ब्रजबिहारी। Azadi Ka Amrit Mahotsav स्वाधीनता प्राप्ति के 74 साल पूरे होने पर चल रहे आजादी के अमृत महोत्सव के एक पोस्टर में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर नहीं लगाए जाने के मामले को कांग्रेस को कुछ ऐसे तूल दे रही है जैसे नेहरू को विस्मृति के गर्भ में धकेलने की कोई दुरभिसंधि हो रही है और पूरे देश को इससे आगाह करने और जगाने की जरूरत है। अगर मान भी लिया जाए कि कांग्रेस जिस चिंता में दुबली हुई जा रही है वह सही भी है तो क्या नेहरू अब महज एक तस्वीर के मोहताज रह गए हैं। कांग्रेस नेताओं द्वारा इस पर हंगामा खड़ा किए जाने पर पोस्टर जारी करने वाली भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आइसीएचआर) ने स्पष्ट किया कि यह आखिरी पोस्टर नहीं है। आगामी पोस्टरों में नेहरू को स्थान दिया जाएगा।

दरअसल, ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को नेहरू की तस्वीर हटाए जाने से ज्यादा परेशानी इस बात से हो रही है कि उसमें वीर सावरकर को शामिल किया गया है। कांग्रेस को कितनी बार याद दिलाना पड़ेगा कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सावरकर के निधन पर उन्हें देश की उल्लेखनीय संतान कहकर संबोधित किया था। उनसे वैचारिक मतभेद होने के बावजूद वे उनका आदर करती थीं।

सवाल उठता है कि आखिर देशभर में जिस नेहरू के नाम पर सड़क, पार्क, स्टेडियम और विश्वविद्यालय से लेकर सुरंग तक का नामकरण किया गया है, वहां एक पोस्टर से उनके हट जाने से क्या हो गया। क्या कांग्रेस वाले भूल गए कि कैसे उन्होंने स्वतंत्रता के बाद अपनी दीर्घकालीन सत्ता के दौरान सिर्फ नेहरू-गांधी परिवार का नाम जपने का काम किया। एक समय ऐसा भी आया जब कांग्रेस नेता देवकांत बरूआ ने 1974 में घोषणा कर दी- इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया। हैरानी नहीं है कि 1975-77 में इमरजेंसी के दौरान वही बरूआ पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर आसीन रहे।

कांग्रेस ने सोची-समझी रणनीति के तहत अपने शासनकाल में नेहरू-गांधी परिवार के अलावा स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण लोगों को परदे के पीछे ले जाने का काम किया। यहां तक कि गांधी को भी सिर्फ मूíतयों और समारोहों तक सीमित कर दिया। उन्होंने भारत में स्वराज का जो सपना देखा था, वह कतई ऐसा नहीं था, जिस पर नेहरू हमें ले गए। पहले कृषि का विकास करने के बजाय बड़े-बड़े उद्योगों की नीति बनाई गई। सरकार होटल चलाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक के काम करने लगी, जिनका संचालन प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में दे दिया गया। नतीजा यह हुआ कि ये देश की प्रगति का माध्यम बनने के बजाय नेता और नौकरशाही की आरामगाह बनकर रह गए।

दूसरी तरफ आयात पर निर्भरता की नीति अपनाई गई जिससे देश की प्राकृतिक क्षमता का दोहन नहीं हो पाया और हम धीरे-धीरे हर चीज के लिए विदेश पर निर्भर रहने लगे। हमारे साथ या हमारे बाद स्वतंत्र हुए कई एशियाई पड़ोसी देश निर्यात की नीति अपनाकर हमसे काफी आगे निकल गए। नेहरू ने यह सब पश्चिम के प्रभाव में किया, क्योंकि उनकी शिक्षा-दीक्षा पश्चिम में हुई थी। वह यह नहीं समझ पाए कि पश्चिमी देशों की जिस औद्योगिक उन्नति को वे अपने देश में रोपना चाहते हैं उसे प्राप्त करने के लिए उन देशों ने पहले कृषि विकास का रास्ता पार किया है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में बुनियादी सुविधाओं को विकसित किए बिना औद्योगिक विकास पर जोर देने की नीति विफल होनी ही थी।

कांग्रेस चाहे जितनी कोशिश कर ले, लेकिन देश में नेहरू की यही छवि है कि वे एक रूमानी साम्यवादी नेता थे। पंथनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों के संरक्षण और वोट की राजनीति को बढ़ावा देने वाले नेहरू ही थे। अंग्रेजों की शिक्षा नीति को जारी रखते हुए कम्युनिस्टों के नजरिये से इतिहास लिखवाकर देश में हीनता की भावना भरने वाले वही थे। चीन की चालबाजियों से आंखें मूंद देश को सामरिक रूप से कमजोर करने वाले भी वही थे। वह न तो देश को सही दिशा दे पाए और न ही पार्टी को। जब तक रहे तब तक सब ठीक रहा, लेकिन उनके निधन के बाद इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी ने सत्ता संभाली, परंतु परिवारवाद के कारण पार्टी धीरे-धीरे कमजोर होती गई।

दरअसल, कांग्रेस कभी एक पार्टी थी ही नहीं। इसलिए गांधीजी ने आजादी के बाद इसे समाप्त करने का सुझाव दिया था। अंग्रेजी के शब्द कांग्रेस का मतलब जुटान होता है। यह आजादी हासिल करने के लिए विभिन्न राजनीतिक मत वाले मतवालों का जुटान था, जो एक मंच पर खड़े होकर लड़े और देश को स्वतंत्र कराने में सफल हुए। अब यह मंच वीरान सा हो गया है।