[ पुष्पेंद्र सिंह ]: दिल्ली-एनसीआर और उसके आसपास के क्षेत्र में बढ़ते वायु प्रदूषण को काबू करने के लिए केंद्र सरकार ने एक नई संस्था वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग का गठन किया है, परंतु यह याद रखा जाना चाहिए कि प्रदूषण के लिए केवल पराली यानी फसलों के अवशेष जलाना ही जिम्मेदार नहीं है। प्रदूषण का आकलन करने वाली सरकारी संस्था ‘सफर’ के अनुसार इन दिनों दिल्ली के वायु प्रदूषण में अक्टूबर-नवंबर में धान की कटाई के साथ ही पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण की हिस्सेदारी औसतन 20 प्रतिशत रहती है। यानी दिल्ली-एनसीआर में बाकी 80 प्रतिशत प्रदूषण स्थानीय कारकों की वजह से होता है। यह सच है कि पराली जलाने के कारण समस्या और बढ़ जाती है, परंतु पराली मुख्य रूप से 15 अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच ही जलाई जाती है, जबकि वायु प्रदूषण पूरी सर्दियों में बना रहता है।

खेत खाली करने के लिए किसान फसल अवशेष को खेत में ही जलाने को मजबूर

दरअसल दस साल पहले तक पंजाब और हरियाणा में धान की रोपाई मई अंत तक शुरू हो जाती थी और अक्टूबर माह में मौसम बदलने से पहले ही कटाई पूरी हो जाती थी। इससे वायु प्रदूषण कम होता था और उसका प्रभाव वायु की दिशा, तापमान, आद्रता अलग होने के कारण सीमित रहता था, परंतु 2009 में भूजल संरक्षण के लिए इन दोनों राज्यों ने कानून बनाकर धान की रोपाई पर मध्य जून तक प्रतिबंध लगा दिया, जिससे यह फसल-चक्र बाधित हो गया। अब 15-30 जून के बीच अधिकांश रोपाई होने के कारण सारी फसल एक साथ ही कटाई के लिए मध्य अक्टूबर के आसपास तैयार हो जाती है। किसानों को अक्टूबर में खेत खाली करने की जल्दी भी रहती है, क्योंकि उन्हें अपनी रबी की अगली फसल-आलू, मटर, सरसों, गेहूं आदि की बोआई के लिए खेत तैयार करने के लिए बहुत कम समय मिलता है। इस वक्त एक साथ पर्याप्त संख्या में मजदूर मिलने भी संभव नहीं होते और बहुत महंगे भी पड़ते हैं। इसलिए भी किसान मशीनों से कटाई के लिए मजबूर होते हैं, परंतु मशीन फसल को ऊपर से काटती है और नीचे का हिस्सा फसल अवशेष के रूप में खेत में ही रह जाता है। खेत खाली करने के लिए किसान इसी को जला देते हैं।

पराली जलाने से प्रदूषण ही नहीं होता, बल्कि जमीन की उर्वरता कम होती जा रही है

पराली जलाने से केवल प्रदूषण ही नहीं होता, बल्कि खेत से नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर, पोटेशियम जैसे पोषक तत्वों का भी ह्रास होता है, जिससे जमीन की उर्वरता कम होती जा रही है। इस कारण अगली फसल में और ज्यादा मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग करना पड़ता है। इससे खाद सब्सिडी का बोझ बढ़ता है और किसानों की लागत भी। चूंकि खाद का हम बड़ी मात्रा में आयात करते हैं तो इससे हमारा व्यापार घाटा भी बढ़ता है, जिसके अपने अलग नुकसान हैं।

पराली जलाने से निकलने वाली जहरीली गैसों से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है

पराली जलाने से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड एवं अन्य जहरीली गैसों से स्वास्थ्य का नुकसान तो होता ही है, वहीं इसकी आग में कृषि में सहायक केंचुए समेत अन्य सूक्ष्म जीव भी नष्ट हो जाते हैं। इससे फसलों की पैदावार घटने का अंदेशा रहता है। मशीनों से पराली प्रबंधन के लिए जो उपाय सुझाए गए हैं, उनकी अपनी समस्याएं हैं। मशीन से कटाई और बाद में हैप्पी सीडर आदि चलाने में भी तो डीजल का ही प्रयोग होता है, जिससे किसान का खर्च तो बढ़ता ही है, प्रदूषण भी बढ़ता है। पराली से बिजली बनाने या उसका कोई अन्य प्रयोग करने वाले सुझाव भी सीधे या परोक्ष रूप से प्रदूषण को बढ़ाते हैं। किसानों का मशीनों से पराली निस्तारण में कुल मिलाकर लगभग 10 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर का खर्चा आता है। इस खर्च को वहन करने की किसान की क्षमता नहीं है, क्योंकि हम धान की एमएसपी अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम देते हैं।

पराली जलाने की समस्या को हल करने के लिए धान की कई नई उन्नत प्रजातियां विकसित हुईं

पराली जलाने की समस्या को हल करने के लिए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने धान की कई नई उन्नत प्रजातियां विकसित की हैं, जो न केवल ज्यादा उत्पादन देती हैं, बल्कि ये कम पानी, कम समय में तैयार हो जाती हैं और उनमें कीटों या बीमारियों का प्रकोप भी कम होता है। इन प्रजातियों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, क्योंकि इनके प्रयोग से अगली फसल की तैयारी के लिए किसान को ज्यादा समय मिलेगा।

पंजाब और हरियाणा को छोड़कर अन्य कहीं धान की पराली नहीं जलाई जाती

पंजाब और हरियाणा को छोड़कर आम तौर पर अन्य कहीं धान की पराली नहीं जलाई जाती। पश्चिम उत्तर प्रदेश में तो अधिकांश धान हाथ से काटा जाता है। इससे एक तो प्रदूषण नहीं होता और दूसरे मजदूरों को रोजगार भी मिलता है। पराली को हरे चारे में मिलाकर पशुओं को खिलाया जाता है। जिस प्रजाति की पराली को पशु खाना पसंद नहीं करते, उसे पशुओं के लिए बिछौना बनाने के काम में लिया जाता है। पराली, गोबर और मूत्र के मिश्रण से अच्छा जैविक खाद बन जाता है। इस प्रकार बिना किसी प्रदूषण के पराली का पूरा आर्थिक प्रयोग हो जाता है।

पराली का प्रबंधन प्रदूषण रहित तरीके से हो सकता है 

पराली का प्रबंधन, इस्तेमाल और निस्तारण बहुत ही सरल, जैविक और प्रदूषण रहित तरीके से हो सकता है। इसके लिए सरकार धान की एमएसपी कृषि लागत मूल्य आयोग द्वारा निर्धारित सी-2 लागत के डेढ़ गुने के आधार पर घोषित करे और धान की हाथ से कटाई में लगे मजदूरों को मनरेगा के माध्यम से सरकार भुगतान करे। राज्य सरकारें भी केंद्रीय सहयोग से धान की हाथ से कटाई के लिए तीन सौ रुपये प्रति क्विटंल एमएसपी के ऊपर अलग से दे सकती हैं।

धान की उचित एमएसपी, फसल की हाथ से कटाई से पराली को जलने से रोका जा सकता है

खाद सब्सिडी, व्यापार घाटे, प्रदूषण, बढ़ते तापमान, स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में बड़ी कीमत तो देश चुका ही रहा है, सर्दियों में हमारे देश में पर्यटन का भी सीजन होता है, जो प्रदूषण से प्रभावित होता है। यदि इस कीमत का कुछ हिस्सा सीधे किसानों को धान की उचित एमएसपी, फसल की हाथ से कटाई के लिए मनरेगा पोषित मजदूरों या प्रति हेक्टेयर सब्सिडी के रूप में दे दिया जाए तो कहीं कम कीमत चुकाकर हम पराली जलाने से होने वाले प्रदूषण से बच सकेंगे और बेहतर पर्यावरण संरक्षण कर सकेंगे।

( लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं )