[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: अमृतसर की भयावह दुर्घटना के कारण इस बार दशहरे का सारा हर्ष-उल्लास कुछ क्षणों में राष्ट्रव्यापी दुख और उदासी में बदल गया। रेल पटरियों के किनारे रावण दहन देख रहे लोगों के साथ जो कुछ हुआ वह दुर्भाग्य से कुछ दिनों बाद भुला दिया जाएगा। केवल वे परिवार जिन्होंने अपने लोगों को खोया न केवल उन भीषण क्षणों को याद रखेंगे वरन दुर्घटना के परिणाम जीवन भर झेलते रहेंगे। सरकारी कार्रवाई कुछ दिनों बाद धीरे-धीरे फाइलों में बंद होकर रह जाएगी। आम धारणा है कि किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होगी और कोई दोषी नहीं पाया जाएगा। अपने देश में नेताओं, नौकरशाहों और जनता के बीच इतना अविश्वास बढ़ गया है कि लोग ऐसे मामलों में न्याय की उम्मीद भी छोड़ चुके हैं। अमृतसर की दुर्घटना में प्रशासनिक लापरवाही और संवेदनहीनता के एक के बाद एक तथ्य सामने आ रहे हैं, लेकिन इसी तेजी से उनके खंडन भी आ रहे हैं। नेता अपनी प्रकृति के अनुसार बयान दे रहे हैं कि इस दुर्घटना का राजनीतिकरण न किया जाए, मगर इसी के साथ वे राजनीतिक बयान भी दे रहे हैं और एक-दूसरे पर दोषारोपण भी कर रहे हैं। दो अन्य मामले वर्तमान स्थिति को पूरी तरह उजागर कर देते हैैं।

कुछ दिन पहले लखनऊ में एक पुलिस वाले ने एक युवक की हत्या कर दी। घोर जनाक्रोश उभरते ही सरकार हरकत में आई। इसी के साथ इस अपराधी पुलिस वाले के कई विभागीय सहयोगी उसके समर्थन में खड़े हो गए। वे अपने कार्यस्थल पर काला बिल्ला लगाकर आए और उन्होंने उसे बचाने के लिए धन एकत्र करना भी प्रारंभ कर दिया। पुलिसबल में अनुशासन का स्तर कहां तक गिरा है, यह उसका एक उदाहरण है। यदि अमृतसर में पुलिस व्यवस्था अपने आंख-कान खुले रखती तो शायद स्थिति कुछ और होती। दूसरा उदाहरण उन मौतों का है जो सीवेज साफ करते समय होती हैैं। अपने देश आए दिन रह-रह कर सफाई कर्मी सीवर साफ करने के दौरान जान गंवाते हैैं। हर बार एक-दूसरे पर दोषारोपण ही अधिक सुनने को मिलता है। नेता दलगत आधार पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में बढ़ चढ़ कर प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसी कारण सीवर साफ करने के क्रम में सफाईकर्मी अपनी जान गंवाते जा रहे हैैं। सीवर सफाई के दौरान होने वाली मौतों पर किसी को कोई दंड नहीं मिलता और न कोई उच्च अधिकारी अपनी जिम्मेदारी लेता है।

क्या अमृतसर हादसे में किसी ने अपनी जिम्मेदारी ली? वैसे तो सभी नेता और दल यही कहते हैं कि वे कतार के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के लिए ही सेवारत हैैं, लेकिन यथार्थ में ऐसा मुश्किल से ही दिखता है। यह अभी से दिख रहा है कि कुछ ही महीने में अमृतसर हादसे को भुला दिया जाएगा और हादसे के लिए जिम्मेदार सभी अधिकारी और कर्मचारी अपनी-अपनी जगह पर अपने-अपने अधिकारों का आनंद लेते दिखाई देंगे। क्या यह वही देश है जिसमें केशव देव मालवीय, टीटी कृष्णमचारी, लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोगों ने तब इस्तीफा दे दिया जब सभी मानते थे कि वे किसी अनैतिक कार्य में लिप्त नहीं थे?

कहां से चलकर हम कहां पहुंच गए हैैं, यह इसी से जाहिर हो जाता है कि अब कोई अपनी जिम्मेदारी ही नहीं लेता और इसीलिए किसी के इस्तीफे का प्रश्न नहीं उठता। यह परिवर्तन अचानक नहीं आया। भविष्यद्रष्टा गांधी जी ने 1922 में आने वाले समय का एक खाका खींचते हुए लिखा था कि यदि स्वराज आज आ जाए तो भी मेरे लोगों को कोई ख़ुशी नहीं मिलेगी। चार व्यवस्थाएं उन पर भारी पड़ेंगी- चुनावों के दोष, अन्याय, प्रशासन का बोझ और रसूख वालों का अत्याचार। आज सरकारी व्यवस्था से बाहर ऐसा कौन है जो इन चारों के शिकंजे से बच सका हो? जो समर्थ और साधन संपन्न हैं वे नियम-कानून की धज्जियां उड़ाना अपना अधिकार मानते हैं। उनके सहयोग से सत्ता तक पहुंचने वाले उनका संबल बन जाते हैं। ऐसे लोग कभी-कभार कानून के शिकंजे में आ भी जाएं तो उनका पहला बयान यही होता है कि मेरे खिलाफ राजनीतिक कारणों से बदले की कार्रवाई हो रही है। विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, नामी गिरामी बिल्डर्स से लेकर वाड्रा, चिदंबरम आदि के उदाहरण हमारे सामने हैैं।

सुस्त, संवेदनहीन, स्वार्थपरक और स्वकेंद्रित कार्यसंस्कृति ही अमृतसर जैसे हादसों का कारण बनती है। आश्चर्य यह है कि ऐसा तब है जब देश की मूल संस्कृति कर्तव्य परायणता को जीवन में शीर्ष स्थान पर रखती है। जन्म लेते ही तीन ऋण हर व्यक्ति के हिस्से में आ जाते हैं- पित्र ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण। सफल जीवन वही माना जाता है जो इन तीनों से उऋण होने में लगाया गया हो। महाभारत के शांति पर्व में मानव ऋण का भी वर्णन है। अन्य की सेवा को श्रेष्ठतम कार्य मानने वाली सभ्यता आज कर्मठता और कर्तव्य निर्वहन मेंं इतने नीचे कैसे आई, इसका गहन विश्लेषण होना ही चाहिए। वैसे आज यदि कोई अध्यापक छात्रों से या कोई प्रशिक्षक सरकारी कर्मियों से उक्त तीनों ऋण की चर्चा करने का साहस करे तो शायद उसे सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाए, क्योंकि इस तीनों का उल्लेख उन ग्रंथों में है जिन्हें धर्म विशेष से जोड़कर ही देखा जाने लगा है।

भारतीय समाज की कर्तव्यनिष्ठा का सबसे सटीक उदाहरण हमारे संविधान निर्माताओं की सोच से उजागर होता है। संविधान में मूल अधिकारों का विस्तृत वर्णन तीसरे भाग में है। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न पूछा जाता है कि कर्तव्यों को उतना ही महत्व क्यों नहीं दिया गया? इसका उत्तर शायद यह है कि हमारे समाज में कर्तव्यनिष्ठा का पाठ तो प्रारंभ से ही बच्चे के सम्मुख उभरता रहता था। वह देखता था कि बड़े किस प्रकार अपने-अपने कर्तव्य निर्वहन में कर्मठता से संलग्न रहते हैं। परिवार और संबंधों के प्रति समर्पण, बड़ों का आदर जैसे मूल्य तो परिवार और समाज से प्रत्येक बालक ग्रहण कर ही लेता था, लेकिन बदलते समय के साथ यह सारी सीख हाशिये पर चली गई।

आज तो विडंबना यह है कि नियमों के उल्लंघन में पढ़े-लिखे और अनपढ़ों में कोई अंतर नहीं दिखता। इस विडंबना का कारण नैतिक और मूल्यपरक शिक्षा का अभाव है। 1976 में संविधान में मूल कर्तव्यों को उल्लिखित करते हुए अनुच्छेद 51ए जोड़ा गया। दुर्भाग्य से उसका अपेक्षित प्रभाव न तो व्यवस्था पर पड़ा न ही सामान्य जन पर। यदि व्यवस्था पर पड़ता तो अमृतसर हादसा नहीं होता। यदि सामान्य जन पर पड़ता तो लोग रेल पटरियों पर खड़े होकर अपने जीवन को जोखिम में नहीं डालते।

[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक एवं स्तंभकार हैैं ]