[ विवेक काटजू ]: अफगानिस्तान के हालात पर चर्चा के लिए पिछले दिनों मास्को में एक बैठक हुई जिसमें भारत ने भी अपने दो पूर्व राजनयिकों को भेजा। इस खास पहलू के साथ यह भी उल्लेखनीय रहा कि इस बैठक में तालिबान और अफगानिस्तान सरकार, दोनों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की। पाकिस्तान और चीन ने भी अपने-अपने प्रतिनिधिमंडल वहां भेजे। एक अमेरिकी राजनयिक इसके पर्यवेक्षक थे। एक ऐसी बैठक जिसमें तालिबान के लोग भी मौजूद थे उसमें अपने प्रतिनिधि भेजकर मोदी सरकार ने अपनी अफगानिस्तान एवं क्षेत्रीय नीति को ध्यान में रखते हुए एक अहम फैसला किया। यह इसके बावजूद अहम फैसला रहा कि भारत ने सेवारत राजनयिकों को वहां नहीं भेजा और न ही उनकी ओर से कोई बयान दिया गया।

फिलहाल अफगानिस्तान में क्षेत्रीय एवं वैश्विक कूटनीतिक मोर्चे पर जो खेल चल रहा है उसे और वहां के जमीनी हालात को देखते हुए यह एक बढ़िया फैसला ही कहा जाएगा। मास्को में भारत की मौजूदगी का अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि भारत अफगान सरकार के कद को कम आंक रहा है, क्योंकि उसके प्रतिनिधि खुद उस बैठक में मौजूद थे। भारत की ही तरह अफगान सरकार ने भी अपने अधिकारी या राजनयिक वहां नहीं भेजे। इसके बजाय उसने हाई पीस काउंसिल के एक दल को भेजा। अफगान सरकार ने इस संस्था की स्थापना तालिबानी अलगाववाद से निपटने के लिए की है। भारत की भागीदारी का यह अर्थ भी नहीं था कि उसने तालिबान या उसर्की ंहसक विचारधारा पर अपना रवैया नरम कर लिया है या वह पाकिस्तान के साथ उसके संबंधों की अनदेखी कर रहा है। भारत को इन मुद्दों पर अपने रुख को बार-बार दोहराते रहना चाहिए।

कूटनीति और राष्ट्रीय हितों का तकाजा यह नहीं कहता कि किसी देश को उन बैठकों में भाग नहीं लेना चाहिए जिनमें विरोधी देश या समूह भी शामिल हो रहे हों। मास्को बैठक के लिए भारत को मिला आमंत्रण यह दर्शाता है कि वैश्विक स्तर पर भारत को एक प्रमुख शक्ति के तौर पर देखा जाने लगा है और अफगानिस्तान के मामले में उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यही बात उन बैठकों के संदर्भ में भी कही जा सकती है जो युद्ध की विभीषिका झेल रहे इस देश में शांति और स्थायित्व लाने के मकसद से आयोजित की जा रही हैं। ऐतिहासिक रिश्तों के साथ ही 2001 के बाद अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की अहम भूमिका है। वहां जो भी देश मदद कर रहे हैं उनमें भारत ही सबसे अधिक लोकप्रिय है।

अफगानियों के बीच हुए तमाम सर्वेक्षण इसकी पुष्टि करते हैं। यह सब खासतौर से इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि 1990 के दशक और यहां तक कि 2000 के दशक की शुरुआत तक पाकिस्तान के दबाव के कारण भारत को अफगानिस्तान से जुड़ी बहुस्तरीय बैठकों से बाहर रखा जा रहा था। इस मामले में पाकिस्तान अब भारत के खिलाफ वीटो करने की स्थिति में नहीं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भारत की भूमिका को स्वीकारता है और सभी अफगानी भी चाहते हैं कि भारत भागीदारी करे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अफगानिस्तान के संदर्भ में पाकिस्तान ने न केवल अंतरराष्ट्रीय बिरादरी, बल्कि अफगान नागरिकों के बीच भारत की नकारात्मक छवि पेश करने का कुत्सित प्रयास किया है।

अफगानिस्तान जिन मुश्किलों से जूझ रहा है उनकी वजह भी पाकिस्तान ही है। वहां आतंक फैला रहे तालिबान को पाकिस्तान की ही शह मिली हुई है। पाकिस्तान तालिबान को न केवल पनाह देता है, बल्कि आतंक फैलाने के लिए साजो-सामान भी मुहैया कराता है। तालिबानी नेतृत्व भी पाकिस्तान में ऐश कर रहा है। इस आतंकी धड़े के खिलाफ पिछले 17 वर्षों से संघर्ष कर रहे अमेरिका को उसके सफाये में सफलता इसीलिए नहीं मिली, क्योंकि वह इसके मूल यानी पाकिस्तान में उसका फन कुचलने से कतराता है। अमेरिका बीमारी के ऊपरी इलाज में ही जुटा हुआ है और उसकी जड़ तक प्रहार नहीं कर रहा है।

कुछ समय पहले राष्ट्रपति ट्रंप ने पाकिस्तान के दोहरे रवैये की निंदा करते हुए उससे मांग की थी कि वह तालिबान की मदद करना बंद करे, लेकिन उनकी यह नीति दिखावटी ही लगी, क्योंकि अमेरिकी प्रशासन तालिबान को वार्ता के लिए तैयार करने में पाकिस्तान से ही मदद मांग रहा है। अमेरिका ने अपने स्तर पर भी तालिबान के साथ सीधी वार्ता की राह खोली है और अभी तक उसने इसी पर जोर दिया है कि तालिबान को केवल और केवल अफगान सरकार से ही सीधी बात करनी चाहिए।

मास्को सम्मेलन इस बात का संकेत था कि इस क्षेत्र के अधिकांश देश अफगानिस्तान में शांति एवं स्थायित्व चाहते हैं ताकि वह क्षेत्रीय समृद्धि में योगदान दे सके। यह भारत सहित इस क्षेत्र से जुड़े सभी देशों के हित में भी है। हालांकि यह तब तक संभव नहीं जब तक कि पाकिस्तान अफगानिस्तान के मामलों में दखल देते हुए भारत की भूमिका को सीमित करने का प्रयास करेगा। उसे यह समझ लेना चाहिए भारत और अफगानिस्तान, दोनों को ही तय करना है कि उनके द्विपक्षीय रिश्ते कैसे होने चाहिए।

कुछ रिपोर्ट इस ओर संकेत कर रही हैं कि मास्को बैठक में तालिबान अपने अड़ियल रुख पर अडिग रहा। तालिबान नेताओं ने विदेशी सैनिकों और मुख्य रूप से अमेरिकी फौजों की वापसी और अफीम की खेती छोड़ने के कारण हुए नुकसान के एवज में हर्जाने की मांग दोहराई। अफीम के उत्पादन में गिरावट को लेकर उनका दावा हकीकत से परे है। दरअसल तालिबान इसलिए हेकड़ी दिखा रहा है, क्योंकि अमेरिकी नीतियां नाकाम रही हैं। इससे यह धारणा बन रही है कि वार्ता में उसका पक्ष मजबूत है।

तालिबान के अड़ियल रुख की हवा तभी निकल सकती है जब ट्रंप प्रशासन वार्ता के साथ उस पर सैन्य शिकंजा भी कड़ा कर दे। उसे यह प्रतिबद्धता भी दर्शानी होगी कि जब तक अफगानिस्तान में हालात स्थिर नहीं हो जाते तब तक अमेरिकी सैनिक वहां डटे रहेंगे और तालिबान इस गफलत में न रहे कि इस मामले में वह अमेरिका को दबाव में ला सकता है। इसके साथ ही अमेरिका को पाकिस्तान के खिलाफ भी कड़े कदम उठाने होंगे। कम से कम आर्थिक मोर्चे पर तो उसकी नकेल कसनी ही होगी।

कूटनीति एक ही वक्त में वार्ता के साथ ही सैन्य मोर्चे पर सख्ती की संभावनाओं को भी खुला रखती है। मोदी सरकार ने स्पष्ट किया है कि मास्को बैठक में शिरकत का अर्थ यह नहीं है कि उसने तालिबान से वार्ता शुरू कर दी है। कूटनीतिक खेल में कोई भी देश अपने विरोधी पक्षों के साथ तमाम तरह से संपर्क साध सकता है। इसमें खुफिया एजेंसियों की भी मदद ली जा सकती है।

भारत को इन विकल्पों से नहीं हिचकना चाहिए, क्योंकि उनकी गिनती आधिकारिक वार्ता के तौर पर नहीं होगी। इसके साथ ही साथ उसे अफगानिस्तान के राजनीतिक एवं सामाजिक वर्गों के विभिन्न धड़ों से अपना संवाद बढ़ाकर अपनी उस नेक छवि को भुनाना चाहिए जो उसने अफगानिस्तान की मदद करके बनाई है। अफगानिस्तान के मामले में भारतीय कूटनीति उदार, लचीली एवं निपुण होनी चाहिए।

[ लेखक विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव हैं ]