[ संतोष त्रिवेदी ]: इन दिनों बड़ी अजब स्थिति में फंसा हूं। महीनों घर से बाहर नहीं निकला तो सारी रुचियां ही बदल गई हैं। खबरें स्टूडियो से सीधे बेडरूम में घुस आई हैं। छोटी-बड़ी और मझोली बहसों को देख-सुनकर दिन कट रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि पिछले कई महीनों से टीवी चैनल वाले ही हमें जिंदा रखे हुए हैं। वे न होते तो हम क्या करते? राष्ट्रीय-संबोधन से लेकर महामारी का कहर और सच-झूठ की अंतहीन बहसों का जीवित गवाह बन गया हूं। आश्चर्य यह कि तिस पर भी अब तक बचा हुआ हूं। पता नहीं कैसे यह खबर हमारे अपनों से पहले एक बीमा कंपनी को लग गई। वह सरकार से पहले सक्रिय हो गई।

‘कुछ सोचा है आपके जाने के बाद बच्चों की फीस कौन भरेगा? अब तो करवा लो, ज्यादा महंगा नहीं है'

जो भी चैनल खोलता उसका बंदा शुरू हो जाता, ‘कुछ सोचा है आपके जाने के बाद बच्चों की फीस कौन भरेगा? अब तो करवा लो। ज्यादा महंगा नहीं है।’ वह जो नहीं कहता उसका सार यही कि घर-खर्च तभी ठीक से चल पाएगा जब मेरी काया इहलोक त्याग देगी। हमें ज्यादा कुछ नहीं करना है। बस मरना ही तो है। वैसे भी महामारी का रूप धरे बीमारी जाती नहीं दिख रही। हमीं किसी दिन अनंत यात्रा पर निकल लेंगे। खैर उसकी बातें डराने से ज्यादा प्रभावित करती हैं। वह दार्शनिक जैसी बातें करता है। वह हमारे लिए संकट काल में मनौती मना रहा है। आज के जमाने में जब बीमारी की दवा तक नहीं मिल रही वह दुआ दे रहा है। इतना कौन करता है किसी के लिए आज के जमाने में?

चैनल पर महाबहस का दृश्य देखकर हमारे रौंगटे खड़े हो गए

बहरहाल आंखों से नींद गायब हो गई। पता नहीं मरने का खयाल सोने नहीं दे रहा था या करोड़ों पाने का अचूक मौका। परेशान होकर टीवी की शरण में चला गया। और कहीं जाने की गुंजाइश भी नहीं। एक चैनल पर नजर ठहर गई। स्क्रीन रणभूमि के रूप में थी। दर्शकों को असली वाली फीलिंग आए, इसलिए चैनल ने स्टूडियो में ही टेंट गाड़ दिया था। पृष्ठभूमि में फाइटर विमान उड़ रहे थे। महाबहस का दृश्य देखकर हमारे रौंगटे हमसे विद्रोह करने लगे। दो बंदे मोर्चे पर डटे हुए थे। खुशी की बात यह थी कि वे दोनों देशहित में लड़ने को तैयार थे। एक के हाथ में मिसाइल थी और दूसरे के हाथ में राकेट लांचर जैसा आइटम।

आज का सुलगता सवाल- देश जानना चाहता है कि दुश्मन सीमा में घुसा या नहीं

तभी एंकर जोर से चीखा, ‘देश जानना चाहता है कि दुश्मन सीमा में घुसा या नहीं? आज का सुलगता सवाल यही है।’ तभी बाईं ओर बैठे बंदे ने कहा, ‘बिल्कुल घुसा है जी। हमने तो सैटेलाइट से उसके कदमों के निशान तक देखे हैं। गिद्ध की नजर है हमारी। रोज सुबह उठते ही हम सवाल पूछते हैं। आज पूरा देश पूछ रहा है।’

दुश्मन तो पचास साल पहले से घुसा है

यह सुनकर दाईं ओर बैठा बंदा तमतमा उठा, ‘दुश्मन तो पचास साल पहले से घुसा है। इन्होंने क्यों नहीं रोका? चांद में जाने के बजाय ‘चंदा’ धर लिया। जो भी घुसा, देश का घुसा, इनका क्या गया? अब बोलो?’ इस पर पहला बंदा कसमसा उठा, ‘हमने तो दुश्मन से कुछ धरा ही लिया है, अपनी धरा नहीं सौंपी। तुमने तो उसे झुलाया है। हमने अपनों को ही फायदा पहुंचाया, गैरों को नहीं। और हां, सवाल केवल हम उठाएंगे, ये नहीं।’

दूसरा सवाल आ गया, ‘इस घुसपैठ का जवाब कौन देगा'

तभी एंकर का फिर से दनदनाता हुआ सवाल आ गया, ‘इस घुसपैठ का जवाब कौन देगा? आप दोनों से पूछता हूं? ब्रेक के बाद हम इसका जवाब बताएंगे। कहीं जाइएगा नहीं।’ मेरी मजबूरी थी कि उस वक्त बेडरूम छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकता था। इसीलिए वहीं डटा रहा। ब्रेक में फिर से बीमा वाले का विज्ञापन आ गया, ‘अब तो करवा लो।’ मैं उसके प्रस्ताव पर फिर से गौर करने लगा।

दोनों पक्षों में सहमति बनी कि ‘जवाब’ जनता देगी

इस बीच ‘ब्रेक’ खत्म हुआ, पर सवाल नहीं। बहस का अंत सुखद रहा। दोनों पक्षों में सहमति बनी कि ‘जवाब’ जनता देगी। यह सुनते ही मैं फिर से डरने लगा। क्या जवाब देने के लिए मुझे चुनाव तक जिंदा रहना पड़ेगा? मेरा तो करोड़ों का नुकसान हो जाएगा! फिलहाल मरना ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकता।

‘टीवी बंद करके सो जाओ, कोरोना से तुम्हें और दुश्मन से देश को कोई खतरा नहीं होगा'

दुविधा बढ़ने पर श्रीमती जी से सलाह ली। और किसी से ले भी नहीं सकता था। उनका सीधा जवाब था, ‘टीवी बंद करके सो जाओ। कोरोना से तुम्हें और दुश्मन से देश को कोई खतरा नहीं होगा।’

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैंं  ]