[ सुधांशु त्रिवेदी ]: कांग्रेस में इन दिनों एक प्रकार का आलम-ए-बदहवासी छाया प्रतीत हो रहा है। लगता है वोट बैंक की मजबूरी के चलते विभ्रम ने विक्षिप्तता का रूप ले लिया है। पंजाब के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू से लेकर केरल से सांसद शशि थरूर तक इस विक्षिप्तता का विस्तार उत्तर से दक्षिण तक दिख रहा है। इन दोनों के ही बयानों की मीमांसा की जाए तो आलोचना के साथ ही साथ कुछ गंभीर प्रश्नों के उत्तर भी निकलते हैं।

सिद्धू कहते हैं कि दक्षिण भारत के मुकाबले उन्हें पाकिस्तान में भोजन, भाषा और भूषा की अधिक समानता नजर आती है। सिद्धू का यह बयान सही है। मैं इससे एक कदम और आगे कहना चाहूंगा कि एक कश्मीरी अथवा पंजाबी और दूसरी तरफ केरल या तमिलनाडु के किसी व्यक्ति को खड़ा कर दीजिए तो भोजन, भाषा और वेशभूषा में इतना अंतर है जितना यूरोप महाद्वीप में किसी ब्रिटिश या फ्रेंच, इटालियन या पुर्तगाली में नहीं होगा। फिर भी भारत एक हजार वर्ष की गुलामी के बाद यूरोप से कहीं अधिक विभिन्नताओं को लेकर 21वीं सदी में एक शक्तिशाली और प्रभावशाली राष्ट्र के रूप में खड़ा हुआ है।

सिद्धू जी, यदि पाकिस्तान के साथ इतनी समानता थी तो वह हमारे साथ क्यों नहीं रह पाया? विभाजन के वक्त लाखें हिंदुओं, सिखों का कत्लेआम क्यों हुआ? क्योकि ये सारी समानताएं किसी राष्ट्र की एकता और जीवंतता की गारंटी नहीं हैं। एकता की गारंटी वह सांस्कृतिक चेतना है जो उस राष्ट्र को प्रेरणा देते हों और जो भौगोलिक और राजनीतिक विभाजन से विभाजित नहीं होती हैं।

करतारपुर साहिब हो अथवा ननकाना साहिब- ये आज पाकिस्तान में हैं, परंतु क्या गुरु नानक देव और सिख धर्म को पाकिस्तान अपना मानता है? क्या अपने इतिहास में इसे पढ़ाता है। बिल्कुल नहीं, यह भारतीय संस्कृति, इतिहास और चेतना का हिस्सा माना जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में है। पूरी दुनिया में वह भारतीय इतिहास और संस्कृति के हिस्से के रूप में पढ़ाई जाती है। पाकिस्तान के इतिहास के रूप में नहीं। महाराजा रणजीत सिंह की राजधानी लाहौर भले ही पाकिस्तान में चली गई हो, परंतु महाराजा रणजीत सिंह का साम्राज्य भारतीय संस्कृति और इतिहास के लिए गौरव का विषय है और पाकिस्तान तो उसके प्रति वैमनस्य का भाव रखता है। इसलिए खानपान, बोलचाल और पहनावा एक होने के बावजूद जो चीज हमारे लिए गर्व का विषय है वह उनके लिए हिकारत का।

केवल विचार और मूल्यों के अंतर से भारत आज दुनिया में ‘इटेंलेक्चुअल कैपिटल’ के रूप में विख्यात है तो पाकिस्तान ‘टेरर कैपिटल’ के रूप में दुनिया में कुख्यात है। निष्कर्ष यह हुआ कि पे्ररणा देने वाले सांस्कृतिक मूल्य राष्ट्र की एकता का आधार हैं जिसे भाजपा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ कहती है बाकी सभी राजनीतिक और आर्थिक आधार कभी भी परिस्थितियों के कारण बदल सकते हैं। सिद्धू का उक्त बयान कांग्रेस और कम्युनिस्ट समेत सभी पार्टियों की राजनीतिक और आर्थिक कारणों से देश को एक रखने की राष्ट्र की अवधारणा के ऊपर एक तमाचा है।

नवजोत सिंह सिद्धू के बाद तिरुवनंतपुरम के कांग्रेस सांसद शशि थरूर ‘अच्छे हिंदू’ की व्याख्या करने में लग गए। उनके अनुसार श्रीराम जन्मभूमि के ऊपर बाबर के नाम से खड़े ढांचे, जो परिस्थितिजन्य कारणों से ढह गया, को यथावत रहने देना एक अच्छे हिंदू की निशानी है। यदि राष्ट्र के मान बिंदुओं पर आघात करने के लिए कोई प्रतीक विदेशी आक्रमणकारियों के द्वारा बनाया गया हो तो क्या उसे राष्ट्र के स्वाभिमान पर आघात नहीं माना जाना चाहिए? आखिर देश की स्वतंत्रता के बाद अनेक स्थानों पर किंग जॉर्ज और क्वीन विक्टोरिया की जो मूर्तियां लगी थीं उन्हें कांग्रेस की सरकार ने क्यों उखड़वाकर संग्रहालयों में रख दिया और उनकी जगह गांधी और नेहरू की प्रतिमाएं लगवा दीं?

सड़कों के जो नाम ब्रिटिश वायसरायों के नाम पर थे उन्हें बदलकर महात्मा गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर क्यों किया गया? किंग जॉर्ज, रानी विक्टोरिया और वॉरेन हेस्टिंग्स से लेकर माउंटबेटन तक जितने भी ब्रिटिश गवर्नर जनरल या वायसराय हुए उनके प्रतीकों का भारत के ईसाइयों से कोई संबंध था क्या? यदि नहीं तो फिर लोधी, तुगलक और मुगल बादशाहों के तमाम विध्वंसक कार्यों का भारतीय मुस्लिमों से कोई नाता क्यों जोड़ते हैं? समस्या यहीं पर है। जब आप यह संबंध जोड़ते हैं तो भारत के अल्पसंख्यकों में सबसे बड़े बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को विदेशी आक्रमणकारियों के साथ जोड़ने का कार्य करते हैं। जो घातक भी है और यथार्थ से विपरीत भी।

न जाने कितने मुस्लिम फकीर और कवियों ने अपनी रचनाओं में भगवान राम के नाम का गुणगान किया है। सूफी संगीत में आज भी जहां तहां राम शब्द आ जाता है, परंतु भारत के इतिहास में किसी भी प्रतिष्ठित मुस्लिम कवि या विद्वान ने बाबर की प्रशंसा में कोई रचना नहीं रची। हकीकत तो यह है कि कांग्रेस भारत की एकमात्र पार्टी थी जिसे स्वतंत्रता के समय हिंदू पार्टी कहा जाता था, लेकिन तब इस कांग्रेस की प्रेरणा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे जिनका राजनीतिक दर्शन था ‘राम राज्य’, नित्य का भजन था ‘रघुपति राघव राजा राम’ और अंतिम शब्द थे ‘हे राम’ जो आज भी उनकी समाधि पर अंकित हैं। इंदिरा गांधी के समय गोरक्षा के लिए आए संतों पर गोली चलवाकर और सोनिया गांधी के समय सुप्रीम कोर्ट में राम काल्पनिक हैं का हलफनामा देकर तथा राहुल गांधी के मुख से हिंदू आतंकवाद ज्यादा बढ़ी समस्या है, कहलाकर कांग्रेस ‘बैड हिंदू’ बन गई।

सिद्धू और थरूर के विचार गुलामी के प्रतीकों को जीवंत एवं उसके आगे भारत के स्वाभिमान को नतमस्तक, भ्रमित एवं पद दलित रखने के मैकाले के विचार और बाद में मार्क्स के अनुयायियों द्वारा उसे संस्थागत, महिमामंडित रूप दिए जाने की कोशिश की एक स्वाभाविक परिणति हैं। प्रख्यात विचारक और नोबेल पुरस्कार विजेता वीएस नायपॉल ने कहा था कि भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां राष्ट्रीय स्वाभिमान को बढ़ाने वाला नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वाभिमान को नष्ट करने वाला इतिहास पढ़ाया जाता रहा। इन विचारों का प्रभाव केवल समाज एवं संस्कृति पर ही नहीं पड़ता, बल्कि देश की सुरक्षा, रणनीति और राजनीति पर भी गहरा पड़ा था। इसीलिए भारत मोदी सरकार के आने से पहले एक ‘सॉफ्ट स्टेट’ माना जाता था। हम दुनिया के शायद विरले देशों में से एक हैं जो पिछले 60 साल से अधिक समय तक अपने से छोटे और कमजोर देश के द्वारा सताए जा रहे।

कांग्रेस पार्टी मूल भारतीय विचारों से बहुत दूर है और इसीलिए वह न राष्ट्र का तत्व समझती है और न ही राष्ट्रीय स्वाभिमान का। शायद इसी कारण इसीलिए एक ही पार्टी में रहते हुए सिद्धू को दक्षिण भारतीयों से अदावत है तो चिदबंरम को उत्तर भारतीयों से। 21वीं सदी में भारत को महान राष्ट्र बनाने के लिए गुलामी के दौर के विचार और प्रतीकों से मुक्त होकर राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय स्वाभिमान को वास्तविक रूप में समझने वाले नेतृत्व की आवश्यकता है।

[ लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ]