रक्षा आवश्यकताओं को मिले पहली प्राथमिकता

[ सी उदयभास्कर ]: आखिरकार लंबी प्रतीक्षा के बाद पांच राफेल विमान विधिवत भारतीय वायु सेना का हिस्सा बन गए। इस दौरान अंबाला एयरबेस पर एक कार्यक्रम भी आयोजित किया गया। इसमें संदेह नहीं कि हमारी वायु सेना को ऐसी उन्नत रक्षा प्रणालियों की दरकार है। चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर चल रहे तनाव को देखते हुए यह जरूरत और महत्वपूर्ण हो जाती है। एलएसी पर बीते चार दशकों के दौरान पहली बार चली गोली यही दर्शाती है कि आने वाले दिनों में भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान को सामरिक मोर्चे पर किस तरह की चुनौतियों से दो-चार होना पड़ेगा।

कोविड-19 ने राष्ट्रीय सुरक्षा की चुनौतियों को और जटिल बना दिया

कोविड-19 ने राष्ट्रीय सुरक्षा की इन चुनौतियों को और जटिल बना दिया है। कोरोना प्रभावित देशों की सूची में भारत अब दूसरे पायदान पर आ गया है। बीते कुछ दिनों से प्रतिदिन सामने आ रहे 90 हजार के करीब नए मामलों ने चिंता और बढ़ा दी है। इस महामारी के प्रकोप का असर र्आिथक गतिविधियों पर भी स्पष्ट रूप से दिख रहा है। बीती तिमाही में जीडीपी में करीब 24 फीसद की गिरावट से इसकी पुष्टि होती है। इससे तमाम खराब अनुमान सामने आ रहे हैं। इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च ने चालू वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी में पहले जो 5.3 प्रतिशत की कमी का अनुमान व्यक्त किया था, फिर उसे 11.8 प्रतिशत कर दिया।

36 राफेल विमानों पर 68,000 करोड़ रुपये खर्च आने का अनुमान

राफेल विमानों की पहली खेप का वायुसेना में शामिल होना यह भी दर्शाता है कि अपनी सेनाओं की क्षमताओं में अपेक्षित विस्तार के लिए भारत को किस पैमाने पर संसाधन उपलब्ध कराने होंगे? लड़ाकू विमान जैसे साजोसामान की ऊंची कीमत से यह और अच्छे से प्रकट होता है। बात केवल विमान खरीदने तक सीमित नहीं है। उनके साथ कलपुर्जे और लॉजिस्टिक पैकेज भी लेना होता है। 36 राफेल विमानों वाले समग्र पैकेज पर लगभग 68,000 करोड़ रुपये खर्च आने का अनुमान है। इतनी बड़ी राशि का भुगतान एकमुश्त न होकर चरणबद्ध तरीके से होगा। यह वार्षिक रक्षा बजट से ही किया जाएगा। इससे अंदेशा है कि अगले दो-तीन वर्ष तक यानी वर्ष 2023 तक गैर-विकास रक्षा व्यय में कमी आएगी। फिलहाल यही आसार दिख रहे हैं कि फरवरी 2021 में जब बजट पेश किया जाएगा, तब रक्षा व्यय इस साल पेश किए गए बजट के अनुमान से कम होगा। चालू वित्त वर्ष में 3.37 लाख करोड़ रुपये के रक्षा व्यय का अनुमान पेश किया गया था। इसमें पेंशन का हिस्सा शामिल नहीं था। इस राशि में करीब 65 प्रतिशत हिस्सा दस लाख से अधिक की सेना और अपेक्षाकृत छोटी वायु सेना, नौसेना के वेतन-भत्तों और रखरखाव की मद में खपना है। हालांकि वायुसेना और नौसेना जैसी अपेक्षाकृत छोटे आकार वाली सेनाओं का खर्च मुख्य रूप से पूंजीगत व्यय प्रधान है।

राफेल विमान का मामला निर्णय प्रक्रिया में देरी और आवश्यक वित्तीय आवंटन की पोल खोलता है

अपने सुरक्षा परिदृश्य को देखते हुए भारत जैसे देश को जरूरत तो इस बात की है कि न्यूनतम निरंतर आधुनिकीकरण और नए हथियारों की खरीद के लिए वह अपने रक्षा व्यय का 40 फीसद पूंजीगत आवंटन के रूप में करे। अभी यह 34 प्रतिशत के स्तर पर है और फिलहाल रुपये पर पड़ती मार के चलते और सिकुड़ रहा है। इस प्रकार नौसेना और वायुसेना को आधुनिकीकरण के लिए बहुत कम रकम मिल पाती है। राफेल विमान की ही मिसाल लें तो 2011-12 में ही इसका चुनाव कर लिया गया था, लेकिन यह 2020 में जाकर ही बेड़े में शामिल हो सका। यह पूरा मामला निर्णय प्रक्रिया में देरी और आवश्यक वित्तीय आवंटन की पोल खोलता है। बहरहाल लड़ाकू विमान सिर्फ एक मसला है।

सैन्य साजोसामान के मोर्चे पर तीनों सेनाओं की हालत खस्ता

यथार्थ यह है कि सैन्य साजोसामान के मोर्चे पर तीनों सेनाओं की हालत खस्ता है। यहां यह स्मरण कराना उपयोगी होगा कि 2016 के मध्य में संसदीय समिति ने सैन्य बलों में बड़े पैमाने पर उपयोग हो रहे पुराने उपकरणों पर चिंता जताते हुए सुरक्षा प्रतिष्ठान में लचर आधुनिकीकरण के लिए सरकार को आड़े हाथों लिया था। प्रतिष्ठित सैन्य अफसर और वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी की अध्यक्षता वाली समिति ने टिप्पणी की थी कि सेना को पुराने हथियारों से काम चलाना पड़ रहा है। कुछ चीजों का विशेष उल्लेख करते हुए समिति ने कहा था कि वाहनों, छोटे हथियारों, इन्फैंट्री स्पेशलिस्ट वेपंस, साइट एंड सर्विलांस उपकरण, सिग्नल एंड कम्युनिकेशन उपकरण, रडार के अलावा पावर इक्विपमेंट्स और जेनरेटर्स की भारी कमी प्रतीत होती है।

सेंट्रल विस्टा जैसी परियोजना पर नए सिरे से विचार किया जाए

वास्तव में तीनों सेनाओं में रक्षा साजोसामान को लेकर कड़वी हकीकत यही है कि बजटीय बाधाओं के कारण सुरक्षा बलों के आधुनिकीकरण और हथियारों का भंडार बढ़ाने की राह अवरुद्ध हो गई है। राष्ट्रीय क्षमताओं से जुड़ा यह अहम पहलू राजनीतिक प्राथमिकताओं के पायदान में उतना महत्वपूर्ण नहीं दिखता। ऐसे में सुरक्षा बलों में किसी तरह जुगाड़ के भरोसे काम चलाया जा रहा है। संकट के समय यह जुगाड़ भिड़ाना भारत की खूबियों में गिना जाता है। यह ठीक नहीं। बेहतर हो कि सेंट्रल विस्टा जैसी परियोजना पर नए सिरे से विचार किया जाए।

भारतीय सैनिक बढ़िया हथियारों से वंचित, स्तरीय कपड़े और जूते भी नहीं मिल पा रहे

जहां तक सैनिकों के लिए सुविधाओं का सवाल है तो इस मामले में एक शर्मनाक तथ्य यह है कि वे न केवल बढ़िया हथियारों से वंचित हैं, बल्कि उन्हेंं स्तरीय कपड़े और जूते जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही हैं। जहां भारत अन्य देशों की सेनाओं और पुलिस को कपड़े एवं जूतों का निर्यात करता है, वहीं उसकी अपनी सेना को वैसी गुणवत्ता की सामग्री नहीं मिल पा रही।

भारतीय सेना सबसे घटिया कांबैट बूट्स पहनने पर मजबूर

सेना के एक पूर्व कमांडर ने जून 2018 में इस बात का संज्ञान लेते हुए कहा था कि भले ही भारतीय विनिर्माता दुनिया में बेहतरीन गुणवत्ता वाले जूते तैयार करते हों, पर भारतीय सेना दुनिया में सबसे घटिया कांबैट बूट्स पहनने पर मजबूर है।

राजनाथ सिंह के समक्ष कई जटिल चुनौतियां

इस प्रकार देखा जाए तो रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के समक्ष कई जटिल चुनौतियां है। चूंकि चीन के साथ जारी गतिरोध के लंबी खिंचने की आशंका है लिहाजा भारतीय सेना को खासतौर से 3,800 किमी लंबी एलएसी की सुरक्षा के लिए कमर कसनी होगी। 1962 की लड़ाई में भारतीय सैनिकों को गुणवत्तापरक कपड़ों और जूतों के बिना ही जंग के मैदान में उतार दिया था। इस गलती के लिए देश ने जवाहरलाल नेहरू और कृष्णा मेनन को कभी माफ नहीं किया। हमें यही उम्मीद है कि 2020 में वह इतिहास नहीं दोहराया जाएगा।

( लेखक सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं )