अभिषेक कुमार सिंह। बीती दो सदियों में इंसान ने देखा है कि कैसे विज्ञान और तकनीक ने उसका जीवन बदला है। ज्यादातर मामलों में तकनीक ने हमारे गुलाम के रूप में काम किया है। रोबोट व आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आगे बढ़ने की चुनौतियों के बावजूद तकनीकें हमारे वश से बाहर नहीं गई हैं। तकनीकों पर हमारी निर्भरता का एक लंबा सिलसिला यह साबित करने के लिए काफी है कि हम तकनीकों को बदल सकते हैं, वे हमें नहीं।

इधर कोरोना काल में भी जब हमारे ज्यादातर काम इंटरनेट आदि तकनीकी प्रबंधों की बदौलत घर बैठे संपन्न हो रहे हैं, तो भी माना गया है कि इन चीजों से सहज इंसानी व्यवहार में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आ सकता है। लेकिन इस बीच कुछ घटनाओं से ऐसा प्रतीत हुआ है कि लोगों को तकनीक का सही इस्तेमाल करना सीखना होगा। खास तौर पर उन्हें इसकी जरूरत तब है, जब वे इंटरनेट आदि का इस्तेमाल करते हैं और इसके माध्यम से दूसरे लोगों से संपर्क करते हैं या उन पर कोई टीका-टिप्पणी करते हैं।

यूं तो उम्मीद की जा रही है कि जिस तेजी से कंप्यूटर, मोबाइल और इंटरनेट आदि का इस्तेमाल पूरी दुनिया में बढ़ा है, उससे शायद तकनीक के साथ हमारे रिश्ते और सरल हो जाएंगे। लेकिन इसके कुछ विरोधाभास भी दिखने लगे हैं। जैसे एक घटना राजधानी दिल्ली की है। सुप्रीम कोर्ट में जब कोरोना प्रकोप के कारण मामलों की डिजिटल सुनवाई का प्रबंध किया गया तो एक हैरान करने वाला वाकया हुआ। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से डिजिटल सुनवाई के दौरान एक वकील बिस्तर पर लेटे हुए घरेलू पोशाक में ही पेश हुए। यह नजारा देखकर न्यायाधीश की नाराजगी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि सुनवाई की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए -न्यूनतम शिष्टाचार- का पालन किया जाना चाहिए। न्यायाधीश ने कहा कि वकील डिजिटल सुनवाई में भी –प्रेजेंटेबल- दिखने चाहिए और ऐसी तस्वीरें दिखाने से बचना चाहिए जो उपयुक्त नहीं हैं और जिन्हें घरों की निजता के दायरे में ही बर्दाश्त किया जा सकता है। अदालत ने यह टिप्पणी भी कि कोरोना के प्रकोप की वजह से सभी कठिन दौर से गुजर रहे हैं। ऐसे में डिजिटल अदालतों द्वारा सुनवाई सामान्य दिनचर्या का हिस्सा बन गई है। अप्रैल में भी ऐसी ही घटना हुई थी जब वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये हुई सुनवाई में एक वकील बनियान पहनकर पेश हुआ था, जिस पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने नाराजगी जताई थी।

कामकाज के दौरान संजीदगी : मामला सिर्फ अदालतों का नहीं है। कोरोना वायरस के संक्रामक दौर में ज्यादातर दफ्तरों का कामकाज, बैठकें, सेमिनार और स्कूली बच्चों से लेकर कॉलेज के छात्रों तक की पढ़ाई और परीक्षाएं वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और इंटरनेट आधारित एप्स पर निर्भर हो गई हैं। दूसरे पेशों में भी जहां तक मुमकिन है, कोशिश की जा रही है कि लोगों को दफ्तरों या कामकाज की जगहों पर नहीं आना-जाना पड़े और घर से ही वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग आदि तौर-तरीकों से काम संपन्न हो सके। यह जरूर है कि दफ्तर के बाबुओं और तमाम शिक्षकों का सामना इससे पहले कभी इस तरह के डिजिटल इंतजामों से नहीं पड़ा था। ऐसे में उन्हें तकनीक समझने में शुरुआती दिक्कतें हुईं। लेकिन घर से काम करने का अर्थ यह नहीं है कि लोग यह महसूस करते हुए कि वे तो घर पर हैं, उस सामान्य शिष्टाचार का पालन भी नहीं करें जिसकी अपेक्षा सार्वजनिक स्थलों और दफ्तर व कामकाज की जगहों पर की जाती है।

हालांकि विदेशों में भी कुछ ऐसी घटनाएं वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग अथवा किसी एप के जरिये होने वाली बैठकों में हुई हैं, जब घर से किसी मीटिंग में हिस्सा ले रहे व्यक्ति के बच्चे मोबाइल या लैपटॉप के कैमरे के सामने आ गए। कोरोना के कारण ऐसे दृश्यों की कमी नहीं है जब इस तरह की डिजिटल बैठकों में कुछ लोग अपने घर के सदस्यों पर झल्लाते दिखे। या उन्हें मीटिंग के दौरान ही परिवारीजन कुछ बातें कहते सुनाई दिए। स्कूल-कॉलेज की ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था में शिक्षकों की यह एक आम शिकायत है कि छात्र कक्षा के दौरान कैमरा बंद करके या तो सो जाते हैं या किसी अन्य काम में व्यस्त हो जाते हैं। इससे साबित होता है कि इंटरनेट से कामकाज की व्यवस्था के नए विस्तार में डिजिटल शिष्टाचार की अहमियत कितनी ज्यादा बढ़ गई है। इतना ही नहीं, यह शिष्टाचार शालीन कपड़े पहनने के अलावा सामान्य व्यवहार की मांग भी करता है, जिसमें व्यक्ति इंटरनेट के दूसरे छोर पर मौजूद लोगों से बात करते हुए एक अलग व्यवहार अपनाता है। यह व्यवहार आम जीवन के व्यवहारों से ज्यादा सतर्कता की मांग करता है।

डिजिटल सिविलिटी : ये व्यवहार कौन-कौन से हैं, इनकी एक झलक माइक्रोसॉफ्ट द्वारा जारी डिजिटल सिविलिटी इंडेक्स से मिलती है। इस इंडेक्स के मुताबिक डिजिटल शिष्टाचार के मामले में भारत की स्थिति में सुधार हुआ है। डेढ़ साल पहले जारी इस इंडेक्स में शामिल 22 देशों में भारत का स्थान सातवां था। इस इंडेक्स में 18 से 34 साल के युवाओं के इंटरनेट पर किए गए बर्ताव को शामिल किया गया था। इंटरनेट पर भारतीय कैसे अपने व्यवहार में सुधार करें, इस बारे में इंडेक्स से संबंधित रिपोर्ट में सुझाव भी दिए गए थे।

एक सुझाव के मुताबिक अब देश में इंटरनेट से जुड़े कार्यों के लिए सकारात्मक माहौल बनाने की जरूरत है। साथ ही संस्थानों के लिए इंटरनेट पर आधारित आचारसंहिता -कोड ऑफ कंडक्ट- लागू की जाए और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप बढ़ाकर डिजिटल शिष्टाचार में सुधार किया जाए। इस शिष्टाचार के तहत सबसे पहली जरूरत यह है कि पढ़ाई या कामकाज के लिए आयोजित वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान हरेक को सभ्य व्यवहार के प्रति सजग रहना है। लेकिन इसके अतिरिक्त कई ऐसी बातें हैं जिनसे लोग परिचित नहीं हैं और इस कारण वे सामान्य डिजिटल शिष्टाचारों का पालन नहीं कर पाते हैं। जैसे आम जीवन में तो हम दफ्तर के सहयोगियों या छात्रों से कई बातें संकेत में कह देते हैं। उंगली के इशारे से किसी को कोई काम समझाया जा सकता है, लेकिन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में यह संभव नहीं है।

ऐसे में यदि कोई बात कहनी है, तो उसका अलग तरीका है। जैसे वीडियो पर चूंकि यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि कोई संबंधित व्यक्ति आपकी तरफ देख रहा है या नहीं। इसके लिए वर्चुअल हाथ उठाने का संकेत देना चाहिए। इसी तरह कोई बात कहने से पहले इस बारे में अच्छी तरह विचार करना चाहिए कि क्या उसका संबंध वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के मौजूदा एजेंडा से है या नहीं। यह भी जरूरी है कि वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान दूसरों को भी बोलने का मौका मिले। इसके लिए हरेक वक्ता को बताया जाना चाहिए कि उसके लिए कॉन्फ्रेंस में कितना वक्त तय किया गया है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के दौरान अपना कैमरा और अपनी आवाज बंद करने के विकल्पों का समझदारी से इस्तेमाल करना जरूरी होता है। अगर आप वक्ता हैं तो ये दोनों विकल्प खुले होने चाहिए, लेकिन श्रोता के रूप में आवाज को म्यूट रखना और कैमरा ऑफ रखना एक सामान्य डिजिटल शिष्टाचार है।

यह डिजिटल शिष्टाचार सिर्फ कामकाज के दौरान ही कायम नहीं रहना चाहिए, बल्कि पारिवारिक बातचीत में भी यह बने रहना चाहिए। चूंकि लॉकडाउन के बाद की स्थितियों में भी चूंकि लोगों का मित्रों-रिश्तेदारों से मिलना-जुलना नहीं के बराबर हो रहा है, ऐसे में लोग इंटरनेट से ही बातचीत का विकल्प आजमा रहे हैं। इस संबंध में एक विख्यात मनोविज्ञानी एरॉन बैलिक का मत है कि कार्य की प्रकृति के हिसाब से डिजिटल संपर्क में लिए जाने वाले ब्रेक और डिवाइस का चुनाव भी होना चाहिए। अगर बातचीत मित्रों और परिचितों के बीच है तो बीच में मन मुताबिक ब्रेक लिया जा सकता है। लेकिन कॉन्फ्रेंस यदि औपचारिक और कामकाज से जुड़ी है तो बीच में बिना अनुमति के ब्रेक लेना अनुशासनहीनता है। साथ ही कॉन्फ्रेंस शुरू होने से पहले यदि उनका ट्रायल कर लिया जाए, तो इसे डिजिटल समझदारी कहा जाएगा।

सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अभी तक स्मार्टफोन या लैपटॉप के जरिये की जाने वाली ज्यादातर बातचीत यानी वीडियो कॉन्फ्रेंस का संबंध हमारी सोशल लाइफ से था। लॉकडाउन और उसके बाद के हालात में इस संबंध का विस्तार हमारी नौकरी और कामकाज के मामले में ज्यादा बढ़ा है। चूंकि सामाजिक जीवन में हम फोन या लैपटॉप इस्तेमाल करते हुए अक्सर ज्यादा संजीदा नहीं रहते थे, इसीलिए कैमरे से सामने बनियान में या बिस्तर पर लेटकर बातचीत करने में कोई हर्ज नहीं था। लेकिन अब कामकाज के सिलसिले में होने वाली कॉन्फ्रेंस में डिजिटल शिष्टाचार एक जरूरी तत्व बन गया।

[एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध]