लाल टमाटर उगाने वाले किसानों के चेहरे पड़े पीले, ग्राहकों को दे रहे ऐसा विकल्प, सुनकर चौंक जाएंगे
आखिर में चर्चित बाल कविता ‘अहा टमाटर बड़े मजेदार’ की वह पंक्ति याद आ रही है कि ‘एक दिन इसको पतलू ने खाया मोटू को भी मार भगाया।’
मनोज कुमार झा। प्रदेश में खेती-किसानी को लेकर संवेदनशील दिखने वाले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूरे लॉकडाउन के दौरान खासकर कृषि क्षेत्र की लगातार सुध ली। धान और गन्ना उत्पादकों के लिए राजीव गांधी किसान न्याय योजना निश्चित रूप से राहत भरा कदम है। हालांकि इस योजना का लाभ धान और गन्ना उत्पादकों तक ही सीमित है। यह ठीक है कि प्रदेश में इन दोनों फसलों का रकबा भी अपेक्षाकृत ज्यादा है, फिर भी ऐसे तमाम इलाके हैं, जहां फल और सब्जियां भी बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं।
किसानों के चेहरे पीले क्यों पड़ गए हैं? लॉकडाउन के दौरान आवागमन बंद रहने के कारण किसानों को अपनी फसल औने-पौने भाव में अपने खेत, गांव या कस्बों में ही बेचनी पड़ी। कुछ जगह तो सब्जियां खेतों में ही सूखने या सड़ने के लिए छोड़ दी गईं। अभी ताजा मामला जशपुर के टमाटर किसानों का है, जिन्होंने आखिरकार मजबूर होकर अपनी फसल को कौड़ियों के भाव बेचना शुरू कर दिया है। यहां बस 10 रुपये दीजिए और खेतों से जितनी मर्जी उतना टमाटर तोड़कर ले जाइए। सवाल है कि लाल-लाल टमाटर उगाने वाले इन किसानों के चेहरे पीले क्यों पड़ गए हैं?
छोटा वर्ग सियासत के एजेंडे पर कैसे आए : जशपुर में टमाटर किसानों का यह 10 रुपये वाला उदासीन ऑफर चौंकाता जरूर है, लेकिन प्रदेश में सब्जी जैसी कच्ची फसल उगाने वाले किसानों की पीड़ा की झलक भी पेश करता है। दरअसल राज्य में सब्जी जैसी फसलों की कोई सुनियोजित भंडारण और विपणन व्यवस्था न होना समस्या की जड़ है। एक तो ऐसे किसानों की संख्या कम है और फिर इनका कोई एकीकृत संगठन भी नहीं है। इसके चलते इनकी आवाज ज्यादा से ज्यादा ब्लॉक या जिले की सरहद तक ही सिमटकर रह जाती है। सरकार या फिर विपक्षी पार्टियां भी इनकी ओर कम ही ध्यान देती हैं। प्रदेश में धान पर सियासी रोटियां चाहे जितनी भी सेंकी जाएं, अन्य फसल उगाने वाले किसान तो अभी सिस्टम के हाशिये पर ही हैं। सवाल है कि किसानों का यह अपेक्षाकृत छोटा वर्ग सियासत के एजेंडे पर कैसे आए।
घाटे की भरपाई का भार सरकार ने उठा लिया : इस दिशा में छत्तीसगढ़ को हरियाणा मॉडल पर विचार करना चाहिए। कुछ समय पहले तक हरियाणा में भी सब्जी उत्पादक कमोबेश ऐसे ही हालात में थे। कब फसल सड़ जाए, मंडी समितियां कब हाथ खड़े कर दें और रेट क्या मिले, ये सब रामभरोसे था। ऐसे किसानों के लिए भावांतर योजना बड़ी राहत लेकर आई। भावांतर मतलब भाव में अंतर। यदि किसानों को मंडी में घोषित न्यूनतम मूल्य से कम का रेट मिलता है तो मूल्य के अंतर की भरपाई सरकार करती है। किसानों को तो बस अपनी फसल का पंजीकरण भर कराना होता है। भावांतर योजना का सकारात्मक असर अभी लॉकडाउन के दौरान ही देखने को मिला। किसानों को मंडियों में फसल बेशक सस्ते में बेचनी पड़ी, पर घोषित न्यूनतम मूल्य के घाटे की भरपाई का भार सरकार ने उठा लिया।
सरकार ने तो बस समन्वय का काम किया : हालांकि हरियाणा में भावांतर योजना सफल होने का सबसे बड़ा कारण वहां जरूरी संसाधनों की पहले से ही मौजूदगी है। वहां की मंडी समितियां सक्रिय हैं और वहां पर्याप्त संख्या में शीतगृह भी मौजूद हैं। सरकार ने तो बस समन्वय का काम किया। बहरहाल भावांतर योजना लागू होने के बाद अब वहां के किसान अपनी फसल के सड़ने या खराब होने या फिर कम रेट मिलने की आशंका से एक हद तक दूर हैं। अब यदि हरियाणा के चश्मे से छत्तीसगढ़ को देखें तो यहां सबसे पहली जरूरत उत्पादक जिलों में शीतगृहों के निर्माण की होगी। सब्जी उत्पादकों को सरकारी स्तर से प्रोत्साहन और संरक्षण भी देना होगा। दुर्ग जिला सब्जी उत्पादन में पूरे प्रदेश का सिरमौर है।
बस्तर संभाग में इंद्रावती के करीब दो दर्जन गावों में बड़े पैमाने पर सब्जी उगाई जाती है। मुंगेली और जांजगीर-चांपा जैसे जिलों में भी सब्जी का खासा रकबा है। बालोद का शरीफा, राजिम का तरबूज और जशपुर के टमाटर के तो अनगिनत कद्रदान हैं। इन तमाम जिलों की सब्जियां और फल दूरदराज तक भी भेजे जाते हैं। ऐसे में जबकि प्रदेश सरकार धान का रकबा लगातार कम करने की कोशिशों में है, सब्जी या फल का उत्पादन निश्चित रूप से बेहतर विकल्प के तौर पर उभर सकता है। बस जरूरत इतनी है कि सरकार धान की तरह अन्य फसल उगाने वाले किसानों के दर्द को भी अपने सरोकार का हिस्सा बनाए। लॉकडाउन की बंदिशों ने ऐसे किसानों की कमर तोड़ दी है। फिलहाल इसे सीधा करने की जरूरत है।
[राज्य संपादक, छत्तीसगढ़]