रेस के समर्थन वाली सरकार का गठन चाहे जब हो, लेकिन ये दोनों दल भाजपा को अनैतिक और खुद को नैतिक नहीं करार दे सकते, क्योंकि सबको पता है कि चुनाव प्रचार के दौरान जहां कांग्रेस जद-एस को भाजपा की बी टीम बता रही थी वहीं जद-एस नेता यह कह रहे थे कि खंडित जनादेश की स्थिति में वे न तो कांग्रेस का साथ देंगे और न ही भाजपा का। चुनाव नतीजे आते ही वे एक हो गए। जो यह कह रहे हैं कि भाजपा ने बहुमत न होते हुए भी सरकार बनाने का दावा करके सही नहीं किया उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि कांग्रेस ने जद-एस को समर्थन देकर राजनीतिक अवसरवाद का परिचय दिया। क्या यह आदर्श स्थिति है कि तीसरे नंबर वाला दल दूसरे नंबर वाले दल के समर्थन से सरकार का नेतृत्व करे और पहले नंबर वाला दल विपक्ष में बैठे? अगर कांग्रेस और जद-एस को यही करना था तो फिर वे मिलकर चुनाव क्यों नहीं लड़े? क्या यह कहा जा सता है कि कर्नाटक का जनादेश इसके पक्ष में था कि कांग्रेस पिछले दरवाजे से फिर सत्ता में आ जाए? नि:संदेह ऐसा कुछ गोवा में हुआ था, लेकिन वहां सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी कांग्रेस जब तक सक्रियता दिखाती तब तक दूसरे नंबर पर आई भाजपा ने अन्य दलों से मिलकर सरकार गठन का दावा पेश कर दिया था। इसके बाद कांग्रेस ने सरकार गठन की कोशिश ही नहीं की। गोवा के विपरीत कर्नाटक में सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी भाजपा ने भी सरकार गठन का दावा पेश किया और कांग्रेस का समर्थन हासिल कर जद-एस ने भी। कांग्रेस अब यह कह सकती है कि कर्नाटक में लोकतंत्र की जीत हुई, इसकी वह अनदेखी नहीं कर सकती कि सुप्रीम कोर्ट ने सबसे बड़े दल को सरार गठन के लिए बुलाने के राज्यपाल के फैसले को एक तरह से सही करार देते हुए यह भी स्पष्ट किया कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में चुनाव बाद गठबंधन वाले दलों का दावा सबसे बड़े दल के बाद आएगा। सरारिया आयोग का भी यही मानना था और सुप्रीम कोर्ट एक अन्य फैसले में भी यह कह चुका है कि खंडित जनादेश में चुनाव बाद गठबंधन वाले दलों का सरकार गठन का दावा चुनाव पूर्व गठबंधन और सबसे बड़े दल के बाद आएगा।

सरारिया आयोग की सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि गठबंधन राजनीति के तौर-तरीके तय किए जाएं। अभी तो गठबंधन राजनीति के नाम पर मनमानी राजनीति की जा रही है और एक तरह से जनता के साथ छल किया जा रहा है। एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने और उस दौरान उन्हें जनता और लोकतंत्र का विरोधी बताने वाले दल जब चुनाव के बाद एकजुट हो जाते हैं तो इससे न केवल आम जनता खुद को ठगा हुआ महसूस करती है, बल्कि लोतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं का उपहास भी उड़ता है। कर्नाटक के राज्यपाल के फैसले को लेकर आसमान सिर पर उठाने वाली कांग्रेस इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि केंद्र में उसके शासन के दौरान राज्यपालों ने हीं अधिक मनमाने फैसले किए और उनके अनुचित फैसलों से पीड़ित राजनीतिक दलों को कहीं से और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट से भी राहत नहीं मिल सकी, क्योंकि तब न्यायिक सक्रियता का दौर नहीं था। यह एक तथ्य है कि कांग्रेस के शासनकाल में अकारण ही विरोधी दलों की सरकारें गिराई गईं और अनुच्छेद 356 का जमकर दुरुपयोग किया गया। यह काम दूसरे दलों ने भी किया है और इसका कारण यही है कि एक तो राजनीति में कोई भी उदाहरण पेश करने वाले काम नहीं करता और दूसरे खंडित जनादेश की हालत में राजनीति दलों को एक तरह से मनमानी करने की छूट मिल जाती है।

कर्नाटक में जद-एस और कांग्रेस की गठबंधन सरकार का रास्ता साफ हो जाने के बाद इसके आसार बढ़ गए हैं कि विपक्षी दल भाजपा का सामना करने के लिए नए सिरे से एकजुट होने की कोशिश करेंगे। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन इसके पहले उन्हें गठबंधन राजनीति के तौर-तरीके तय करने पर जोर देना चाहिए। यह इसलिए और आवश्यक है, क्योंकि संविधान इस बारे में स्पष्ट नहीं कि त्रिशंकु सदन की हालत में सरकार का गठन कैसे हो? लगता है हमारे संविधान निर्माता यह कल्पना ही नहीं कर सके कि एक समय ऐसा भी आएगा जब देश गठबंधन राजनीति के दौर से गुजरेगा।

अगर यह कहा जा रहा है कि गठबंधन राजनीति वक्त की मांग है तो फिर उसके कुछ नियम-कायदे बनने चाहिए। एक नियम यह हो सकता है कि चुनाव बाद गठबंधन के नियम कड़े किए जाएं और बिना न्यूनतम साझा कार्यक्रम परस्पर विरोधी दलों के तालमेल को मान्यता ही न दी जाए। ऐसे भी नियम बनाए जा सकते हैं कि यदि एक बार सरकार गठित हो जाए तो उसे एक निश्चित अवधि तक शासन करने का मौका मिले। इस अवधि के बाद सरकार के अल्पमत में आ जाने पर भी मध्यावधि चुनाव की नौबत न आने की व्यवस्था की जा सकती है। इसी तरह अल्पमत सरकाक को भी कुछ समय तक शासन करने का अवसर दिया जा सकता है। कम से कम यह तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए कि परस्पर विरोधी राजनीतिक दल चुनाव बाद न्यूनतम साझा कार्यक्रम का जिक्र किए बिना गठबंधन कर लें। राजनीतिक दलों को गठबंधन राजनीति के नाम पर ऐसी मनमानी करने की खुली छूट देना जनादेश के निरादर के अलावा और कुछ नहीं।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)