[ गिरीश्वर मिश्र ]: महात्मा गांधी चमत्कारिक व्यक्तित्व के स्वामी हैं जो अतिसाधारण भी हैैं, संत भी, राजनेता भी और इन सबसे अलग अपने ही ढंग के निराले क्रांतिकारी भी। सब एक साथ। उन्होने लंदन में वकालत पढ़ी और पाश्चात्य शिक्षा का अनुभव किया। फिर दक्षिण अफ्रीका में नौकरी शुरू की और वहां वर्षों रहे भी। इन सब विदेशी अनुभवों से उनकी भारतीयता की अवधारणा परिष्कृत हुई और भारत के लिए प्रीति और प्रगाढ़ हुई। दक्षिण अफ्रीका में भयंकर भेदभाव का विकट अनुभव उनके जीवन में एक मोड़ साबित हुआ।

अंग्रेजी राज के अत्याचारों को निकट से देखा 

नस्ली भेद और पूर्वाग्रह के साथ अंग्रेजी राज के अत्याचारों को उन्होंने निकट से देखा। वहां की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति से गांधीजी ने बहुत कुछ सीखा। इससे ही एक दृढ़ मन और लोक की चिंता को समर्पित नए गांधी-बापू का उदय हुआ और इसी कारण वह राष्ट्रपिता कहलाए। उन्होंने दमन का विरोध अहिंसा के नायाब तरीके से करने का निश्चय किया। यह बदलाव उनके व्यक्तित्व का स्थाई अंग बन गया। आगे चलकर उन्होंने इसी के साथ भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई भी लड़ी। विश्व युद्ध की विभीषिका के दौरान घनी आबादी वाले देश में अहिंसक क्रांति की ज्योति जलाने वाले मोहनदास करमचंद गांधी ने जो अनोखी शुरुआत की उससे कोई भी अछूता नहीं रह सका।

मानव धर्म को अपना लक्ष्य बनाया

दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद उन्होंने देश के जीवन और समाज को जाना। चंपारण में नील किसानों के हक की लड़ाई के बाद उनके सार्वजनिक जीवन ने एक नया रूप लिया। गांधीजी ने अभय और साहस के साथ जिस मानव धर्म को अपना लक्ष्य और आधार बनाया वह भारतीय संस्कृति के अनुसार निर्मित हुआ था और उसे ही उन्होंने जिया। वह स्वयं को स्पष्टत: हिंदू कहते थे, परंतु उनकी धर्म-दृष्टि सर्वव्यापी थी। उनके हिसाब से धर्म का तत्व हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सबमें व्याप्त है। उनके अनुसार धर्म जीवन का नियम हैै। गांधीजी की यह सोच कई धर्म परंपराओं के अवगाहन से बनी थी।

गांधीजी को ईसा का प्रेम का संदेश मन को छू गया

उन्होंने बाइबिल इंग्लैंड में पढ़ी। घृणा के विरुद्ध प्रेम का ईसा का संदेश उनके मन को छू गया। धर्मभीरू मां के साथ शुरू हुए शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास, पारस्परिक सहिष्णुता और सद्भाव, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि के व्रत गांधीजी के जीवन में सदा बने रहे। गांधीजी हिंदू विश्वासों को अन्य धर्मों के सार्वभौम विचारों के लिए सेतु मानते थे। वह हर अच्छे विचार के लिए प्रस्तुत रहते थे, पर अपने विवेक की शर्त पर। गांधीजी ने टाल्सटॉय की पुस्तक ‘दि किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू’, रस्किन की ‘अन टु द लास्ट’ और गीता एवं रामचरितमानस के साथ नरसी मेहता जैसे भक्त कवियों की रचनाओं का विशेष आभार स्वीकारा है।

गांधीजी ने देखा शारीरिक श्रम की उपेक्षा

गांधीजी के व्यक्तित्व की रचना अनेक प्रभावों को आत्मसात करने से हुई। सारे प्रभावों से अविचल उनका एक व्यापक भारत-भाव था जो यहां के समाज और संस्कृति के साथ गहनता से जुड़ा था। उनकी भारतीय समाज और उसके मानस की पकड़ कोरी भावुकता वाली न होकर जमीनी हकीकत पर टिकी थी। उन्होंने देखा कि गांव जो आत्मनिर्भर थे, अंग्रेजी राज में विदेशी वस्तुओं और सेवाओं के मोहताज होते गए। गांधीजी ने यह भी देखा कि शारीरिक श्रम की कैसे उपेक्षा हो रही है और उसके सहारे नया नजरिया बन रहा है। अंग्रेजी शिक्षा आने के साथ शिक्षा की प्रक्रिया शारीरिक, नैतिक और चारित्रिक पक्ष से दूर हटती गई। ऐसे में गांधी जी ने सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक परिस्थितियों का जमीनी आकलन किया और शारीरिक एवं बौद्धिक, दोनों पक्षों के समुचित समन्वय पर ध्यान दिया।

सत्य का प्रयोग जीवन भर चलता रहा

अपने विचारों को व्यावहारिक धरातल पर परखने यानी सत्य का प्रयोग करने का जो सिलसिला गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में शुरू किया, वह जीवन भर चलता रहा। 1904 में नटाल में स्थापित फीनिक्स आश्रम और 1908 में जोहान्सबर्ग में स्थापित टाल्स्टॉय फार्म इसके उदाहरण हैं। इनमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और पारसी सभी धर्मों के लोग थे, जो अलग-अलग भाषाएं बोलते थे।

सत्याग्रह गांधीजी की अपनी खोज थी

सत्याग्रह गांधीजी की अपनी खोज थी। अपमान, पीड़ा, दुख-दर्द को सहते हुए भी देश ने उनके प्रखर नेतृत्व में साम्राज्यवादी ताकत के विरुद्ध अहिंसक युद्ध लड़ा। इस युद्ध में गांधीजी न तो कभी अपने मार्ग से विचलित हुए और न ही कभी अपना धैर्य खोया। उनके नेतृत्व में परिस्थितियां बदलीं। उन्होंने मानव धर्म की परिधि में जो पहल की उसकी कोई मिसाल नहीं मिलती।

1930 का नमक सत्याग्रह अद्भुत था

1930 का नमक सत्याग्रह तो अद्भुत था। गांधी जी का विचार था कि उनके विरोध का लक्ष्य अंग्रेजों का अपमान न होकर उनके मन को बदलने और नई समझ पैदा करना था। सविनय अवज्ञा वह स्थिति है जो सामने वाले को विचार करने के लिए बाध्य करती है। इसके विपरीत हिंसा के नकारात्मक परिणाम होते हैं। गांधीजी ने मानव मन को बदलने का जो प्रयोग शुरू किया वह विस्तृत होता गया। अंग्रेजों भारत छोड़ो का आंदोलन उसका चरमोत्कर्ष बना।

गांधीजी मनुष्य को ईश्वर का अवतार या अंश मानते थे

गांधीजी मनुष्य को ईश्वर का अवतार या अंश मानते थे और आत्मनियंत्रण को ही व्यक्ति और समाज, दोनों के लिए विकास के मार्ग के रूप में पहचानते थे। गांव और गरीब सदैव उनके केंद्र में रहे। उन्होंने अस्पृश्यता से लोहा लिया और निम्न जातियों की स्थिति को देखते हुए ‘ हरिजन ‘या ईश्वर के लोग कहा। वह हर व्यक्ति को सामूहिक दायित्व का हिस्सेदार बनाते थे। उन्होंने सदैव मानवता के सकारात्मक पक्ष को प्रस्तुत किया और प्रार्थना, अहिंसा और संवाद को मानव संबंधों का आधार बनाया। मानव जीवन की एकात्मता में उनका दृढ़ विश्वास था।

आजादी के बाद गांधीजी को पुतले में कैद कर दिया

उन्होने ‘स्वराज’,‘स्वदेशी’ और ‘सर्वोदय’ के माध्यम से एक धर्म केंद्रित समाज की परिकल्पना की थी और एक स्वावलंबी भारतीय समाज तथा स्वायत्त, किंतु विकेंद्रीकृत भारत का सपना देखा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने गांधीजी को उनके पुतले में कैद कर दिया और उनके विचार, विश्वास और कर्म की राह को भूलते गए। वह पूजा की वस्तु हो गए और एक तरह से जीवन से अलग कर दिए गए। उनके विचार बीज हमारे अचेतन में पड़े हैं। वह हमारी विरासत हैं और उसे संभालना अपने हित के लिए जरूरी है। स्वच्छता की ओर देश का बढ़ता कदम उनके विचारों का पल्लवन है, लेकिन जिस समर्थ भारत की परिकल्पना हम कर रहे हैं उसके लिए गांधी की झोली में बहुत कुछ शेष है। यह झोली हमारे करीब है और उस तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।

( लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि के कुलपति रहे हैैं )