प्रो. कामेश्वर नाथ सिंह। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की पूर्णता की ओर अग्रसर मानव समुदाय विविध तकनीकी कारणों से बहुआयामी समस्याओं से जूझ रहा है। असंतुलित आहार एवं कुपोषण जैसी चुनौतियां उनमें से एक है, जो प्रकारांतर से अंधाधुंध अपनाई जाने वाली तकनीकी कारणों का प्रतिफल हैं।

एक क्षेत्र की संरचना, मिट्टी, जलसंसाधन एवं वानस्पतिक तथा प्राणि जगत दूसरे क्षेत्र से सर्वथा भिन्न है। इस विविधता एवं भिन्नता के अनुरूप अलग-अलग फसलों का उत्पादन नैसर्गिक प्रक्रिया है, जो हजारों वर्षो के बाद बीजों की विविधता के रूप में विकसित हुई। भौगोलिक विशिष्टता एवं विविधता के अनुरूप विकसित ये बीज अनेकानेक पोषण तत्वों यथा लौह तत्व, मैगनीज,फॉस्फोरस, प्रोटीन आदि तत्वों से भरपूर होते थे, परंतु कृषि क्रांति ने परंपरागत पोषण से पुष्ट फसलों यथा सांवा, कोदो, मडुवा, टांगुन, दलहन, तिलहन आदि को लील लिया। आज पूरा चिकित्सा जगत परंपरागत ‘मोटे अनाज’ कहे जाने वाले खाद्यान्नों को खाने का सुझाव दे रहा है, जो हमारी प्रचलित कृषि व्यवस्था पर सोचने के लिए वैकल्पिक कृषि हेतु नियोजकों एवं नीति निर्धारकों को ध्यानाकर्षित कर रहा है। 

हरित क्रांति से पूर्व ग्रामीण क्षेत्रों में बीजों की एवं फसलों की इतनी विविधता थी, कि हर खेत की प्रकृति के अनुसार अलग-अलग बीजों एवं फसलों का चयन किया जाता था, जो मानसूनी लीला, अतिवृष्टि एवं अनावृष्टि को सहन करते हुए पर्याप्त उत्पादन देते थे। धान की बीजों की इतनी विविधता थी, कि यदि हर किस्म के धान के एक-एक टुकड़े को घड़े में रखा जाय तो वह घड़ा भर जाता था। कुछ खेतों का नामकरण तो उन विशिष्ट फसलों के आधार पर होता था। 

हरित क्रांति के आगमन के थोड़े ही समय में सिंचाई, कीटनाशक, संकरबीज एवं रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ाकर गेहूं एवं धान जैसी फसलों का उत्पादन तो बढ़ गया, जो तत्कालीन जनसंख्या विस्फोट के परिणाम स्वरूप बढ़ती जनसंख्या के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक था, परंतु बिना क्षेत्रीय भौगोलिक विविधताओं एवं विशिष्टताओं का विचार किये, इस अस्वाभाविक क्रांति के चलते भूमि की नैसर्गिक उर्वराशक्ति में ह्रास, भूगर्भिक जल सिकुड़न एवं असंतुलन, बीज विविधता का विलोपन, खाद्य पदाथोर्ं की विषाक्तता जैसी समस्याएं मुखरित हुई, जो अब इस प्रचलित कृषि पद्धति की निरंतरता के आगे एक प्रश्न वाचक चिह्न हैं। 

फसलों की विविधता समाप्त होने के कारण सम्प्रति कृषि कुछ ही गिनी चुनी फसलों पर आश्रित होती जा रही है, जो मिट्टी के पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए संकट होने के साथ-साथ पौष्टिक एवं संतुलित आहार की उपलब्धता के लिए भी संकट है। इस समसामयिक संकट से उबरने के लिए नियोजकों एवं नीति निर्धारकों से प्रचलित कृषि व्यवस्था पर ध्यान अपेक्षित है, जिससे वैकल्पिक कृषि का मार्ग प्रशस्त हो सके।

उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय प्रयागराज के कुलपति प्रोफेसर कामेश्वर नाथ सिंह ने बताया कि आज एक ऐसी सदाबहार हरित क्रांति की आवश्यकता है, जो बीजों एवं फसलों की विविधता बनाये रखते हुए पर्यावरणीय विशिष्टताओं के अनुरूप हो एवं सतत पौष्टिक आहार उपलब्ध करा सके।