[ संजय गुप्त ]: ओसाका में आयोजित जी-20 की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि को निखारने का काम किया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से विभिन्न मसलों पर वार्ता के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री जिस तरह सहज दिखाई दिए उससे यही स्पष्ट हुआ कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति को यह समझाने में सफल रहे कि भारत अपने हितों के साथ समझौता करने की स्थिति में नहीं।

मोदी-ट्रंप वार्ता
यह तो तय था कि दोनों नेताओं के बीच व्यापार, ईरान, रक्षा समेत विभिन्न मसलों पर चर्चा होगी, क्योंकि जापान रवाना होने के पहले ही ट्रंप यह कह चुके थे कि उन्हें अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाने का भारत का फैसला मंजूर नहीं, लेकिन ओसाका में उन्होंने जिस तरह भारत से संबंध मजबूत करने पर बल दिया और भारत से निकटता का हवाला देते हुए पीएम मोदी को अपना दोस्त बताया उससे यही लगता है कि उन्हें यह आभास हुआ कि मोदी के नेतृत्व वाले भारत को दबाया नहीं जा सकता।

भारत-अमेरिका के बीच सहमति
भारत-अमेरिका के रिश्ते सही दिशा में बढ़ रहे हैैं, इसका संकेत दोनों नेताओं के बीच बनी इस सहमति से मिला कि व्यापार संबंधी मामलों को सुलझाने के लिए दोनों देशों के वाणिज्य मंत्रियों के बीच जल्द ही बैठक होगी। उल्लेखनीय है कि दोनों नेताओं की वार्ता में रूसी मिसाइल सिस्टम एस-400 पर कोई चर्चा नहीं हुई। अमेरिका इस सौदे पर आपत्ति जता जा चुका है। ट्रंप प्रशासन चीनी कंपनी हुआवे के प्रति भी भारत को आगाह करते हुए यह चाह रहा है कि वह भी इस कंपनी के खिलाफ अमेरिका जैसा रुख क्यों नहीं अपना रहा है?

अमेरिका-ईरान में तनातनी के बीच जी-20 बैठक

जी-20 की बैठक ऐसे समय में हुई जब अमेरिका और ईरान के बीच तनातनी बढ़ने के कारण विश्व आशंकित है। ट्रंप अमेरिका फर्स्ट की नीति पर न केवल जोर दे रहे हैैं, बल्कि उसे बढ़ावा देते हुए वह विभिन्न देशों से टकराव भी मोल ले रहे हैैं। व्यापार, पश्चिम एशिया के हालात से लेकर पर्यावरण जैसे मसलों पर उनका कठोर रवैया यही बताता है कि वह अमेरिकी हितों के आगे और किसी की परवाह नहीं कर रहे हैैं। ऐसा करते हुए वह कूटनीतिक तौर-तरीकों को भी दरकिनार करने में संकोच नहीं करते। जब वह ऐसा करते हैं तो अमेरिका के राष्ट्रपति कम, वहां के कारपोरेट जगत के संरक्षक ज्यादा दिखते हैैं और यही आभास कराते हैैं कि उन्हें दुनिया की समस्याओं की कहीं कोई परवाह नहीं।

भारत पर अमेरिका का दबाव
ट्रंप विभिन्न देशों पर दबाव डालने का कोई मौका नहीं छोड़ते। शायद यही कारण रहा कि उन्होंने मोदी से मुलाकात के पहले इस आशय का ट्वीट किया कि भारत को अमेरिकी उत्पादों पर आयात शुल्क कम करना होगा। उनके ऐसे ट्वीट यही बताते हैैं कि वह अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी ही चलाना चाहते हैैं। उनके इस रवैये के चलते ही अमेरिका के चीन से भी रिश्ते बिगड़े और रूस से भी। ओसाका में ट्रंप और मोदी की मुलाकात के पहले अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने नई दिल्ली की यात्रा की थी। इस दौरान भारत ने यह साफ कर दिया था कि वह अमेरिका से रिश्ते मजबूत करते हुए अन्य देशों के साथ अपने ऐतिहासिक रिश्तों की अनदेखी नहीं कर सकता और वह अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए ही फैसले लेगा।

अमेरिका से रिश्ते मजबूत
अमेरिका इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत को पाकिस्तान और चीन के खतरे से निपटने के साथ ही निर्धनता और अशिक्षा जैसी समस्याओं से भी लड़ना है। इसमें उसे अमेरिका की मदद चाहिए। इसी कारण भारत यह चाहता है कि अमेरिका से रिश्ते मजबूत हों। ये मजबूत होने भी चाहिए, क्योंकि दोनों दुनिया के सबसे बड़े और शक्तिशाली लोकतंत्र हैैं। ऐसे लोकतांत्रिक देशों को एक-दूसरे का स्वाभाविक मित्र होना चाहिए। अमेरिका इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि भारत ने उसके उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाने का फैसला तब किया जब उसने भारत को तरजीही राष्ट्र वाली जीएसपी व्यवस्था से बाहर करने का फैसला किया।

