[ शकील शमसी ]: अगर भारत के अमेरिका से आर्थिक और व्यापारिक संबंध हैैं तो ईरान के साथ भी सदियों पुराने सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं व्यापारिक रिश्ते हैं। 14 अगस्त 1947 से पहले तक तो ईरान भारत का पड़ोसी भी था। ईरान के साथ जमीनी संपर्क टूट जाने के बावजूद दोनों देशों के लोग हवाई और समुद्री मार्गों से एक-दूसरे के यहां आते-जाते रहे। इतने गहरे संबंध होने की वजह से ही जब भी कोई बुरा वक्त दोनों देशों पर पड़ा तो दोनों ही देशों ने अपनी मित्रता निभाते हुए किसी दुश्मन का साथ नहीं दिया। भारत-पाकिस्तान के युद्ध रहे हों या अन्य विवाद, ईरान हमेशा तटस्थ रहा। इसी तरह ईरान-इराक युद्ध के दौरान भारत भी पूरी तरह तटस्थ रहा। उसने दोनों देशों से अपने अच्छे संबंध कायम रखे, लेकिन अमेरिका और ईरान के बीच इस समय युद्ध के जो हालात बने हैैं उसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत को घसीटने की कोशिश करते दिख रहे हैैं। उन्होंने ईरान के शीर्ष सैन्य अफसर जनरल कासिम सुलेमानी को आतंकी घोषित करने की होड़ में यह भी कह दिया कि 13 अप्रैल 2012 को दिल्ली में इजरायली दूतावास के एक कर्मचारी पर हमले की योजना सुलेमानी ने ही बनाई थी।

ट्रंप लेना चाहते हैं भारतीयों की हमदर्दी, किंतु भारत कड़वी हकीकत की अनदेखी नहीं कर सकता

इस मामले का सच यह है कि कुछ लोगों ने ईरान के जाली पासपोर्ट पर भारत का सफर किया और इजरायली दूतावास की एक कार में एक बम फिट कर दिया था। यह बहुत घातक नहीं था। इस बम धमाके से एक इजरायली राजनयिक और दो राहगीर घायल हुए थे। इस धमाके के लिए ट्रंप ने जनरल सुलेमानी को जिम्मेदार ठहराकर भारतीयों की हमदर्दी हासिल करने की कोशिश की, लेकिन हम इस कड़वी हकीकत की अनदेखी नहीं कर सकते कि मुंबई पर हुए आतंकी हमले में अहम रोल निभाने वाले पाकिस्तान मूल के अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली और पाकिस्तानी एजेंट तहव्वुर हुसैन राणा को अमेरिका ने आज तक भारत के हवाले नहीं किया। ये दोनों ही भारत के गुनहगार हैं।

47 भारतीय नर्सों की रिहाई सुलेमानी की वजह से मुमकिन हो सकी थी

जहां तक जनरल कासिम सुलेमानी की बात है, दुनिया इससे परिचित है कि उन्होंने विश्व के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन आइएसआइएस को इराक और सीरिया से बाहर करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हम भारतीय यह भी नहीं भूल सकते कि इराक के तिकरित नगर में 47 भारतीय नर्सों की रिहाई इसीलिए मुमकिन हो सकी थी, क्योंकि जनरल कासिम सुलेमानी के नेतृत्व मे आइएसआइएस विरोधी मिलिशिया ने उसके आतंकियों को वहां से भागने के लिए मजबूर कर दिया था। असल में जनरल कासिम सुलेमानी और इराकी मिलिशिया के नेता अबुल मेहदी अल मुहंदिस के नेतृत्व में हश्द उल शाबी नाम का संगठन बना था जिसने आइएसआइएस को इराकी शहरों से बाहर खदेड़ने में बड़ी भूमिका निभाई थी। सुलेमानी ने इस संगठन को इसलिए सक्रिय किया, क्योंकि अमेरिका इराक के कई शहरों पर कब्जा जमा लेने वालों को भगाने के बजाय उनकी मदद करने का काम कर रहा था।

अमेरिका और ईरान की दुश्मनी की शुरुआत 1953 से शुरू हुई

अमेरिका और ईरान की दुश्मनी की शुरुआत 1953 में उस समय शुरू हुई जब वहां डॉ. मुसद्दक की प्रजातांत्रिक सरकार का सीआइए ने तख्तापलट कर रजा शाह पहलवी को ईरान का सम्राट बना दिया था। इस सरकार का विरोध करने के कारण वहां शियों के सबसे बड़े धर्मगुरु अयतुल्ला ख़ुमैनी को 1964 में देश छोड़कर पहले तुर्की और बाद में इराक के पवित्र नगर नजफ में शरण लेनी पड़ी। वह वहीं से ईरानी युवकों को राजशाही के विरुद्ध खड़े होने का आह्वान करते रहे। इस कारण उन्हें 1978 में इराक से भी पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। वह वहां से वह पेरिस गए और वहीं से उन्होंने ईरानी क्रांति को अंतिम रूप दिया। चूंकि रजा शाह अमेरिका की कठपुतली थे और अतीत में अमेरिकी दूतावास ने ईरान से प्रजातंत्र को खत्म करने में अहम रोल अदा किया था इस कारण अमेरिका और ईरानियों की दुश्मनी दिनोंदिन बढ़ती ही गई। इसकी परिणति 1979 में अमेरिकी दूतावास पर ईरानियों के हमले के रूप में सामने आई जिसमें 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया।

सुलेमानी और मुहंदिस के जीवित रहते हुए अमेरिका की चाहत पूरी नहीं हो पा रही थी

अब अमेरिका-ईरान के बीच जिस युद्ध की नौबत आई है उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अमेरिका और इजरायल चाहते थे कि आइएसआइएस को मार भगाने वाले हश्द उल शाबी के सैनिकों के हथियार रखवा लिए जाएं और इराक में उनकी भूमिका खत्म हो जाए। चूंकि अमेरिका को लग रहा था कि जनरल कासिम सुलेमानी और मुहंदिस के जीवित रहते हुए यह संभव नहीं इसी कारण उसने दोनों को निशाना बनाया।

आइएसआइएस को मार भगाने वाले सुलेमानी और मुहंदिस को अमेरिका आतंकवादी कह रहा है

अब वह खुद को सही साबित करने के लिए इन दोनों को आतंकवादी कह रहा है, जबकि इन्होंने ही दुनिया के सबसे कट्टर आतंकी समूह को मिटाने में निर्णायक भूमिका निभाई। दुनिया को गुमराह करने के लिए अमेरिका ने जनरल कासिम सुलेमानी का नाम विभिन्न आतंकी संगठनों से भी जोड़ा है। अमेरिका ने भारत को भी इस विवाद में घसीटने की जो कोशिश की है वह भी उसकी चाल है।

भारत ने किसी भी आतंकी घटना के लिए ईरान या सुलेमानी को जिम्मेदार नहीं ठहराया

ध्यान रहे कि भारत सरकार ने कभी भी ईरान या जनरल कासिम सुलेमानी को भारत में हुई किसी आतंकी घटना के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया। जनरल कासिम सुलेमानी ने तो भारत का इस क्षेत्र में वर्चस्व बढ़ाने के लिए चाबहार बंदरगाह विकसित करने में बहुत दिलचस्पी ली। इस दिलचस्पी का कारण उनकी यह समझ थी कि अफगानिस्तान में भारत और ईरान को तालिबान का सामना करना है जो कि दोनों देशों का साझा दुश्मन है। ईरान के रास्ते ही भारत को मध्य एशिया के दूसरे देशों तक चाबहार के जरिये पहुंचना आसान हुआ है।

अमेरिका-ईरान के झगड़े में भारत को तटस्थ रहना चाहिए

मौजूदा हालात में भारत के लिए यही उचित है कि वह अमेरिका-ईरान के झगड़े में तटस्थ रहे। जहां तक पाकिस्तान की बात है, वहां की जनता को लग रहा है कि अमेरिका और ईरान के बीच संभावित युद्ध में पाकिस्तान सरकार अमेरिका की नजर में नंबर बढ़ाने के लिए अपने सैन्य ठिकानों को अमेरिकी सेना को सौंप सकती है। हालांकि पाकिस्तान सरकार ने अपनी संसद में कहा है कि वह इस विवाद में निष्पक्ष रहेगी, मगर वहां की जनता को अपनी सरकार पर संदेह है और इसीलिए अभी से पाकिस्तान में ऐसे प्रदर्शन शुरू हो गए हैं जिनमें लोग अमेरिका का साथ न देने का आग्रह कर रहे हैं।

( लेखक उर्दू दैनिक इंकिलाब के संपादक हैैं )