[ डॉ. एके वर्मा ]: देश में ‘मी टू’ आंदोलन महिला सशक्तीकरण से आगे जाकर महिला सुरक्षा और महिला सम्मान के विरुद्ध प्रवृत्तियों को न केवल सामाजिक बुराई के रूप में रेखांकित करता है, वरन राजनीतिक, प्रशासकीय और सामाजिक शुचिता के क्षेत्र में एक नए दौर की शुरुआत का भी द्योतक है। यह आंदोलन नारी के बदलते मनोविज्ञान को दर्शाता है। अब नारी यौन दुराचरण को लेकर अपराधबोध से त्रस्त अंतर्मुखी होने के बजाय उसे समाज के समक्ष उजागर कर उच्छृंखल व्यक्ति को सामाजिक कटघरे में खड़ा करने का साहस करना सीख रही है। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं। जिस देश में नारी लज्जा को ही नारी का आभूषण माना जाता रहा हो वहां यह और भी मुश्किल था। लज्जा के आवरण को तोड़ यौन शोषण के विरुद्ध बिगुल बजाना भारतीय नारी के बढ़ते आत्मविश्वास और आत्मशक्ति का परिचायक है। इसकी गिरफ्त में कब कौन आ जाए यह कहा नहीं जा सकता। यह प्रवृत्ति नीचे तक जाएगी जहां राजनीतिक, प्रशासनिक और सामाजिक प्रदूषण अपने चरम पर है। इसे भारतीय राजनीति और प्रशासन में शुचिता की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है, जिसके लिए सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम बन गया है।

लेकिन ‘मी टू’ की सबसे बड़ी चुनौती है कि यह आंदोलन कहीं नारी बनाम पुरुष न हो जाए। इसका कारण यह कि इसके शिकार उच्च राजनीतिक या प्रशासनिक पदों पर बैठे हुए पुरुष ही होंगे और वे पुरजोर कोशिश करेंगे कि इस आंदोलन को नारी बनाम पुरुष बना दिया जाए जिससे यह कमजोर पड़ जाए। यह आंदोलन ‘यौन शोषण’ जैसी सामाजिक बुराई के विरुद्ध है। इसमें नारी और पुरुष दोनों को सतर्क रहना होगा। महिलाओं को देखना होगा कि इसमें राजनीतिक, प्रशासनिक या वित्तीय लाभ के लिए पुरुषों पर बेबुनियाद आरोप न लगाए जाएं और पुरुषों को सतर्क रहना होगा कि स्वार्थी तत्व लैंगिक आधार पर पुरुषों को भड़काकर उन्हें महिलाओं के विरुद्ध लामबंद न कर सकें। यह नारी और पुरुष की यौन शोषण के विरुद्ध साझी लड़ाई है, क्योंकि यौन शोषण का शिकार केवल नारी ही नहीं, पुरुष भी हैं।

आंकड़े बताते हैं कि तमाम बच्चों का बचपन यौन शोषण के भयानक साए में बीतता है। वे अपनी त्रासदी साझा भी नहीं कर पाते और अवसाद के शिकार हो जाते हैं या अपराध की दुनिया का रुख करते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। इसलिए पुरुष समाज को इस आंदोलन में न केवल महिलाओं के साथ मजबूती से खड़ा होना होगा, बल्कि इसे और व्यापक बनाने की भी कोशिश करनी होगी।

‘मी टू’ अभी केवल उच्चवर्गीय और कामकाजी महिलाओं तक ही सीमित है। उनमें इतना साहस है कि वे लोकलाज की लक्ष्मण रेखा को लांघकर उस सत्य को उजागर कर रही हैं जो अन्यथा कभी उजागर ही नहीं होता, लेकिन अभी इसमें उच्च मध्यम, मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग की महिलाओं के एक बहुत बड़े तबके को शरीक होना है जो यौन दुराचार के आघात को लज्जा के आवरण में रखने को मजबूर हैं, क्योंकि अभी समाज में उन्हें वह आर्थिक मजबूती नहीं मिली है जो उन्हें उस आवरण को तोड़ने का साहस दे सके। जैसे-जैसे महिलाओं की संख्या विभिन्न सेवाओं में बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे यह समस्या और विकराल स्वरूप ग्रहण करती जा रही है।

हालांकि कुछ अत्यंत महत्वाकांक्षी महिलाएं नारी स्वतंत्रता की आड़ ले, यौनता को हथियार बनाकर कार्यक्षेत्रों में अन्य महिलाओं से आगे निकलना चाहती हैं। यह स्वाभाविक मानवोचित प्रवृत्तियां हैं, जिसका फिलहाल कोई निदान नहीं। ‘मी टू’ पुरुष समाज को भी ऐसी महत्वाकांक्षी महिलाओं के इरादों से सतर्क करेगा और उनके मन में यह भय भरेगा कि कहीं आगे चलकर वे ‘मी टू’ के शिकार न बनें, लेकिन कुछ तो ऐसा होना चाहिए कि नीचे तक संदेश जाए कि संपूर्ण समाज को नारियों के सम्मान और सुरक्षा की चिंता है।

बहरहाल इस आंदोलन को और आगे ले जाने की जरूरत है। इसमें घर की दहलीज के अंदर अपनों द्वारा बाल्यकाल और किशोरावस्था में स्त्रियों के यौन शोषण से बात शुरू होनी चाहिए। साथ ही पड़ोस एवं मोहल्ले के अनेक लोगों द्वारा हर उम्र की महिलाओं से जो छेड़छाड़ और अश्लील व्यवहार प्राय: किया जाता है, उसे कैसे ‘पब्लिक-स्पेस’ के कटघरे में लाया जाए? असंगठित तथा संगठित निजी क्षेत्र में भी असंख्य तरीकों से महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया जाता है, क्या उसे ‘मी टू’ आंदोलन की परिधि में नहीं लाया जा सकता?

जिस देश में सामाजिक संस्कृति का दार्शनिक आधार नारी-पुरुष समानता हो, ईश्वर को ‘अद्र्धनारीश्वर’ स्वरूप से व्यक्त किया गया हो, जहां शक्ति के सभी प्रतीक नारी हों, जहां हिंदू धर्म में राम के साथ सीता, कृष्ण के साथ राधा और शिव के साथ पार्वती की आराधना होती हो, ऐसे समाज में नारी द्वारा अशक्त, असुरक्षित और अपमानित होने की अनुभूति क्या एक विरोधाभास को नहीं दर्शाती? फिर हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत में नारी के ‘काम-स्वरूप’ की उपेक्षा भी नहीं की गई। उर्वशी, रंभा, मेनका और तमाम अप्सराओं की कामुक प्रस्तुतियों से लेकर अजंता-एलोरा और खजुराहो की कलात्मक काम प्रस्तुतियां इस बात की गवाह हैं कि स्त्री के दोनों रूप हमारे समाज में एक साथ रहे हैं। हमें नारी के इन दोनों ही रूपों को स्वीकार करना होगा।

भारत तो वह देश है जहां नारी के पत्नी रूप सीता और सावित्री के साथ-साथ उसके प्रेयसी या प्रेमिका स्वरूप राधा के प्रति भी सामाजिक स्वीकृति और आदर की विपुलता रही है। तो फिर समाज में नारी के प्रति ऐसी दृष्टिकोणमूलक विसंगति आ कैसे गई? अपवादस्वरूप तो हर युग में ही नारी के सम्मान के प्रति धृष्टता के उदाहरण हैं। जैसे-त्रेता में रावण द्वारा सीता और द्वापर में कौरवों द्वारा द्रौपदी के सम्मान के प्रति धृष्टता सर्वविदित है, लेकिन महाभारत और रामायण दोनों में यही संदेश है कि ऐसी धृष्टता नाश का कारण बनती है।

अच्छी बात यह है कि ‘मी टू’ मुहिम सामाजिक बुराई और अनैतिकता के खिलाफ नैतिकता और जनमत के हथियार से लड़ने की कोशिश कर रही है। प्राय: सामाजिक बुराई से लड़ने के लिए कानून का सहारा लेने का प्रयास किया जाता है जो कभी सफल नहीं होता। बाल विवाह से लेकर दहेज निरोधक आदि अनेक कानूनों का हश्र हम सभी जानते हैं। ‘मी टू’ द्वारा भारतीय महिलाओं ने जो मार्ग दिखाया है, उससे न केवल नारियों के यौन उत्पीड़न पर लगाम लगेगी और बड़े पदों पर बैठे यौन अपराधी दंडित होंगे, बल्कि इससे समाज के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं को एक खुली हवा में पुरुष समाज के साथ सांस लेने का मौका मिलेगा जो सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक शुचिता का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।

[ लेखक सेंटर फॉर दी स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं स्तंभकार हैैं ]