डॉ. रमेश ठाकुर। Amroha Mass Murder Case कुछ फैसले इतिहास बदल देते हैं। व्यवस्था को नए सिरे से रचते हैं। आन वाले दिनों में देश के न्यायतंत्र में एक नया पन्ना जुड़ जाएगा जिसमें पहली बार किसी महिला को उसके आपराधिक कृत्य के लिए फांसी की सजा देने की बात लिखी जाएगी। दरअसल उत्तर प्रदेश के अमरोहा की शबनम ने साल 2008 के अप्रैल महीने में अपने प्रेमी के सहयोग से अपने समूचे परिवार को मौत के घाट उतार दिया था। उसकी क्रूरता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्हें कुल्हाड़ी से काटते वक्त उसे रत्तीभर दया नहीं आई कि वह अपनों का ही खून बहाने जा रही है। उसका अपराध निश्चित रूप से उस पर रहम करने वाला नहीं था।

अपने कथित प्यार को पाने के लिए वह अपनों की कैसे दुश्मन बनी, उसने इसका खुलासा घटना के कुछ समय पश्चात किया था। अपने कुकृत्य को लेकर उसे अपराधबोध भी हुआ, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके बर्बर अपराध ने एक हंसती खेलती दुनिया का अंत कर दिया था। उसका मामला 12-13 साल तक निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चलता रहा। उसकी दया याचिका राष्ट्रपति के चौखट तक भी पहुंची, लेकिन अब उसे फांसी देने का रास्ता लगभग साफ हो गया है।

शबनम को शायद उत्तर प्रदेश के मथुरा में बने उसी फांसीघर में ही फांसी दी जाएगी, जो बीते डेढ़ सौ वर्षो से अपने पहले मेहमान का इंतजार कर रहा है। अंग्रेजी हुकूमत ने वर्ष 1871 में मथुरा में पहला महिला फांसीघर बनाया था। आजादी की लड़ाई लड़ने वाली तब कई महिला क्रांतिकारियों को फांसी देना अंग्रेजों ने मुकर्रर किया था, लेकिन महात्मा गांधी और अन्य नेताओं के विरोध के कारण अंग्रेज किसी महिला क्रांतिकारी को फांसी नहीं दे पाए। अब उस फांसीघर का शायद पहली बार इस्तेमाल होगा। हालांकि शबनम को फांसी देने की अंतिम तारीख अभी तय नहीं हुई है, लेकिन तय है फांसी उसी घर में दी जाएगी। जेल प्रशासन की तैयारी पूरी है। बस इंतजार अंतिम डेथ वारंट का है।

देश में एक समय था जब बड़े अपराधों में महिलाओं का बोलबाला हुआ करता था। आज अवैध धंधेबाजी, शादी-ब्याह के नाम पर ठगी, नशीले पदार्थ बेचने, सार्वजनिक स्थानों पर पॉकेटमारी करने में भी महिलाओं की सक्रियता ज्यादा आने लगी है। महिलाओं से जुड़े अपराधों की बात करें तो सोनू पंजाबन, शबाना मेमन, रेशमा मेमन, अंजलि माकन, शोभा अय्यर, समीरा जुमानी के नामों को भी शायद कोई भूल पाए। इनमें कई नाम ऐसे हैं, जिनका अपराध फांसी के लायक रहा है, लेकिन भारत के उदार न्याय तंत्र के कारण ये तब बच गईं या फिर इन्हें बचा लिया गया। शबाना और रेशमा मुंबई बम कांड की अभियुक्त हैं, जो दोनों क्रमश: अयूब मेमन एवं टाइगर मेमन की पत्नियां हैं। आज देशभर की अदालतों में करीब 42 हजार ऐसे मामले लंबित हैं जिनमें महिलाओं द्वारा किए जघन्य अपराध शामिल हैं।

गौरतलब है कि समाज की संवेदना, उदारता और विनम्र-आदरभाव हमेशा महिलाओं के प्रति औरों से ज्यादा रहा है। ऐसे दौर में जब महिलाएं विभिन्न गतिविधियों जैसे शिक्षा, राजनीति, मीडिया, कला एवं संस्कृति, सेवा क्षेत्र, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में विजय पताका फहरा रही हैं, तब एक महिला अपराधी को फांसी पर लटकाने की तैयारी हो रही है। निश्चित रूप से भारतीय समाज के हृदय में इसे लेकर पीड़ा है, लेकिन उसका अपराध माफी देने योग्य भी तो नहीं है। ऐसे केसों में उदारता दिखाने का मतलब है, दूसरे केसों को बढ़ावा देना, अपराधियों को निडर बनाना। वैसे भी न्याय व्यवस्था का तकाजा है कि एक ही अपराध के लिए सभी को समान रूप से सजा मिलनी चाहिए, भले अपराधी पुरुष हो या महिला।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो दिखता है कि इन दिनों महिलाएं भी अपराध जगत में तेजी से आगे बढ़ रही हैं। नारी का अपराध जगत में पैर पसारना चिंता का विषय है। वक्त रहते शासन-प्रशासन और नीति-निर्माताओं को इस तरफ ध्यान देना होगा। अब देश के न्यायतंत्र को महिला अपराधों में किसी तरह की उदारता और लचीलापन नहीं दिखाना चाहिए। शबनम जैसी और भी बहुतेरी घटनाएं विभिन्न राज्यों में घटी हैं। उन सभी केसों में यह फांसी की सजा नजीर बनेगी। साथ ही अपराधियों के भीतर डर पैदा करेगी। अब शबनम को फांसी मिल जाने के बाद देश में एक नई किस्म की बहस शुरू हो जाएगी। उन सभी केसों में जिरह के दौरान कोर्ट रूमों में शबनम की फांसी का उदाहरण गुंजा करेगा, जिनमें महिलाओं की संलिप्तता है। शबनम का नाम लेकर वकील महिला अपराधियों को फांसी देने की मांग जजों से किया करेंगे। कुल मिलाकर शबनम की फांसी एक मिसाल तो बनेगी ही, साथ ही अपराधियों में डर पैदा करने एवं समाज में अपराध रोकने में भी काफी हद तक मददगार बनेगी।

[सदस्य, केंद्रीय जनसहयोग एवं बाल विकास संस्था, भारत सरकार]