भारत सरकार को सतर्क रहने की जरूरत
चूंकि अमेरिका इन दिनों चीन के साथ अपने व्यापार असंतुलन को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है इसलिए वह उसके प्रति तीखे तेवर अपनाए हुए है। इसके चलते तमाम अमेरिकी कंपनियां चीन से निकलना चाहती हैैं और भारत में अपने लिए संभावनाएं तलाश कर रही हैैं। अमेरिका इसे भारत के लिए एक बड़ा अवसर मान रहा है, लेकिन भारत सरकार को सतर्क रहने की जरूरत है।

अमेरिकी कंपनियां भारत में तकनीक उपलब्ध कराएं
भारत को अपने बाजार को अमेरिकी कंपनियों के लिए खोलते समय यह ध्यान रखना होगा कि ऐसी अमेरिकी कंपनियां ही भारत आएं जो मेक इन इंडिया में सहायक बनें और साथ ही रोजगार के नए अवसर पैदा करने में भी। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि अमेरिकी कंपनियां भारत में ही अपने माल का उत्पादन करें और ऐसा करते समय तकनीक भी उपलब्ध कराएं। इसके साथ ही भारत को वह उच्च तकनीक भी चाहिए जो देश के तेज चहुंमुखी विकास में सहायक बन सके। फिलहाल इसमें भारत को बड़ी सफलता नहीं मिली है।

रक्षा सामग्री के उत्पादन में आत्मनिर्भर
अमेरिकी कंपनियां तरह-तरह के आश्वासन तो देने में लगी हुई हैैं, लेकिन वे वांछित तकनीक देने के लिए आगे नहीं आ रही हैैं। वे वही तकनीक भारत को देने को तत्पर हैैं जिसमें उन्हें अपना फायदा दिख रहा है। नि:संदेह आज आतंकवाद एक बड़ा खतरा है और भारत को चीन एवं पाकिस्तान से भी सतर्क रहने की जरूरत है, लेकिन इन खतरों से निपटने की तैयारी करते हुए भारत को अमेरिका से केवल रक्षा-सुरक्षा संबंधी बड़े सौदे करने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। भारत को अपनी रक्षा जरूरतों को पूरी करते हुए यह भी देखना होगा कि देश रक्षा सामग्री के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर कैसे बने? यह तभी संभव होगा जब विश्व की अग्रिम हथियार निर्माता कंपनियां भारत आकर अपनी तकनीक भी हस्तांतरित करें। भारत को इसके प्रति भी सतर्क रहना होगा कि वह अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा करने के फेर में वैसी सामग्री खरीदने से बचे जो उसके बहुत अनुकूल न हों।

विदेशी कंपनियां अपना हित पहले देखती हैैं
भारत को अमेरिका से न केवल अपनी जरूरत के हिसाब से रक्षा तकनीक चाहिए, बल्कि वह तकनीक भी चाहिए जो देश के स्वास्थ्य, शिक्षा के ढांचे को मजबूत कर सके। इसी के साथ भारत को पर्यावरण अनुकूल ऐसी तकनीक भी चाहिए जो प्रदूषण संबंधी समस्याओं से निपटने में मददगार हो। चूंकि विदेशी कंपनियां अपना हित पहले देखती हैैं इसीलिए वे भारत के विभिन्न नियम-कानूनों में तो ढील चाहती हैैं, लेकिन भारत की सभी जरूरतों की पूर्ति करने के लिए तैयार नहीं दिख रही हैैं। भारत की एक बड़ी प्राथमिकता गरीबी से लड़ने के साथ अपने आधारभूत ढांचे का तेजी से विकास करना है।

भारत को विदेशी निवेश की आवश्यकता है
गरीबी दूर करने के साथ अपनी सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए भारत को अच्छे-खासे विदेशी निवेश की आवश्यकता है, लेकिन मुश्किल यह है कि अमेरिकी कंपनियां ऐसे क्षेत्रों में निवेश के लिए उत्साहित नहीं दिख रही हैं। शायद इसका एक कारण यह है कि ऐसे क्षेत्रों में निवेश बहुत लाभकारी नहीं होता। भारत को इस मुश्किल को आसान बनाने पर ध्यान देना होगा। अमेरिका को भी यह चाहिए कि वह भारतीय हितों की चिंता करते हुए ही अपने हितों की पूर्ति की अपेक्षा करे। वास्तव में ऐसा होने पर ही दोनों देशों के रिश्तों में मजबूती आएगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]