[ ज्ञान चतुर्वेदी ]: कुछ लोग इतिहास बनाते हैं। ऐसे बड़े काम कर जाते हैं कि इतिहास आगे बढ़कर उनको और उनके काम को दर्ज करता है। वैसे यह इतिहास बनाना बड़े झंझट का काम है। उम्र लग जाती है, इतिहास बनाने में। फिर भी सभी नहीं बना पाते। यह तो हुई इतिहास बनाने वालों की बात। इनसे इतर एक तबका है इतिहास लिखने वालों यानी इतिहासकारों का। इनका काम भी छोटा नहीं होता, बल्कि बड़ा काम है यह भी। बड़ी समझ और तटस्थता चाहिए इस काम में। अक्सर ऐसा होता नहीं।

हर इतिहासकार और कथित इतिहासकार के अलग-अलग होते हैं चश्मे

हर इतिहासकार और कथित इतिहासकार की अपनी दृष्टि होती है। दृष्टि-दोष होते हैं। अलग-अलग चश्मे होते हैं। खेमे होते हैं, दरबार होते हैं, मालिक होते हैं, लगामें होती हैं, पहिये होते हैं, गड्ढे होते हैं, अपने चुने और बुने रास्ते होते हैं और स्वार्थ तो होते ही हैं। ये कलमें चुन-चुनकर इतिहास के अपने ही पन्ने तैयार करती हैं। इस तरह, इतिहास की अधिकांश पुस्तकें बस चुनी और गढ़ी हुई स्मृतियों तथा चुनी हुई विस्मृतियों का चालाक पोथा बनकर रह जाती हैं। इतिहास अक्सर भ्रम पैदा करता है। वही घटना कई पोशाकों में मिलती है। इतिहास में सब होता है। थोपी हुई कथाएं, रचे गए प्रसंग, सुनी-सुनाई बातें, कहां इतिहास है और कहां मात्र एक विशुद्ध किस्सा, पता ही नहीं चलता। सो इतिहासकार का काम इतिहास बनाने वालों जैसा कठिन न भी हो, पर है कठिन भी और बड़ी जिम्मेदारी का भी।

इतिहास में गलत के दर्ज हो जाने और सही के छूट जाने के खतरे बहुत होते हैं

फिसलन भरा रास्ता है इतिहास लेखन। इतिहास में गलत के दर्ज हो जाने और सही के छूट जाने के खतरे बहुत बड़े हैं। बार-बार यह हुआ भी है। होता ही है। गलत इतिहास पढ़ाकर और पढ़कर पीढियों को बरगलाया जा सकता है। इतिहासकार यदि दरबारी किस्म का हो तो वह इतिहास की कलाई को इतना मरोड़ सकता है कि पढ़ने वाले की समझ पर नील पड़ जाएं। बहस के लिए बड़ा मुफीद है ऐसा इतिहास लेखन।

इतिहास का एक और कोण

अब जाकर हमें पता चला कि इतिहास का एक और कोण भी हो सकता है। हाल के वर्षों में इतिहास में लिखे को लेकर देश में इतनी खींचतान मची है कि पुस्तक पुर्जे-पुर्जे हो गई है। सही पन्ने हवा में उड़ा दिए गए हैं। चुनाव सभाओं में, मीडिया की बहसों में, टीवी पर अहर्निश जारी कुकरहाव में, तू-तू मैं-मैं में, वॉट्सएप और फेसबुक आदि के अहातों में जारी प्रवचनों तथा गाली-गलौज में। इधर हमने इतिहास को एक साथ ही बहस, लात-घूंसे, मुंहजोरी और बरगलाने के काम पर लगा दिया है। प्रत्येक मंच से इतिहास का प्रहसन जारी है।

इतिहास को तोड़ मरोड़कर पेश कर लोगों के बीच जाकर वोट मांगे जा सकते हैं

हमें यह भी पता चला है कि यदि इतिहास को तिरछा करके, उल्टा करके, सही स्थानों पर उसे ढांक कर, गलत जगहों पर उसे मनचाहा उजागर करके और उसमें अपने कारिंदों से लिखवाए गए जाली पन्ने जोड़कर, सही मजमें में, पूरी बाजीगरी और हाथ तथा गले की सफाई के साथ यदि तमाशे की तरह पेश किया जाए तो सारे तमाशे के बाद लोगों के बीच झोली घुमाकर वोट मांगे जा सकते हैं।

इतिहास के गड़े मुर्दों में जान फूंकना आसान नहीं

वैसे इतिहास के गड़े मुर्दों में जान फूंककर उन्हें खड़ा कर देना इतना आसान होता भी नहीं है। तमाशा खड़ा करने की अपनी शर्तें होती हैं। सामान लगता है, कलाकारी लगती है, बेशर्मी लगती है और एक किस्म की हठधर्मी भी चाहिए यह सब करने के लिए। लच्छेदार बातें लगती हैं। बहुत सा झूठ लगता है। सिखाए-पढ़ाए बंदर-बंदरिया लगते हैं। इतिहास से वर्तमान को बरगलाया जा सकता है। इतिहास को लेकर ठीक सा खेल पेश करें तो भीड़ आती तो है। इतिहास का यह इस्तेमाल नया है भी, नहीं भी है।

बाजीगरों का मजमा है अब राजनीति

सदियों से सत्ता ने अपनी सुविधानुसार इतिहास बनवाए हैं, पर अब तो उसकी भी जरूरत महसूस नहीं की जा रही। इतिहास में जो भी लिखा है, लिखा रहे पर हम तुमसे कह रहे हैं न? बस, वह सुनो। इतिहास के पन्ने चबाने और गुटकने के पश्चात उन्हीं की अपनी लड़ी बनाकर मुंह से निकालने वाले बाजीगरों का मजमा है अब राजनीति। इतिहास के पन्नों में बांधकर जहर की पुड़िया को भी अमृत बताकर बेचा जा सकता है। यह कला भी अब राजनीतिशास्त्र का अहम हिस्सा बन गई है। भगवान हमारे इतिहास की रक्षा करे और भविष्य की भी।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]