बद्री नारायण। भारतीय समाज जातियों में संयोजित समाज है। लगभग सौ से ज्यादा जातियां और उप-जातियां ग्रामीण भारत में रहती हैं। इन्हें अंग्रेजी शासन के दौरान तैयार जनगणना रपटों में सामान्य, ओबीसी एवं एससी जातियों में विभाजित किया गया। आज अनेक सरकारी योजनाओं का आधार प्राय: ये ही शासकीय श्रेणियां बनती हैं। इसके अलावा भारतीय समाज के विभाजन में पेशागत विभाजन भी एक महत्वपूर्ण आधार था। इस पेशागत विभाजन के तहत अनेक पेशों से जुड़ी श्रमिक जातियों का एक बड़ा सामाजिक समूह बनता है।

इन जातियों में से कई ओबीसी कोटि में आती हैं, कई अति पिछड़ी जातियों की श्रेणी में आती हैं और कई अनुसूचित जातियों के वर्ग का हिस्सा मानी जाती हैं। इनमें से कई पेशागत जातियां हिंदू एवं मुसलमान, दोनों ही सामाजिक समूहों में आती हैं। हिंदुओं में बुनकर, कोरी सामाजिक समूह पाया जाता है तो मुसलमानों में इस पेशे से जुड़ा वर्ग जुलाहा सामाजिक समूह के रूप में जाना जाता हैर्। हिंदुओं में नाई जाति पाई जाती है तो मुसलमानों में भी। धोबी हिंदू भी होते हैं तो मुसलमान भी। नट हिंदू होते हैं तो मुसलमान भी।

इस प्रकार से पेशागत जातियां हमारे आधुनिक विभाजन की कोटियों को लांघते हुए आपस में मिलकर शिल्पकारी सामाजिक समूह के रूप में एक अन्य कोटि में भी समायोजित मानी जाती हैं। गड़ेरिया, कुम्हार, भड़भूजा, कहार, लोहार, लुनिया, तंबोली, माली, सोनार, बारी, नाई, दर्जी, धोबी, नट, मुसहर, बहेलिया, बासफोर, बेलदार, धानुक आदि ऐसी ही जातियां हैं। इनमें से गड़ेरिया, कुम्हार, भड़भूजा, कहार आदि जातियां ओबीसी का हिस्सा मानी जाती हैं। वहीं धोबी, बासफोर, धानुक, नट जैसी जातियां अनुसूचित जाति का हिस्सा मानी जाती हैं।

ये जातियां संख्या में छोटी हैं, लेकिन कुल मिलाकर ये एक बड़ी सामाजिक एवं मतदाता समूह में तब्दील हो जाती हैं। होता यह है कि ओबीसी एवं एससी में कुछ बड़ी जातियां राजनीति का केंद्र बन जाती हैं एवं विकास की धारा को अपनी तरफ मोड़कर अपने तक ही सीमित कर लेती हैं। ऐसे में शासन, सत्ता एवं राजनीति का ध्यान ऐसे सामाजिक समूहों की तरफ नहीं जाता। वे इन मुखर ओबीसी, एससी जैसी जातियों की छवियों में छिप जाती हैं। ऐसे में वे भारतीय जनतंत्र में अदृश्य सामाजिक समूह के रूप में विद्यमान रहती हैं। इनके भीतर आजादी के इतने वर्षों बाद भी न तो बेहतर जीवन की चाहत को अभिव्यक्त करने की क्षमता विकसित हो पाई है, न ही अपनी आकांक्षाओं को पाने की राजनीति का विकास ही इनमें हो पाया है। परिणामत: इनमें से अनेक के भीतर सामुदायिक राजनीतिक नेतृत्व का विकास भी नहीं हो पाया है।

भारतीय जनतांत्रिक सत्ता द्वारा चलाई जाने वाली विकास की योजनाएं भी इन तक सीधी नहीं पहुंच पाती हैं। राजसत्ता एवं उनसे जुड़े अधिकारी उन्हें ओबीसी एवं एससी के सरकारी चश्मे से देखते हैं। वे इनकी सामाजिक विशिष्टता एवं इनकी सतत बढ़ती जा रही सीमांतता को समझने में चूक जाते हैं। इनमें से अनेक आज आधुनिकता द्वारा पैदा किए गए संशय एवं द्वंद्व से जूझ रहे हैं। ये आधुनिक नवउदारवादी अर्थव्यवस्था एवं सत्ता द्वारा प्रस्तावित मात्र शारीरिक श्रम करने वाले सामाजिक समूह में बदलना नहीं चाहते। ये सिर्फ मनरेगा एवं इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी गतिविधियों में श्रमिक भर भी नहीं बने रहना चाहते।

ऐसे समूह स्वयं को ज्ञानवंत एवं कलावंत समूह मानते हैं। अत: ये मात्र शारीरिक श्रम करने वाले समूह में अपने को बदलने से हिचकिचाते हैं। इनकी अपनी सामाजिक अस्मिता रही है। इनमें से कई उसे छोड़ने के लिए जल्दी तैयार नहीं होते। ये यूं तो गरीब एवं वंचित समूह के रूप में आज हमारे समक्ष मौजूद हैं, किंतु सांस्कृतिक रूप से इनमें से कई अत्यंत संपन्न रहे हैं। इनकी अपनी लोककथाएं, लोकगीत एवं लोक संस्कार की पद्धति रही हैं। एक समय था जब इनमें से कइयों का पेशा इन्हें काफी धनवान बनाता था। एक समय बुनकर एवं जुलाहे कपड़ा बुनकर अच्छी मात्रा में धनोपार्जन कर लेते थे। इनके बनाए महंगे कपड़े समाज का धनाढ्य वर्ग तो खरीदकर पहनता ही था, समाज का सामान्य तबका भी इनके बनाए सस्ते कपड़े इनसे खरीदता था। कपड़ा उद्योग में मशीन के प्रवेश ने इन्हें तबाह कर दिया। इनकी हो रही तबाही को देखते हुए भी हमारी राज्य सत्ता ने इनके लिए कोई विकल्प नहीं प्रस्तुत किया।

वैसे ही नोनिया एक तरह की अभियांत्रिकी से जुड़ा सामाजिक समूह था। तालाबंदी, खुदाई, सड़क निर्माण, घर निर्माण में इन्हें विशेषज्ञता हासिल थी। ये इन कार्यों से पैसा कमाकर स्वयं को प्राक् आधुनिक समय में महत्वपूर्ण जाति के रूप में प्रकट करते थे। आधुनिक बाजार एवं मशीन पर केंद्रित व्यवस्था ने इन्हें भी तबाह कर दिया। ऐसी लगभग 40-50 सामाजिक समूहों की हो रही तबाही पर हमारी राजसत्ता एवं राजनीतिक दलों ने आंसू भी नहीं बहाए। शायद जिनके हाथों में राजनीति थी उन्हें अहसास भी नहीं हो पाया कि कैसे समाज का एक बड़ा सामाजिक समूह अपनी सांसें तोड़ रहा है।

मौजूदा लोकसभा चुनाव जनतंत्र का महापर्व है। जनतंत्र के इस महापर्व में इनकी आवाज सुनने वाला शायद ही कोई हो। इनकी टूटती सांसों को राजनीतिक शक्ति प्रदान करने की दिशा में कोई भी राजनीतिक दल सोच ही नहीं रहा है। इनके लिए वैकल्पिक रोजगार का प्रश्न भी कहीं से हमारे जनतांत्रिक चुनाव का बड़ा विमर्श नहीं बन पाया है। इन जातियों को अनेक राजनीतिक दल अपने संगठन में भी ठीक से जगह नहीं दे पाए हैं। लिहाजा इनमें से अनेक जातियों के अपने एमएलए, एमपी और मंत्री, विधायक निकट में पैदा होंगे, ऐसी कोई संभावना भी नहीं दिख रही है। हालांकि इनमें से कुछ तुलनात्मक रूप से संख्या बल में भारी जातियां जो अति-पिछड़ी जातियों का हिस्सा हैं, को बहुजन राजनीति ने समय-समय पर स्थान दिया, परंतु इसमें भी कोई निरंतरता नहीं दिखती।

राजनीतिक दलों ने इनका वोट तो चाहा है, पर इन्हें अपनी पार्टी में स्थान देने की प्रतिबद्धता उनमें दिखाई नहीं देती। 2014 के आम चुनाव में और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह ने इनमें से कुछ जातियों के सम्मेलनों में जाकर उन्हें भाजपा के बैनर तले लाने की कोशिश तो की थी, किंतु इनके विकास एवं सत्ता में इनकी सहभागिता बढ़ाने के लिए एक सुसंगत नीति अभी बननी बाकी है। गरीब एवं गरीबी जैसे शब्द में कांग्रेस इन्हें समाहित मानती है, किंतु गरीबों के भी अनेक स्तर हैं जो समाज में जातियों की स्थिति से तय होते हैं। कम गरीब एवं ज्यादा गरीब जैसी समझदारी गरीबी शब्द में जोड़ने की जरूरत है।

योजनाओं का लाभ पहले ‘सबसे ज्यादा गरीब’ के पास पहुंचना चाहिए, परंतु होता बिल्कुल उल्टा है। पिछड़ों एवं गरीब समूहों में जिन्होंने हाथ बढ़ाकर योजनाओं का लाभ प्राप्त कर लेने की शक्ति हासिल कर ली है उन तक तो योजनाओं का लाभ पहुंच पाता है। हाशिये पर बसे अनेक सामाजिक समूहों तक यह लाभ नहीं पहुंच पाता। फलत: इनकी सीमांतता और बढ़ती जा रही है। हमारा जनतंत्र तभी गहरा होगा जब जनतांत्रिक चेतना एवं विकास की धारा इन सीमांत पर बसे सामाजिक समूहों तक पहुंचेगी।

 (लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं)